अच्छे दिन का वादा करके सत्ता में आए नरेंद्र मोदी जनता को अच्छे दिन तो नहीं दे पाए, साथ ही उन्होंने संसद में भी किए गए वादे पूरे नहीं किए हैं। आलम यह है कि सरकार के अधूरे आश्वासनों ने रिकार्ड बना लिया है। नियमों के मुताबिक आश्वासन देने के तीन महीने के अंदर उसे पूरा करना होता है। अगर सरकार ऐसा करने में नाकाम रहती है तो आश्वासन समिति से उसे खारिज करने का आग्रह करती है। यह समिति के ऊपर होता है कि वह सरकार के इस अनुरोध को माने या नहीं माने।
संसद से जुड़े आंकड़ों का विश्लेषण दिखाता है कि 15वीं और 16वीं लोकसभा के बीच सरकार के अधूरे आश्वासनों की तादाद चार गुना हो गई। इनमें नोटबंदी के असर से लेकर पुलिस हिरासत में होने वाली मौतें और पत्रकारों पर हुए हमलों की जानकारी देने जैसे विषयों से जुड़े आश्वासन शामिल हैं।
16वीं लोकसभा के अंत तक (यानि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार का पहला कार्यकाल खत्म होने तक) मोदी सरकार द्वारा दिए गए 1,540 आश्वासन ऐसे थे जो पूरे नहीं हुए। इसके मुकाबले 15वीं लोकसभा के आखिर तक 385 आश्वासन अधूरे रहे थे। इस दौरान केंद्र की सत्ता में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार थी।
2018-19 में, पिछले लोकसभा चुनाव तक केंद्र सरकार ने जो आश्वासन संसद को दिए थे उनमें से करीब 76 फीसदी ऐसे थे जो अधूरे ही रहे। सरकार के आश्वासनों का मतलब है वे वादे जो संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) में सांसदों के सामने किए जाते हैं। ये किसी सवाल के जवाब में या किसी बहस के बीच या सांसद द्वारा उठाए गए मामलों के बीच दिए गए आश्वासन भी हो सकते हैं। इन्हें ठीक तरीके से और समय पर पूरा करना यह बताता है कि कोई सरकार कितनी जिम्मेदार है और इस मामले में बरती गई लापरवाही को गंभीरता से लिया जाता है। ये आश्वासन बहुत अहम होते हैं क्योंकि जनता के नुमांइदों के तौर पर सांसदों को केंद्र सरकार की जवाबदेही तय करनी होती हैं और अपने संसदीय क्षेत्र के लोगों की समस्याओं के समाधान की मांग भी करनी होती है।
अब लोकसभा में मोदी सरकार द्वारा दिए गए उन कुछ आश्वासनों को देखते हैं जो अभी तक पूरे नहीं किए गए हैं। फरवरी में सरकार से पूछा गया कि दिसंबर 2018 में मेघालय के पूर्वी जयंतिया हिल्स के कोयला खदान में फंसे 15 मजदूरों के शव बाहर निकालने के बारे में क्या जानकारियां मौजूद हैं। सरकार का जवाब आया कि 'राज्य सरकार से इस बारे में जानकारियां मांगी जा रही हैं’ लेकिन अभी तक इस बारे में कोई भी जानकारी सार्वजनिक नहीं की गई है।
नवंबर 2016 में सरकार से पुलिस हिरासत में यातना और मौत पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में दर्ज शिकायतों के बारे में पूछा गया कि क्या ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए कोई दिशा-निर्देश तैयार किए गए हैं? सरकार का जवाब था कि इस बारे में जानकारियां जुटाई जा रही हैं, लेकिन यह आश्वासन भी अधर में लटका है। अप्रैल 2018 में इसी संबंध में सरकार से विचाराधीन कैदियों को छोड़ने और 2018 की लॉ कमीशन की रिपोर्ट (रॉन्गफुल प्रोसिक्यूशन (मिसकैरिज ऑफ जस्टिस): लीगल रेमेडीज) को लागू करने के बारे में पूछा गया। सरकार का जवाब था कि जानकारियां जुटाई जा रही हैं। लेकिन अभी तक इस संबंध में कोई जानकारी नहीं दी गई है। गृह मंत्रालय के एक अधिकारी के मुताबिक, 'व्यापक विमर्श की जरूरत की वजह से आयोगों की रिपोर्ट में सामान्य से ज्यादा वक्त लगता है, इसमें कई तरह के लोगों को शामिल करना होता है।’
