07-Jan-2021 12:00 AM
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वर्ष 2020 हताशा-निराशा, टूटन, विरोध प्रदर्शनों का ऐसा गवाह रहा है, जो शायद ही कभी और इस दौर में भी शायद ही कहीं देखने को मिला। कोविड-19 महामारी के बड़े सबक में यह भी रहा है कि दुनिया में जिसने इसकी कम परवाह की, उसे उतना ही झेलना पड़ा। भारत में कोरोना ने सिर्फ मौतें ही नहीं दी हैं, बेरोजगारी, आर्थिक संकट के साथ सामाजिक व मानसिक विकारों में भी वृद्धि की है। यानी पूरा वर्ष चुनौतीपूर्ण रहा। अब आशा की जा रही है कि वर्ष 2021 में इन चुनौतियों का चक्रव्यूह टूटेगा।
वर्ष 2020 बीत रहा है। वर्ष 2021 के स्वागत की तैयारियां हो रही हैं। इस बार वर्ष बीतते-बीतते गिरिधर कविराय की ये पंक्तियां हर मन पर छाई हैं- बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ। जो बनि आवै सहज में, ताही में चित देई। वर्ष 2020 का स्वागत करते समय हम इक्कीसवीं शताब्दी के पांचवें हिस्से की समाप्ति के साथ नवोन्मेष की उम्मीदों से भरे हुए थे। तीन माह बीतते-बीतते कोरोना के रूप में 2020 ने अंतर्राष्ट्रीय तनाव भरी सौगात दी। उसके पश्चात् तो वर्ष पर्यंत संकट के नवोन्मेष होते रहे। घरों में कैद होने से लेकर आए दिन मौतों ने हर किसी को हिलाकर रख दिया। इन स्थितियों में अब 2021 से चुनौती भरी उम्मीदें लगाई जा रही हैं। बीती हुई कड़वी यादों को भुलाकर 2021 में कुछ अच्छा सुनने की उम्मीद के साथ नए वर्ष की अगवानी की जा रही है। कोरोना वैक्सीन की संभावित खोज पूरी होने से पूरी दुनिया को उम्मीद जगी है कि वर्ष 2021 में 2020 वाली चुनौतियां नहीं रहेंगी।
इतिहास के पन्नों में ऐसे वर्ष ढूंढे शायद ही मिलें, जब किसी एक ही वजह से पूरी या कम से कम दो-तिहाई दुनिया त्राहिमाम कर उठी हो। महामारियों के इतिहास में भी ऐसा वक्त शायद ही उतर आया हो, जब एक ही महामारी ने लगभग सभी महादेशों में कुछेक महीनों के अंतराल में ही ऐसा तांडव मचाया कि न सिर्फ विकास, उन्नति और वैज्ञानिक शोध-परख, बल्कि प्रकृति पर विजय के ऊंचे-ऊंचे दावों की पोल खोल दी हो। वर्ष के शुरू होते ही कोविड-19 के संक्रमण की आंधी में जिंदगियां, रोजगार, अर्थव्यवस्था सबकुछ ध्वस्त होने लगा तो लोगों और सरकारों के होश फाख्ता हो गए। वर्ष खत्म होने तक भी उसका आतंक जारी है लेकिन उतनी ही तेजी से वैक्सीन का ईजाद कर दुनिया ने अपने लिए उम्मीद भी बंधाई है। यह अलग बात है कि कोरोनावायरस ने म्युटेट होकर फिर इम्तिहान की शर्तें कड़ी कर दी हैं। लेकिन उम्मीद यही करनी चाहिए कि इन शर्तों पर भी दुनिया खरी उतरेगी।
सरकार की निष्क्रियता
अलबत्ता, अपने देश में सिर्फ महामारी की तबाही, देश के स्वास्थ्य ढांचे और उस पर काबू पाने के तरीके ने और ज्यादा कहर बरपाया। मार्च के मध्य तक सरकार मानने को ही तैयार नहीं थी कि कोई खतरा है। सत्तारूढ़ पार्टी अमेरिकी राष्ट्रपति की अगवानी में नमस्ते ट्रंप जैसे आयोजन और मप्र की कांग्रेस सरकार में टूट करवाने में ही व्यस्त रही। जब पानी सिर से ऊपर उठने लगा तो अचानक बेहद सख्त देशव्यापी लॉकडाउन का ऐलान करके सबकुछ ठप कर दिया गया। नतीजतन, रोजगार के अभाव में शहरों से ऐसा पलायन हुआ, जो आज तक दुनिया में कहीं नहीं देखा गया। आवागमन के सारे साधन बंद होने से लोग पैदल सैकड़ों, हजारों किमी चलने को मजबूर हुए। उन्हें जगह-जगह पुलिसिया लाठी, बैरीकेड्स, यहां तक कि सड़कों पर खोदे गए गड्ढों का सामना करना पड़ा। यहीं नहीं, पहले ही सात तिमाहियों से ढहती अर्थव्यवस्था ठप हो गई, जिसकी वृद्घि दर 24 अंकों तक शून्य से नीचे चली गई, जो दुनिया में और कहीं नहीं देखा गया। बेरोजगारी दर 45 वर्षों में सबसे अधिक हो गई। करोड़ों लोगों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा।
