पार्टी के कायाकल्प की योजना तैयार करने के मकसद से पत्र लिखने वाले 23 कांग्रेसी नेताओं की जिस तरह उपेक्षा हो रही है, उससे यह संकेत मिलने लगे हैं कि कांग्रेस एक और विभाजन की ओर बढ़ रही है। क्योंकि वह दिशाहीन हो गई है और इसके चलते उसके कार्यकर्ता हताश हैं। अब देखना यह है कि पार्टी आलाकमान इस हताशा को कैसे रोक पाता है।
गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल सहित 23 नेताओं की पूर्णकालिक अध्यक्ष की मौजूदा पहल कांग्रेस में किसी नए विभाजन का संकेत तो नहीं? देखा जाए तो कांग्रेस नेताओं के पत्र में कोई आपत्तिजनक बात नहीं है। उसमें पार्टी के हित की ही बात कही गई है, लेकिन सोनिया, राहुल और प्रियंका गांधी को वह इसलिए चुभी, क्योंकि उसमें दो ऐसी मांगें हैं जो कांग्रेस-संस्कृति पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं। एक मांग कांग्रेस आलाकमान संस्कृति को खत्म कर पार्टी में संस्थागत नेतृत्व प्रक्रिया स्थापित करने से संबंधित है, जो कांग्रेस में नेहरू-गांधी वंश का एकाधिकार समाप्त करती। दूसरी मांग राष्ट्रीय से स्थानीय स्तर तक दल में आंतरिक लोकतंत्र की स्थापना से संबंधित है, जिसे समाप्त करने की शुरुआत इंदिरा गांधी ने 1969 में ही कर दी थी। इसके परिणामस्वरूप जून 1975 में जब उन्होंने देश में आपातकाल थोपा, तब कांग्रेसी नेताओं-हेमवती नंदन बहुगुणा, जगजीवन राम और युवा तुर्क नेता चंद्रशेखर, कृष्णकांत, मोहन धारिया आदि ने नेतृत्व का विरोध करने के बजाय उससे किनारा कर लिया। आज पार्टी के हित में नेतृत्व के खिलाफ बिगुल बजाने वाले कांग्रेसियों ने हिम्मत का काम किया है। यह काम उन्हें बहुत पहले करना चाहिए था। जनता तो समझने लगी थी कि कांग्रेस में ऐसी प्रजाति विलुप्त हो चुकी है।
नेतृत्व परिवर्तन की मांग के असहमति पत्र से उपजा कांग्रेस पार्टी का संकट फिलहाल टल गया है, वहीं कार्यसमिति द्वारा पारित प्रस्ताव ने अगले अध्यक्ष के चुनाव का रोडमैप दिया है। सोनिया गांधी भी 'भूल जाओ और माफ करो’ अपनाते हुए आगे बढ़ने का आव्हान कर चुकी हैं। हालांकि संसद के मानसून सत्र से पहले संसदीय पैनल में प्रमुख पदों की नियुक्ति में असंतुष्ट खेमे की अनदेखी हुई है। लोकसभा में पार्टी के सबसे विश्वसनीय चेहरों मनीष तिवारी और शशि थरूर को नजरअंदाज किया गया है। संसद में पार्टी की नई नियुक्ति में अधिकतर टीम राहुल से जुड़े बताए जा रहे हैं। हालांकि तभी से पार्टी के गांधी और गैर गांधी समर्थक धड़ों के रुख सख्त हो चले हैं। उत्तर प्रदेश की एक जिला समिति ने कथित तौर पर पत्र के हस्ताक्षरकर्ताओं में से एक जितिन प्रसाद के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है। इधर बागी खेमे के प्रमुख चेहरे कपिल सिब्बल ने पीछे हटते हुए ट्वीट किया कि दुर्भाग्य से उप्र में जितिन प्रसाद को खुलेआम निशाने पर लिया जा रहा है। कांग्रेस को भाजपा पर सर्जिकल स्ट्राइक करना चाहिए न कि अपनों पर ऊर्जा खर्च करनी चाहिए।
पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले एक प्रमुख नेता ने एक न्यूज चैनल को नाम उजागर न करने की शर्त पर कहा कि राहुल गांधी 2024 में 400 सीटों पर पार्टी का नेतृत्व करने की स्थिति में नहीं हैं। इधर, गुलाम नबी आजाद कह रहे हैं कि पार्टी ऐतिहासिक गिरावट पर है, यदि ऐसा ही चलता रहा तो अगले 50 वर्षों तक हम विपक्ष में ही बैठते रहेंगे। वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई संकेत करते हैं कि समर्थन के लिए बागी समूह शरद पवार और ममता बनर्जी से संपर्क कर सकता है।
कांग्रेस संगठन का सफर कई विभाजनों का गवाह रहा है। बंटवारे की सबसे पहली घटना 1923 में हुई, जब जवाहरलाल नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू ने गांधी के साथ मतभेदों के बाद स्वराज पार्टी का गठन किया था। फारवर्ड ब्लॉक का गठन सुभाष चंद्र बोस ने किया था, जिनका 1939 में अंग्रेजों को भगाने के लिए अपनाए जाने वाले तरीकों पर गांधी से मतभेद था। 1950 में आचार्य कृपलानी को हटाया गया, तो उन्होंने 1951 में किसान मजदूर प्रजा पार्टी बनाई थी। नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस की समाजवादी नीतियों के खिलाफ सी राजगोपालाचारी ने 1959 में स्वतंत्र पार्टी का गठन किया था।
विचारों के आधार पर विभाजित होती रही कांग्रेस नेहरू की मृत्यु के बाद गुटबाजी के चलते बंटी। 1969 में अध्यक्ष वीवी गिरि के चुनाव के बाद एक समूह ने इंदिरा के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करते हुए उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया। इंदिरा ने प्रतिद्वंद्वी संगठन की स्थापना की, जिसे कांग्रेस (आर) आर फॉर रिक्वायरमेंटिस्ट के रूप में जाना जाता है। जबकि दूसरे समूह वाली कांग्रेस को कांग्रेस (ओ)- ओ फॉर ऑर्गनाइजेशन के नाम से जाना जाने लगा। वर्ष 1997 में ममता बनर्जी ने अलग होकर तृणमूल कांग्रेस, तो 1999 के चुनावों से पहले मराठा दिग्गज शरद पवार ने सोनिया के विदेशी मूल मुद्दे के खिलाफ विद्रोह करते हुए पीए संगमा और तारिक अनवर के साथ मिलकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनाई। 2011 में जगनमोहन रेड्डी ने पिता की मृत्यु के बाद मुख्यमंत्री पद से वंचित होने के बाद पार्टी छोड़ दी। उन्होंने वाईएसआर कांग्रेस बनाई।
कांग्रेस के वोट शेयर में गिरावट तीन बड़े विभाजन के बाद से देखी गई है। इन विभाजन ने राज्यों में कांग्रेस को गंभीर नुकसान पहुंचाया है। ममता पश्चिम बंगाल में वास्तविक कांग्रेस के रूप में उभरी हैं। वह मुख्यमंत्री के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल में हैं। जगन ने आंध्र में कांग्रेस को कम कर दिया है। महाराष्ट्र में कांग्रेस को 15 वर्षों तक पवार के साथ गठबंधन में सत्ता में रहना पड़ा। दोनों पार्टियां राज्य में कांग्रेस के साथ जूनियर विकास के रूप में महाविकास आघाड़ी सरकार का हिस्सा हैं। इन तीन पार्टियों ने 2019 के लोकसभा चुनावों में 8.1 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया, जिसमें 49 सीटें जीतीं, जो कांग्रेस की 52 की तुलना में 3 सीटें कम हैं। यदि ये विभाजन नहीं हुए होते, तो कांग्रेस 110 सीटों की सम्मानजनक जीत हासिल कर लेती। साथ ही उसे आम चुनाव में 28 प्रतिशत वोट मिलते।