मोदी सरकार ने संसद की आश्वासन समिति से आग्रह किया था कि 16वीं लोकसभा में उसके द्वारा दिए गए 485 आश्वासन रद्द कर दिए जाएं। समिति ने इनमें से करीब 57 फीसदी यानी 275 आश्वासन खारिज कर दिए। सरकार ने इसके लिए कई तरह के कारण बताए थे। इनमें से एक यह भी था कि उसने ऐसा कोई आश्वासन दिया ही नहीं था। संसद में प्रश्न काल, शून्य काल, चर्चा, संकल्प, प्रस्ताव या ऐसे किसी भी मौके पर आश्वासन देते समय सरकार के मंत्री खास तरह की अभिव्यक्ति का इस्तेमाल करते हैं - जैसे कि 'मामला अभी विचाराधीन है’, 'मैं इस मामले की पड़ताल करूंगा’, 'मैं इस पर विचार करूंगा’, 'इस मामले में जानकारी एकत्रित की जा रही है और उसे सदन के पटल पर रखा जाएगा’ और 'माननीय सदस्यों को इससे अवगत कराया जाएगा’। 16वीं लोकसभा में दिए गए आश्वासनों में से एक चौथाई से ज्यादा (28.6 फीसदी) अभी भी पूरे नहीं हुए हैं। जबकि 2009-2014 में छह फीसदी आश्वासन ही अधूरे रहे थे। कुल मिलाकर, पहली मोदी सरकार ने संसद से 5,383 वादे किए थे जिनमें से 1,540 विचाराधीन हैं। दिल्ली में संसदीय प्रणाली पर रिसर्च करने वाले थिंक टैंक, पीआरएस लेगिस्लेटिव रिसर्च, की उपसंचालक प्राची मिश्रा के मुताबिक 'सदन के पटल पर दिए गए आश्वासनों पर नजर रखना संसदीय कार्यवाही और जवाबदेही के तंत्र का हिस्सा होता है। सरकार के पास इन्हें पूरा करने के लिए तीन महीने होते हैं। सरकार के आग्रह पर आश्वासनों की समीक्षा कर संसदीय समिति इस समयसीमा को बढ़ा सकती है।’ जैसे-जैसे 16वीं लोकसभा का समय बीतता गया मोदी सरकार के आश्वासनों को पूरा करने की दर कम होती चली गई। 2014 के जुलाई-अगस्त में जो दर 84 फीसदी थी वह 2019 के जनवरी-फरवरी के सत्र तक 10 फीसदी ही रह गई, वहीं विचाराधीन आश्वासनों की तादाद इस दौरान 11 फीसदी से बढ़कर 89 फीसदी हो गई।
मोदी सरकार के पहले साल (2014-15) में लोकसभा के अंदर 1,176 आश्वासन दिए गए थे, जिसमें से 81 प्रतिशत यानी 1451 पूरे कर लिए गए। इनमें से 13 फीसदी या 236 आज भी विचाराधीन हैं। 2019 के आम चुनाव से पहले (मोदी सरकार 1.0 के आखिरी साल में) सरकार ने लोकसभा के तीन सत्र में 582 आश्वासन दिए, जिनमें से 443 (यानि 76 प्रतिशत) अभी भी विचाराधीन हैं।
16वीं लोकसभा में, 2014 से 2018 तक, संसद की आश्वासन समिति ने सरकार के उन 56.7 प्रतिशत आवेदनों को खारिज कर दिया जिनमें उससे आश्वासनों को रद्द करने की गुजारिश की गई थी। ऐसे ही 2018 में ऐसे तीन-चौथाई निवेदन (76 फीसदी) ठुकरा दिए गए, जो कि पांच सालों का सबसे बड़ा आंकड़ा था। 'सरकार के आश्वासनों पर रिपोर्ट को संसद में पेश तो किया जाता है लेकिन इस पर वहां कोई चर्चा नहीं होती।’ प्राची मिश्रा कहती हैं, 'ये रिपोर्ट्स सर्वसम्मति से तैयार मानी जाती हैं, और इन पर न तो समिति के सदस्य कोई चर्चा करते हैं और न ही इनके साथ कोई डिसेंट नोट ही होता है।’