विरोध प्रदर्शनों का वर्ष
यही नहीं, यह वर्ष विरोध प्रदर्शनों, केंद्र-राज्य टकराहटों, राज्यों के अधिकार क्षेत्र में केंद्र के हस्तक्षेप, संस्थाओं की बदहाली की भी ऐसी मिसाल दे गया है, जो देश की आगे की सियासत की दिशा तय करेगा। वर्ष शुरू हुआ नागरिकता संशोधन कानून, 2019 के देशव्यापी विरोध से, जिसकी अनूठी मिसाल दिल्ली के शाहीनबाग का धरना बना, और खत्म हुआ 2020 के तीन नए कृषि कानूनों के किसान विरोध से। किसान महीनेभर से ज्यादा कड़ाके की ठंड में दिल्ली को लगभग चारों दिशाओं से घेरे बैठे हैं। ऐसा नजारा इतिहास में 19वीं सदी के प्रारंभ में शायद बनारस में दर्ज है जब वहां निगम कर के खिलाफ लाखों लोग अंग्रेज रेजिडेंट के दफ्तर-घर को घेरकर बैठ गए थे और अंतत: सरकार को निगम कर वापस लेना पड़ा था। तब भी लोगों को वहीं खाना बनाते, गाते-बजाते देखकर अंग्रेज हतप्रभ थे। लेकिन इस बार क्या होता है, यह तो अब अगले वर्ष ही दिखेगा। हालांकि सरकार ने आपदा को अवसर में बदलने का आव्हान किया है। देखना है अवसर कैसा मंजर लेकर आता है।
2020 में कोरोना महामारी के अलावा ऐसी कई घटनाएं हुईं, जो हमेशा याद रहेंगी। फरवरी 2020 में आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में दोबारा दो-तिहाई से अधिक सीटें जीतकर रिकॉर्ड बनाया। फरवरी के आखिरी हफ्ते में अमेरिकी राष्ट्रपति के अनौपचारिक दौरे के लिए अहमदाबाद में आयोजन किया गया। मार्च में ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ 22 विधायकों के भाजपा में शामिल होने से मप्र में कांग्रेस की कमलनाथ सरकार गिरी और शिवराज सिंह चौहान फिर मुख्यमंत्री बने। दिल्ली में सीएए विरोधी धरने को लेकर फरवरी के आखिरी हफ्ते में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में दंगे में कई जिंदगियां स्वाहा हो गईं। 24 मार्च को रात 8 बजे महज चार घंटे के नोटिस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरे देश में बंदी का ऐलान किया। उन्होंने कहा, महाभारत 18 दिन चला, यह लड़ाई 22 दिन में जीती जाएगी। मुस्लिम संगठन के मजहबी आयोजन को कोरोनावायरस की आमद का दोषी बताया जाता रहा लेकिन बांबे हाइकोर्ट ने उसे बेबुनियाद बताया। लॉकडाउन के ऐलान के बाद शहरों और औद्योगिक केंद्रों से पैदल सैकड़ों किमी की पैदल यात्रा करने पर मजबूर लोग, यह नजारा इतिहास में कम ढूंढे मिलेगा। कानपुर के डॉन विकास दुबे ने अपने गांव में सात पुलिसवालों को मार गिराया तो पुलिस ने उसके कथित समर्पण के बाद विवादास्पद एनकाउंटर में मार गिराया। बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की 14 जून को खुदकशी की घटना महीनों टीवी की सुर्खियां और केंद्र-राज्य टकराहट का कारण बनी रही। उनकी गर्लफे्रंड रिया चक्रवर्ती को खलनायिका बनाने की तरह-तरह से कोशिशें हुई लेकिन अंतत: कुछ नहीं मिला। वहीं उप्र के हाथरस के एक गांव में दलित बच्ची के साथ गैंगरेप और हत्या की घटना भी सुर्खियों और कई मोड़ से गुजरी। राजस्थान में कुछ हफ्ते चले कांग्रेस के सचिन पायलट की मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से नाराजगी आखिर दूर हुई, आरोप था कि भाजपा हवा दे रही थी लेकिन पर्याप्त विधायक नहीं जुट पाए। आखिर लंबे अरसे बाद राम मंदिर प्रकरण का पटाक्षेप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भूमिपूजन के साथ हुआ। नवंबर में बिहार के विधानसभा नतीजे भले एनडीए को जीत दिला गए मगर बिहार में बहुत कुछ बदल गया है। तेजस्वी बेरोजगारी को मुद्दा बनाकर नए नेता की तरह उभरे, तो भाजपा नीतीश का बड़ा भाई बनकर। भारत में तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली में चारों कोने पर लगभग महीनेभर से किसान डटे हुए हैं। अमेरिका में आखिर डेमोक्रेटिक पार्टी के जो बाइडन के राष्ट्रपति पद पर मुहर लगी पर ट्रंप बगावती मूड में नजर आए।
चुनौतियों की भरमार
नववर्ष 2021 पर चुनौतियों का बड़ा बोझ रहेगा। 2020 में जनता ने जिन चुनौतियों का सामना किया है, 2021 को उन चुनौतियों से भी निपटना होगा। इन सबसे अलग देश के सामने 2021 के लिए सबसे बड़ी चुनौती कोरोना ही बना हुआ है। अभी कोरोना के पहले संस्करण के स्थायी इलाज के लिए टीका बाजार में आ नहीं पाया है कि कोरोना का दूसरा संस्करण दस्तक दे रहा है। जिस तरह इंग्लैंड के बाद भारत में भी कोरोना के नए स्ट्रेन से पीड़ित मरीज मिलने लगे हैं, उसके बाद यह चुनौती कम होने के स्थान पर बढ़ती ही नजर आ रही है। भारत में कोरोना ने सिर्फ मौतें ही नहीं दी हैं, बेरोजगारी, आर्थिक संकट के साथ सामाजिक व मानसिक विकारों में भी वृद्धि की है। विद्यार्थी महीनों से अपने स्कूल-कॉलेज का मुंह नहीं देख पाए हैं। ऑनलाइन पढ़ाई के नाम पर पढ़ाई-लिखाई की बातें तो हो रही हैं किंतु वह पढ़ाई पूरी तरह प्रभावी हो यह नहीं कहा जा सकता। जिस तरह कोरोना के तीव्र प्रवाह में नौकरियां बही हैं, पहले से ही सुस्त अर्थव्यवस्था में इस संकट ने और पलीता लगाया है। आर्थिक संकट और किसान आंदोलन जैसी सौगातों के साथ 2021 में प्रवेश करते भारत की सबसे बड़ी चुनौती कोरोना संकट का समाधान है।
कोरोना के पहले ही स्ट्रेन में हमने देख लिया था कि हम कोरोना जैसी बीमारी के लिए बिल्कुल तैयार नहीं हैं। कोरोना के कारण कोरोना से इतर बीमारियों का इलाज भी जिस तरह थम सा गया था, वह चिंता का विषय है। कोरोना के गंभीर मरीजों को सघन चिकित्सा उपलब्ध कराना दुष्कर हो रहा था और अस्पतालों में कोरोना के इलाज के चलते अन्य बीमारियों के मरीज लाइलाज रह जा रहे थे। इस कारण भी भारी संख्या में मौतें हुईं और कई जगह तो इनका संज्ञान भी नहीं लिया गया। ऐसे में 2021 का स्वागत करते हुए हमें इन चुनौतियों से निपटने और तदानुरूप रणनीति बनाने की जरूरत है। जनता को भी इसके लिए तैयार रहना होगा। सिर्फ सरकार के भरोसे रहने से तो काम नहीं चलेगा।
वैक्सीनेशन बड़ी चुनौती
कोरोना महामारी के साये में बीते इस वर्ष को शायद ही कोई याद रखना चाहेगा। उम्मीद की जा रही है कि नए साल में जल्द ही हमें इससे बचाव के लिए वैक्सीन उपलब्ध होगी। स्वयं प्रधानमंत्री ने भी कहा है कि विज्ञानियों की हरी झंडी मिलते ही टीकाकरण का अभियान शुरू किया जाएगा। इस दौरान कई देशों की वैक्सीन चर्चा में है। लेकिन दुनिया की नजर सस्ती व सुरक्षित वैक्सीन पर है। इसलिए दुनिया की निगाहें भारत पर है। एक साल के भीतर ही कोरोना की वैक्सीन बनाकर भारत दुनिया के विकसित देशों की कतार में शामिल हो गया है।