इससे इंकार नहीं कि कांग्रेस गांधी परिवार पर आश्रित है, लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं कि पार्टी को कामचलाऊ ढंग से चलाया जाए। राहुल के अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद से ऐसा ही किया जा रहा है। राहुल के इस्तीफा देने के बाद जब सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बनाया गया तब यह माना गया था कि कांग्रेस जल्द पूर्णकालिक अध्यक्ष का चयन करेगी और हो सकता है कि वह गांधी परिवार के बाहर का कोई सदस्य हो, लेकिन एक वर्ष बीत गया और कुछ भी नहीं हुआ। इससे यही संकेत मिला कि गांधी परिवार यथास्थिति कायम रखना चाह रहा है। इसकी पुष्टि राहुल की ओर से बिना कोई पद लिए पार्टी के फैसले लेते रहने से भी हुई है।
राहुल गांधी पार्टी को कोई दिशा नहीं दे पा रहे, इसकी पुष्टि ज्योतिरादित्य सिंधिया और अन्य नेताओं के कांग्रेस छोड़ने से तो हुई ही, राजस्थान कांग्रेस के संकट से भी हुई, जो जरूरत से ज्यादा लंबा खिंचा। हालांकि कांग्रेस के कई नेता राहुल को फिर से पार्टी अध्यक्ष बनाने की मांग कर रहे हैं, लेकिन इस मांग को वरिष्ठ नेता अपना समर्थन नहीं दे रहे हैं। दरअसल वे राहुल के नेतृत्व में पार्टी का भविष्य उज्ज्वल नहीं देख रहे हैं। राहुल की राजनीति का एकमात्र मकसद प्रधानमंत्री पर लांछन लगाना नजर आता है। उनके ट्वीट और बयान यदि कुछ कहते हैं तो यही कि उनकी राजनीति प्रधानमंत्री मोदी को नीचा दिखाने पर केंद्रित है। उनके इस रवैए से कांग्रेस का नुकसान ही हुआ है, क्योंकि राहुल के मुकाबले प्रधानमंत्री मोदी की साख कई गुना अधिक है।
राहुल ने न तो 2014 की पराजय से कोई सबक सीखा और न ही 2019 की हार से। कांग्रेस ने 2019 का लोकसभा चुनाव उनके ही नेतृत्व में लड़ा था। चुनावों के दौरान राहुल ने राफेल सौदे को तूल देकर प्रधानमंत्री पर खूब अमर्यादित हमले किए, लेकिन नतीजे में कांग्रेस को एक और करारी हार मिली। इस हार से शर्मिंदा होकर उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफा तो दे दिया, लेकिन उन तौर-तरीकों को नहीं छोड़ा जो उनकी छवि के साथ कांग्रेस पर भी भारी पड़ रहे हैं। उनकी अपरिपक्व राजनीति से कांग्रेस के तमाम नेता सहमत नहीं, लेकिन वह अपनी जिद पर अड़े हैं। शायद इसलिए कि उनकी चाटुकारिता करने वाले उन्हें इसके लिए शाबासी देते हैं कि वह मोदी पर हमला करके बिल्कुल सही कर रहे हैं।
कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में यह फैसला अवश्य लिया गया कि 6 महीने में पूर्णकालिक अध्यक्ष की खोज की जाएगी, लेकिन इसमें संदेह है कि यह वैसे हो सकेगा जैसे कांग्रेस के 23 नेता चाह रहे हैं। भले ही राहुल यह कह रहे हों कि वह अध्यक्ष नहीं बनना चाहते और प्रियंका गांधी भी कह चुकी हों कि अध्यक्ष परिवार से बाहर का बनना चाहिए, लेकिन एक गुट राहुल को ही अध्यक्ष बनाने की मांग कर रहा है। राहुल के अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद अंतरिम अध्यक्ष बनीं सोनिया गांधी ने जिस तरह पूर्णकालिक अध्यक्ष के चयन को लेकर कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई उससे यह नहीं लगता कि परिवार के बाहर का कोई नेता पार्टी अध्यक्ष बन सकता है।