केंद्र सरकार ने आश्वासनों को रद्द करने के लिए संसदीय समिति के सामने जो तर्क रखे थे उनमें से कइयों को लेकर उसकी खूब खिंचाई भी हुई। जुलाई 2014 में ट्रांसजेंडर समुदाय के सशक्तिकरण के लिए राष्ट्रीय नीति बनाने के सवाल पर, सरकार ने लोकसभा में भरोसा दिया था कि इस मामले को देखने के लिए विशेषज्ञों की एक समिति बना दी गई है। लेकिन समाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय का समिति के सामने कहना था कि लोकसभा में कोई बयान दे देना आश्वासन नहीं माना जा सकता। संसदीय समिति ने इस तर्क को खारिज करते हुए साफ किया कि सरकार के बयान को आश्वासन ही माना जाएगा। और किस बयान को आश्वासन माना जाए किसको नहीं इस मसले पर सरकार का कोई मंत्रालय समिति की समझ पर सवाल नहीं उठा सकता।
मई 2016 में सरकार ने एक और आश्वासन रद्द करने का आग्रह किया। सरकार ने 'जमीन के बदले नौकरी’ घोटाले पर जानकारी देने का भरोसा दिया था, आरोप था कि रांची और आसपास के इलाकों में जमीन अधिग्रहण के बदले सेंट्रल कोलफील्ड्स लिमिटेड में नौकरी का लालच दिया जा रहा है। कोयला मंत्रालय ने सीबीआई की लंबी जांच प्रक्रिया का हवाला देते हुए संसदीय समिति से इस आश्वासन को खारिज करने की गुजारिश की। लेकिन समिति इसके लिए तैयार नहीं हुई। सरकार को जवाब मिला, 'समिति के सदस्यों का मानना है कि किसी आश्वासन को ऐसी वजहों के चलते खारिज नहीं किया जा सकता।’
नोटबंदी पर आश्वासन
फरवरी 2019 में वित्त मंत्रालय से पूछा गया- 'क्या सरकार ने औद्योगिक उत्पादन और जीडीपी पर नोटबंदी और जीएसटी के असर की कोई स्टडी कराई है?’ मालूम हो कि 8 नवंबर 2016 को नोटबंदी लागू होने के बाद मूल्य के हिसाब से भारत की 86 फीसदी करेंसी बेकार हो गई। सरकार का जवाब था ना तो नोटबंदी और जीएसटी और ना ही अर्थव्यवस्था पर इसके प्रभाव की कोई स्टडी कराई गई है। हालांकि सरकार ने यह आश्वासन जरूर दिया कि इस संबंध में जानकारी जुटाने की प्रक्रिया जारी है। अब तक इस बारे में भी कोई जानकारी जारी नहीं की गई है। जनवरी में सरकार से नोटबंदी के बाद खुद से जमा किए गए काले धन की रकम के बारे में पूछा गया। जवाब था इस बारे में जानकारी जुटाई जा रही है, यह आश्वासन भी अब तक विचाराधीन है।
पत्रकारों पर हमले की जानकारी
सूचना और प्रसारण मंत्रालय से दिसंबर 2018 में पूछा गया कि क्या सरकार को पता है कि विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत की रैंकिंग गिर गई है और क्या भारतीय पत्रकारों पर हमलों से जुड़ी कोई जानकारी सरकार के पास मौजूद है। अब तक इस बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई है। सरकार के मुताबिक नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो पत्रकारों पर हमले की कोई अलग से जानकारी नहीं रखती। हालांकि गृह राज्य मंत्री हंसराज अहीर ने दिसंबर 2018 में लोकसभा में जवाब देते हुए कहा कि 2014 से 2016 के बीच पत्रकारों पर 189 हमले हुए।
- इन्द्र कुमार