वैक्सीन तैयार करने वाले संस्थान को प्रधानमंत्री केयर फंड से सीधे सहायता धनराशि उपलब्ध कराई गई। यदि यह काम परंपरागत प्रक्रिया से होता तो रकम जारी होने में ही लंबा समय लग जाता। इसका अर्थ है कि नेतृत्व में यदि दूरदर्शिता हो तो हमारे विज्ञानी भी वह सब कर सकते हैं जो अब तक विकसित देशों में ही हो सकता था। परमाणु अंतरिक्ष और रक्षा क्षेत्र में हमारी अपनी उपलब्धियां हैं। लेकिन यह सबसे बड़ी विडंबना है कि हमारा उपभोक्ता बाजार विदेशी कंपनियों के माल से भरा पड़ा है। पर जिस किसी भी क्षेत्र में लक्ष्य तय किए गए और हमारे विज्ञानियों को चुनौतियां मिलीं, वहां उन्होंने सफलता प्राप्त की है। दरअसल भारत एक सुप्त महाशक्ति है। यदि वह जाग जाए तो विश्व अर्थव्यवस्था को व्यापक रूप से प्रभावित कर सकता है। इतिहास इसका गवाह है कि भारत दुनिया के सभ्य व संपन्न देशों में से एक था। सिंधु घाटी सभ्यता तथा मोहनजोदड़ो व हड़प्पा के अवशेष इस बात का प्रमाण हैं कि पुरातनकाल में ही भारत मिट्टी के बरतन बनाने की कला, औजार, आभूषण, मानव-निर्मित वस्तुओं तथा मिश्रित धातु की मूॢतयों के निर्माण का कौशल विकसित कर चुका था। बढ़ती जनसंख्या, अकाल तथा गरीबी के साथ कभी एक संपन्न देश रहा भारत आक्रमणकारी विदेशी शासकों द्वारा दमन तथा दरिद्रता का शिकार बना दिया गया। वर्ष 1857 में आजादी के पहले स्वप्न ने परिवर्तन की प्रक्रिया को उकसा दिया। बाद में स्वतंत्रता आंदोलन ने राजनीति, जनजीवन, संगीत, कविता, साहित्य तथा विज्ञान में बेहतरीन नेताओं को उभारा। यह आंदोलन मन तथा उद्देश्य की एकता के साथ देशभक्ति और समर्पण द्वारा प्रेरित था।
रोजगार बड़ी जरूरत
कोरोना के कारण किए गए लॉकडाउन ने करोड़ों लोगों को बेरोजगार बना दिया है। ऐसे में देश में रोजगार की बड़ी जरूरत है। आज भारत के पास विशाल पैमाने पर कुशल और दक्ष मानव संसाधन है। सरकार द्वारा आरंभ पंचवर्षीय योजनाओं तथा मिशन मोड कार्यक्रमों के कारण मानव संसाधन का बड़े पैमाने पर विकास हुआ, लेकिन हमारे देश में बहुत से लोग सोचते हैं कि सबकुछ सरकार ही करेगी। हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है। दुनिया की कोई भी सरकार सबको रोजगार नहीं दे सकती है। अपने देश में आजादी है, लेकिन जिम्मेदारी की भावना नहीं है। हर जगह हम मनमाने ढंग से व्यवहार करते हैं। चाहे सड़क पर वाहन चलाने की बात हो या कहीं भी कूड़ा-कचरा फेंकने की। इसमें परिवर्तन की आवश्यकता है। देश को मुख्यत: आर्थिक शक्ति से सशक्त बनाया जा सकता है। आर्थिक शक्ति प्रतिस्पर्धा से आएगी व प्रतिस्पर्धा ज्ञान से उत्पन्न होती है। ज्ञान को प्रौद्योगिकी से समृद्ध करना होता है और प्रौद्योगिकी को व्यवसाय से शक्ति प्राप्त होती है। व्यवसाय को नवीन प्रबंधन से शक्ति मिलती है और प्रबंधन नेतृत्व से प्रबल होता है। मस्तिष्क की नैतिक श्रेष्ठता नेता की सबसे बड़ी विशेषता है। संयोग से यह क्षमता भी आज देश के नेतृत्व में है। हमें इस अवसर को खोना नहीं चाहिए। हमारी संस्कृति और सभ्यता युगों से उन महान विचारकों द्वारा समृद्ध की जाती रही है, जिन्होंने हमेशा जीवन को मस्तिष्क, शरीर तथा बुद्धि के मेल के रूप से एक समन्वित रूप में देखा है। आने वाले दशकों में देश के युवा सभ्यतागत तथा आधुनिक प्रौद्योगिकीय धाराओं का एक संगम देखेंगे।