सोनिया का पुत्र मोह
राहुल गांधी की पार्टी अध्यक्ष पद पर दोबारा ताजपोशी का रास्ता खुद सोनिया गांधी ने ही साफ कर दिया है। सोनिया ने बतौर अंतरिम अध्यक्ष पार्टी संगठन में बड़ा फेरबदल करते हुए राहुल की पसंदीदा टीम को मौका दिया है और महासचिव पद से बुजुर्ग नेताओं की छुट्टी कर दी है। कांग्रेस वर्किंग कमेटी का नए सिरे से गठन किया गया है। नया अध्यक्ष चुनने में सोनिया की मदद के लिए 6 नेताओं की नई कमेटी बनाई गई है। हालांकि, गुलाम नबी आजाद, अंबिका सोनी, मल्लिकार्जुन खड़गे को नई सीडब्ल्यूसी में बरकरार रखा गया है। दिग्विजय सिंह को सीडब्ल्यूसी में परमानेंट इनवाइटी में शामिल किया गया है। गुलाम नबी आजाद, मोतीलाल वोरा, अंबिका सोनी, मल्लिकार्जुन खड़गे और लुइजिन्हो फैलेरियो को महासचिव पद से हटा दिया गया है। इनमें से गुलाम नबी उन 23 नेताओं में शामिल थे, जिन्होंने सोनिया गांधी को 7 अगस्त को तब चिट्ठी लिखी थी, जब वे अस्पताल में भर्ती थीं। इस चिट्ठी में इन नेताओं ने पार्टी में ऐसी 'फुल टाइम लीडरशिप’ की मांग की थी, जो 'फील्ड में एक्टिव रहे और उसका असर भी दिखे’। गुलाम नबी आजाद को सबसे बड़ा झटका लगा है, क्योंकि वे राज्यसभा में अभी विपक्ष के नेता भी हैं।
कांग्रेस में कई विसंगितयां भी घर कर गई
गत 73 वर्षों में कांग्रेस न केवल कमजोर हुई है, बल्कि उसमें कई विसंगितयां भी घर कर गई हैं। यही डर गांधीजी को था। तभी उन्होंने सुझाव दिया था कि कांग्रेस को भंग कर उसकी जगह लोकसेवक संघ बनाया जाए, जिससे लोकतांत्रिक स्पर्धा के लिए नई-नई पार्टियों को बराबर की जमीन मिले और कांग्रेस को कोई शुरुआती लाभ न मिल सके। इसी लाभ ने कांग्रेस को क्षति पहुंचाई, क्योंकि उसे भ्रम हो गया कि वह अपराजेय है, जिससे उसका संगठनात्मक, वैचारिक और नेतृत्वमूलक क्षरण होता गया। कांग्रेसियों को पार्टी और लोकतंत्र के हित में कांग्रेस में नवचेतना के अंकुरण के इस ऐतिहासिक क्षण को गंवाना नहीं चाहिए। सोनिया गांधी की राजनीतिक यात्रा को दो कालखंडों में बांटा जा सकता है। पहला 1998 से 2004 तक और दूसरा मई, 2004 से अभी तक का। उनके नेतृत्व में पार्टी दो चुनाव 1998 और 1999 में हारी और दो 2004 और 2009 में जीती। पिछले दो लोकसभा चुनावों की हार राहुल गांधी के खाते में जाती है। आप चाहें तो इसे परिवार की सामूहिक जिम्मेदारी मान लें, तो छह में से सिर्फ दो लोकसभा चुनावों में जीत, वह भी स्पष्ट बहुमत के आंकड़े से बहुत दूर। छह में दो यानी 33 फीसदी। आजकल तो इतने नंबर पर पास भी नहीं होते। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को हिंदू विरोधी और भ्रष्टाचार का पर्याय बनाने के लिए भी सोनिया को याद किया जाएगा। अब सोनिया गांधी की राजनीतिक विदाई का समय आ गया है। उन्हेंं चाहिए कि वह अध्यक्ष पद ही नहीं, बेटे को हर हाल में अध्यक्षी सौंपने की जिद भी छोड़ें। आगे का फैसला पार्टी और राहुल गांधी पर छोड़े दें।
- दिल्ली से रेणु आगाल