मप्र की राजनीति में पिछले डेढ़ साल से कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की जोड़ी शोले फिल्म के जय-वीरू की तरह नजर आ रही थी। वैसे इनकी दोस्ती दशकों पुरानी है। लेकिन इस दोस्ती में जितनी गहराई कांग्रेस की डेढ़ साल की सरकार के दौरान दिखी उतनी पहले नहीं दिखती थी। इनकी दोस्ती को देखकर लोग शोले फिल्म का गाना भी गाने लगे थे कि 'ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे...’ लेकिन सत्ता जाते ही दोस्ती में भी गांठ पड़ गई है। ऐसा वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य देखकर मप्र कांग्रेस में दावा किया जा रहा है। कांग्रेस सूत्रों का कहना है कि 20 मार्च को कमलनाथ के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के कुछ दिन बाद से ही दोनों नेताओं में अबोला की स्थिति है। आलम यह है कि पिछले एक माह से कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष कमलनाथ के नेतृत्व में होने वाली बैठकों में कभी भी दिग्विजय सिंह नजर नहीं आए। सूत्रों का कहना है कि न ही उन्हें इन बैठकों के लिए बुलाया गया और न ही वे स्वयं शामिल हुए। इससे प्रदेश की राजनीतिक वीथिका में यह सुगबुगाहट हो रही है कि दोनों नेताओं की दोस्ती टूट गई है।
कमलनाथ ने जबसे प्रदेश कांग्रेस की राजनीति संभाली है तब से यही माना जा रहा था कि वे दिग्विजय सिंह की सलाह पर ही काम करते हैं। लेकिन प्रदेश में कांग्रेस की सरकार जाने के बाद से लेकर अभी तक हुई बैठकों में दिग्विजय सिंह गायब रहे। उपचुनाव या अन्य मसलों को लेकर कांग्रेस की जितनी भी बैठकें हुई हैं उनमें कमलनाथ के साथ सज्जन सिंह वर्मा, सुखदेव पांसे, एनपी प्रजापति, राजीव सिंह और प्रवीण कक्कड़ शामिल रहते हैं। यहां बता दें कि प्रवीण कक्कड़ तो वर्तमान में कांग्रेस के सदस्य भी नहीं हैं। वहीं कभी-कभार इन बैठकों में बाला बच्चन और सुरेश पचौरी भी नजर आ जाते हैं, लेकिन दिग्विजय सिंह एक बार भी नजर नहीं आए हैं। ऐसे में यह सवाल उठने लगा है कि आखिर ये दोस्ती क्यों टूट गई?
कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की राजनीति की तुलना करें तो, बड़ा फासला है। दिग्विजय सिंह अपनी पारी खेल चुके हैं और कमलनाथ की राजनीति और बिजनेस एक-दूसरे के पूरक जैसे हैं। बिजनेस ही कमलनाथ की राजनीति को सक्षम बनाता है और उसी की ताकत के बूते वो भाजपा के सामने चुनाव मैदान में टिक पाए। वहीं दिग्विजय सिंह का पेशा ही राजनीति है। उनकी हमेशा यह कोशिश रहती है कि उनके आगे कोई न निकले। सूत्रों का कहना है कि अभी तक तो दिग्विजय सिंह और कमलनाथ की दोस्ती रही है, लेकिन इस दोस्ती का आधार सिंधिया घराने से दुश्मनी रही है। अब कांग्रेस में फिलहाल सिंधिया घराने का कोई नामलेवा नहीं है। शायद यही वजह हो सकती है कि दोनों ने अपने रास्ते अलग-अलग कर लिए हों।
वहीं सूत्र बताते हैं कि जब कांग्रेस में अपनी उपेक्षा से ज्योतिरादित्य सिंधिया नाराज होने लगे थे तब मौके की नजाकत को भांपते हुए कमलनाथ ने सुनील भारती मित्तल और शोभना भारती की मौजूदगी में सिंधिया के साथ समझौता करने की कोशिश की, लेकिन बात बनी नहीं और सिंधिया बैठक से बाहर हो गए। उसके बाद सिंधिया ने सोनिया गांधी को भी पत्र लिखकर अपनी नाराजगी जाहिर की। ऐसी स्थिति में दिग्विजय सिंह ने कमलनाथ को आश्वस्त किया था कि सिंधिया कहीं जाने वाले नहीं हैं। आपकी सरकार पूरी तरह सुरक्षित है। सूत्र बताते हैं कि दिग्विजय के इसी आश्वासन के कारण कमलनाथ ने सिंधिया को कभी भी मनाने की कोशिश नहीं की। अब जब सिंधिया के कारण उनकी सरकार जाती रही तो इसके पीछे दिग्विजय सिंह को वजह मानते हुए कमलनाथ ने दूरी बना ली है।
कुछ सूत्र तो यह भी बताते हैं कि सिंधिया के भाजपा में चले जाने के बाद मध्य प्रदेश में कमलनाथ के रास्ते का एक कांटा भले ही निकल चुका है लेकिन अभी कई बाकी हैं। इनमें से एक दिग्विजय सिंह भी हैं। जहां सिंधिया खुद कमलनाथ के लिए चुनौती थे, वहीं कमलनाथ अपने बेटे नकुलनाथ की राह में भी सिंधिया को बड़े चैलेंज के तौर पर देख रहे थे। सिंधिया की विदाई के बाद कमलनाथ को अपने बेटे के रास्ते में अब सिर्फ दिग्विजय सिंह के बेटे जयवर्धन सिंह ही रोड़ा हो सकते हैं। वहीं दिग्विजय सिंह की भी कोशिश होगी कि वे प्रदेश में नकुलनाथ को सक्रिय न होने दें। इसलिए दोनों नेताओं ने मनमुटाव इतना बढ़ गया होगा कि बरसों पुरानी दोस्ती टूट गई है।
अजय-अरुण भी पड़े अलग-थलग
डेढ़ साल में ही सत्ता जाने के बाद कांग्रेस के सामने 24 सीटों पर होने वाले उपचुनाव ही वह माध्यम है जिसके रास्ते वह फिर से सत्ता में वापसी कर सकती है। कांग्रेस उपचुनाव की तैयारी में जुट गई है। लेकिन हैरान करने वाली बात यह है कि कांग्रेस की इस चुनावी तैयारी में अजय सिंह और अरुण यादव जैसे कद्दावर नेता गायब हैं। दोनों ही नेता भले ही विधानसभा चुनाव हार गए हैं, लेकिन आज भी इनका प्रदेश की राजनीति में रसूख है। लेकिन देखा यह जा रहा है कि कमलनाथ की बैठकों में इन नेताओं को बुलावा नहीं भेजा जा रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि कांग्रेस किस प्रकार उपचुनाव में भाजपा को मात दे पाएगी और सत्ता में वापसी कर पाएगी। कांग्रेस के एक पदाधिकारी कहते हैं कि प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ न जाने किस रणनीति पर काम कर रहे हैं। उन्हें विधानसभा चुनाव 2018 की तरह सभी नेताओं को एकसाथ लेकर उपचुनाव में उतरना होगा। तभी भाजपा का मुकाबला किया जा सकता है।
- राजेश बोरकर