आज हमारे युवा वैज्ञानिक अनुसंधान, आविष्कार और नवीन प्रयोग में संलग्न होने की बेहतर स्थिति में हैं, क्योंकि ये उच्च प्रौद्योगिकी विकास के बड़े घटक हैं। इन कारकों के बीच एक भिन्नता स्थापित करना उपयोगी है। वैज्ञानिक अनुसंधान भौतिक विश्व की प्रकृति के ज्ञान की प्राप्ति से संबंधित है। आविष्कार किसी नए उत्पाद, प्रक्रिया या सेवा का निर्माण या किसी ऐसी चीज का निर्माण है जो अस्तित्व में नहीं है। भारत के युवाओं के पास विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी को माध्यम के रूप में इस्तेमाल करते हुए इस दशक के अंत तक विकसित भारत के लक्ष्य द्वारा देश के लिए योगदान करने का एक अनूठा अवसर है। युवाओं का अदम्य उत्साह, राष्ट्र-निर्माण की क्षमता और रचनात्मक नेतृत्व भारत को प्रतिस्पर्धात्मक लाभ व विश्व में सही स्थान दिला सकते हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था में अपने उत्पादों को बेचने की आक्रामक प्रवृत्ति का भारतीय उद्यमियों में अभाव है। हमें भारतीय उत्पादों को प्रोत्साहित करना चाहिए। हमें अपनी जैव-विविधता को पहचानना चाहिए और उन्हें पेटेंट करना चाहिए।
ज्ञान से संपन्न मस्तिष्क उत्पन्न करने के लिए शिक्षा महत्वपूर्ण है, ताकि वे नए विचार दे सके। दुर्भाग्यवश हमारी शिक्षा-प्रणाली ऐसा नहीं करती। उसमें एक प्रकार की सीखने की प्रक्रिया होनी चाहिए, न कि केवल पढ़ने की। पर यह संतोष की बात है कि मोदी सरकार इस दिशा में भी तेजी से काम कर रही है। भारत को विकसित देश बनाने के लिए देश के वैज्ञानिकों, इंजीनियरों, प्रौद्योगिकीविदों, तकनीशियनों तथा कृषकों व अन्य लोगों को अपनी जिम्मेदारी को निभाना चाहिए और प्रयासों को समन्वित करके विकास लक्ष्यों में मदद देनी चाहिए। हमारे देश के नीति निर्माताओं को विकास के लक्ष्यों को कार्यों में परिणत करने की प्रक्रिया में आवश्यक सहयोग करना चाहिए।
धार खोता दिशाहीन विपक्ष
सत्तापक्ष की तरह विपक्ष की भी एक प्रकृति होती है। दुख की बात है कि भारतीय राजनीति में पिछले पांच-छह वर्षों के दौरान विपक्ष की इस प्रकृति में विकृति पनपती दिख रही है जिसमें विरोध नीतियों के बजाय व्यक्ति केंद्रित हो गया है। इसमें देशहित के खिलाफ मुखरता को भी लोकतंत्र की लड़ाई का नाम देकर सही ठहराया जाने लगा है। यही कारण है कि 2014 से लगातार हाशिये पर खिसकते जा रहे विपक्ष ने अब अपनी पहचान भी खोनी शुरू कर दी है। देखा जाए तो एक सर्वमान्य और सक्षम नेतृत्व का अभाव आज विपक्ष का सबसे बड़ा संकट है। हालांकि कांग्रेस राहुल गांधी को सर्वमान्य नेता बनाने की असफल कोशिश करती रही है, लेकिन हर बार उसे निराशा ही मिली है। लिहाजा अब खुद पार्टी के ही कई नेताओं ने खुलकर कह दिया है कि या तो परिवारवाद जिंदा रह सकता है या फिर पार्टी, लेकिन कांग्रेस में अभी भी परिवार का झंडा उठाने वालों की संख्या ही अधिक है।
राहुल गांधी की अनियमितता और अहम मौकों पर छुट्टी पर जाने की उनकी आदत ने विपक्ष के दूसरे दलों को भी असहज करना शुरू कर दिया है। बिहार विधानसभा चुनाव में मतों की गिनती के बीच उनका छुट्टी पर जाना राजद को रास नहीं आया था। यहां तक कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी उनकी योग्यता पर संदेह जता दिया। एक तरह से कांग्रेस में नेतृत्व का संकट विपक्ष का नेतृत्व संकट भी बन गया है। निकट भविष्य में इस संकट का समाधान भी होता नहीं दिख रहा।
आगे की चिंता
विश्व बैंक ने साल के पूर्वार्द्ध में ही चेतावनी दे दी कि इस साल पूरी दुनिया की जीडीपी में कम से कम 5.2 प्रतिशत की गिरावट आने का खतरा है। वित्त वर्ष की पहली तिमाही में भारत की जीडीपी में 24.9 फीसदी की गिरावट दर्ज भी हो चुकी थी। ये झटके आने अभी बंद नहीं हुए हैं। मार्च-अप्रैल की तेज गिरावट के बाद से अर्थव्यवस्था के सभी हिस्सों में कुछ-कुछ सुधार के संकेत दिख रहे हैं। थोड़ी खुशखबरी भी आती है, लेकिन फिर बड़ी आशंका दिखने लगती है। अभी अक्टूबर तक हाल सुधर रहा था, लेकिन नवंबर ने फिर हाल बिगाड़ दिया। सीएमआईई के कंज्यूमर सर्वे में दिखता है कि नवंबर में रोजगार के आंकड़े में लगभग 0.9 प्रतिशत की गिरावट आई और भारत में सिर्फ 4.3 फीसदी लोग ऐसे थे, जिनकी आमदनी पिछले साल के इसी महीने के मुकाबले बढ़ी है। इस साल की शुरुआत में सबसे बड़ी चिंता थी, आर्थिक तरक्की की रफ्तार। और सबसे बड़ा सवाल था कि क्या सरकार ग्रोथ को वापस पटरी पर लाने के लिए कुछ कर पाएगी? अब यह सवाल और बड़ा हो चुका है और चिंता भी। ऐसे में, दस साल पहले लौटकर देखना बुरा नहीं रहेगा। ठीक दस साल पहले प्रणब मुखर्जी भारत के वित्त मंत्री थे और 2011-12 के बजट में उन्होंने यह उम्मीद जताई थी कि अगले साल देश की जीडीपी 9 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ेगी। वह साल इसलिए भी याद रखना चाहिए कि उस वक्त भी अर्थव्यवस्था एक बड़े संकट से बाहर निकली ही थी। यह था 2008 का विश्वव्यापी आर्थिक संकट। रिजर्व बैंक के कड़े नियमों और गवर्नर वाईवी रेड्डी के अनुशासित रवैये की वजह से भारत इस संकट का सीधा शिकार तो नहीं हुआ, लेकिन बाकी दुनिया का इतना असर जरूर आया कि देश के व्यापारियों को तरह-तरह के सहारे की जरूरत पड़ गई।
2020 विरोध-प्रदर्शन और विसंगतियों के नाम रहा
यदि किसी साल का सिंहावलोकन करें तो उसका संबंध किसी एक घटनाक्रम तक सीमित नहीं रह सकता, भले ही वह घटना कितनी ही महत्वपूर्ण क्यों न रही हो? इस कड़ी में यदि इसी साल का उदाहरण लें तो यह वर्ष विरोध-प्रदर्शन, तल्खी और विसंगतियों के नाम रहा है। नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए के विरोध में हुए शाहीन बाग गतिरोध के बाद दिल्ली में दंगे हो गए। इससे पहले कि दंगों की आग बुझती उसके पूर्व ही कोरोना ने दस्तक दे डाली। अब जब हमें लगा कि बदतर दौर बीत गया तो कृषि कानूनों के विरोध की चिंगारी ने नए विवाद की आग भड़का दी है। विपक्षी दलों के साथ ही मीडिया का एक वर्ग भी अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को यही आभास कराना चाहता है कि भारत तानाशाही की ओर उन्मुख है। जबकि मेरा मानना है हम आदतन मत-विरोध वाले राष्ट्र के रूप में उभर रहे हैं। असल में हम समस्या से निदान के बजाय संभावित समाधान में ही मीनमेख निकालने लगते हैं। विरोध-प्रदर्शन का अधिकार किसी भी उदारवादी बहुलतावादी व्यवस्था का अपरिहार्य अंग है। हालांकि इस दिशा में हम अभी तक साधन और साध्य की पवित्रता के मर्म को आत्मसात नहीं कर पाए हैं। आखिर मार्ग अवरुद्ध करना या सार्वजनिक-निजी संपत्ति को क्षति पहुंचाना कैसे शांतिपूर्ण है? स्मरण रहे कि कोई भी लोकतंत्र विमर्श की धारा से ही विकसित होता है। ऐसे में विरोध प्रदर्शन का गैर-आंदोलनकारी स्वरूप विकसित करना और उनके शांतिपूर्ण प्रतिकार का दायित्व समाज और प्राधिकारी संस्थाओं का ही है। साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि विरोध-प्रदर्शन को अपने मूल तत्व से विमुख नहीं होना चाहिए, क्योंकि वही आंदोलन की आत्मा होता है।
कोविड-19 के बाद अगली महामारी
इंटरगवर्नमेंटल साइंस-पॉलिसी प्लेटफॉर्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेज (आईपीबीईएस) ने एक असाधारण शोध पत्र में चेतावनी दी है कि नोवेल कोरोना वायरस रोग (कोविड-19) जैसी महामारी हमें बार-बार नुकसान पहुंचाएंगे और अबकी तुलना में ज्यादा लोगों की जिंदगी छीनेंगे। आईपीबीईएस रिपोर्ट को दुनियाभर के 22 विशेषज्ञों ने तैयार किया है। रिपोर्ट में नई बीमारियों के उभरने के पीछे इंसानों की वजह से पर्यावरण को होने वाले नुकसान की भूमिका का विश्लेषण किया गया है। अक्टूबर में जारी रिपोर्ट ने कहा, जमीन के उपयोग में बदलाव वैश्विक स्तर पर महामारी के लिए अहम संचालक है और 1960 के बाद से 30 फीसदी से ज्यादा नए रोगों के उभरने की वजह भी है। रिपोर्ट ने आगे कहा, भले ही कोविड-19 की शुरुआत जानवरों पर रहने वाले रोगाणुओं से हुई है, सभी महामारियों की तरह, इसकी शुरुआत भी पूरी तरह से इंसानी गतिविधियों से प्रेरित रही है। हम अभी तक 17 लाख विषाणुओं की ही पहचान कर सके हैं, जो स्तनधारियों और पक्षियों में मौजूद हैं। इनमें से 50 फीसदी विषाणु में इंसानों को संक्रमित करने के गुण या क्षमता मौजूद है। रिपोर्ट को जारी करने वाले इको हेल्थ एलायंस के अध्यक्ष और आईपीबीईएस वर्कशॉप के प्रमुख पीटर दासजैक ने कहा, जो मानवीय गतिविधियां जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता के नुकसान को बढ़ाती हैं, वही हमारे पर्यावरण पर अपने प्रभावों के जरिए महामारी के जोखिम भी लाती हैं। जमीन को इस्तेमाल करने के हमारे तरीके में बदलाव, खेती का विस्तार और सघन होना और गैर-टिकाऊ कारोबार, उत्पादन और खपत प्रकृति में तोड़-फोड़ पैदा करते हैं और वन्य जीवों, मवेशियों, रोगाणुओं और लोगों के बीच संपर्क को बढ़ाते हैं। यह महामारियों का पथ है। जूनोसिस या जूनोटिक रोग एक ऐसा ही रोग है जो किसी मवेशियों के स्रोत से सीधे या किसी मध्यस्थ प्रजाति के जरिए इंसानी आबादी तक आया है। जूनोटिक संक्रमण बैक्टीरिया, वायरस या प्रकृति में पाए जाने वाले परजीवियों से हो सकता है, जानवर ऐसे संक्रमणों को बचाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जूनोसिस के उदाहरणों में एचआईवी-एड्स, इबोला, लाइम रोग, मलेरिया, रेबीज, वेस्ट नाइल बुखार और मौजूदा कोविड-19 शामिल हैं। हालांकि, महामारी की आर्थिक कीमत के मुकाबले इसकी रोकथाम के उपाय बहुत कम खर्चीले होंगे। मौजूदा महामारी ने वैश्विक स्तर पर जुलाई 2020 तक लगभग 16 ट्रिलियन डॉलर का बोझ डाला है।
अर्थव्यवस्था हुई चकनाचूर
2020 की शुरूआत में कोविड-19 महामारी के फूटने से देश को झटका लगा। लाकडाउन ने भी अर्थव्यवस्था को चकनाचूर कर दिया लेकिन भारत इसमें अकेला नहीं था क्योंकि पूरी दुनिया ही प्रभावित थी। सरकार की ओर से अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए दी गई मदद से अब ये धीरे-धीरे उठ रही है। जीडीपी वृद्धि भविष्यवाणी की तुलना में बहुत कम होने की उम्मीद है। नागरिक उड्डयन, कृषि, पर्यटन, आतिथ्य और अन्य कई क्षेत्र हैं जिन्हें बढ़ावा देने की आवश्यकता थी। प्रमुख क्षेत्रों में से बेरोजगार हो जाना एक बड़ा नुकसान था। यह अनुमान लगाया गया था कि 2017-18 में नौकरी की हानि 45 वर्ष के ऊंचे स्तर पर थी। ये सब नोटबंदी और जीएसटी के रोल आउट के प्रभाव के कारण था। ऊंची जीडीपी वृद्धि के कारण भारत सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। विकास संकेतकों ने अन्य समस्याओं को भी दिखाया। यहां तक कि जब देश कोरोना वायरस के साथ संघर्ष कर रहा था, सरकार ने 2020 में तीन कृषि कानून पारित किए जिसने मोदी सरकार के लिए एक और सिरदर्द पैदा कर दिया। इसने हजारों किसानों को विरोध करने के लिए उकसाया है। पंजाब में केंद्रित प्रदर्शन अब सारे राज्यों में फैल चुके हैं और हजारों की संख्या में किसान दिल्ली में इन कानूनों को रद्द करवाने के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं। विपक्ष पूरी तरह से किसानों की पैरवी करता है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चीन सीमा पर चिंता पैदा कर रहा है और वह हमेशा से ही भारत के लिए एक चुनौती रहा है। वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के साथ कई घर्षण बिंदुओं पर भारतीय और चीनी सैनिक आमने-सामने हैं। घरेलू पक्ष पर एनडीए गठबंधन ने बिहार चुनाव जीता लेकिन दिल्ली केजरीवाल के पास रह गई। कुल मिलाकर वर्ष 2020 मोदी और उनकी पार्टी भाजपा के लिए चुनौतियों भरा वर्ष था।
हर 100 साल में होता है महामारी का हमला
दुनिया में हर 100 साल पर महामारी का हमला हुआ है। सन् 1720 में दुनिया में द ग्रेट प्लेग आफ मार्सेल फैला था। जिसमें 1 लाख लोगों की मौत हो गई थी। 100 साल बाद सन् 1820 में एशियाई देशों में हैजा फैला। उसमें भी एक लाख से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी। इसी तरह सन् 1918-1920 में दुनिया ने झेला स्पेनिश फ्लू का कहर। इस बीमारी ने उस वक्त करीब 5 करोड़ लोगों को मौत की नींद सुला दिया था। और अब फिर 100 साल बाद दुनिया पर आई कोरोना की तबाही। सन् 1720 पूरी दुनिया में प्लेग फैला था। इसे ग्रेट प्लेग ऑफ मार्सिले कहा जाता है। मार्सिले फ्रांस का एक शहर है। जहां इस प्लेग की वजह से 1 लाख से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी। प्लेग फैलते ही कुछ महीनों में 50 हजार लोग मारे गए। बाकी 50 हजार लोग अगले दो सालों में मर गए। सन् 1820 ग्रेट प्लेग ऑफ मार्सिले के पूरे 100 साल बाद एशियाई देशों में कॉलरा यानी हैजा ने महामारी का रूप लिया। इस महामारी ने जापान, अरब देशों, भारत, बैंकॉक, मनीला, जावा, चीन और मॉरिशस जैसे देशों को अपनी जकड़ में ले लिया। हैजा की वजह से सिर्फ जावा में 1 लाख लोगों की मौत हुई थी। जबकि सबसे ज्यादा मौतें थाईलैंड, इंडोनेशिया और फिलीपींस में हुई थी। सन् करीब 100 साल बाद 1920 में धरती पर फिर तबाही आई। इस बार ये तबाही स्पैनिश फ्लू की शक्ल में आई थी। वैसे ये फ्लू फैला तो 1918 से ही था। लेकिन इसका सबसे ज्यादा असर 1920 में देखने को मिला। कहा जाता है कि इस फ्लू की वजह से पूरी दुनिया में दो से 5 करोड़ के बीच लोग मारे गए थे।
- राजेंद्र आगाल