ताकतवर सहयोगी
18-Feb-2020 12:00 AM 1147

यह चुनावी साल है और नीतीश कुमार सुरक्षित खेल रहे हैं, उन्होंने खुद को विवादास्पद नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए से जोडऩे और भाजपा के साथ अपने गठबंधन को तोडऩे के किसी भी प्रयास को नाकाम कर दिया है। पार्टी के वरिष्ठ नेता पवन कुमार वर्मा और प्रशांत किशोर खुलकर नए कानून की आलोचना करते रहे और अब उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने अपने बिहार दौरे में ऐलान किया था कि नीतीश राज्य में गठबंधन की अगुवाई करेंगे और इसी वजह से शायद नीतीश के रुख में बदलाव आया। नीतीश ने इन दोनों नेताओं के लिए 'आप कहीं भी जाने के लिए स्वतंत्र हैं’ कहकर इस बाबत स्पष्ट संकेत दे दिया था।

16 जनवरी को वैशाली जिले में अमित शाह ने कहा कि वे यहां सभी अफवाहों को खत्म करने के लिए आए हैं। उन्होंने कहा, 'एनडीए बिहार विधानसभा का अगला चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में लड़ेगा। भाजपा-जद(यू) का गठबंधन अटूट है।’ शाह का बयान इस मामले में अंतिम लगता है, यह मुख्यमंत्री पद के भाजपा के अधीर राज्य नेताओं को चुप कराने के लिए भी पर्याप्त संकेत है। शाह के बिहार दौरे से ठीक तीन दिन पहले नीतीश ने शाह की प्रिय परियोजना राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) को खारिज किया था और सीएए सहित सभी विषयों पर चर्चा करने की इच्छा जताई थी। भाजपा के कई नेता इससे नाराज हुए और उन्हें शाह से कड़ी प्रतिक्रिया की उम्मीद थी। आमतौर पर आक्रामक शाह ने इसे नजरअंदाज किया, जिसे बिहार में जिताऊ गठबंधन को बिगाडऩे की उनकी अनिच्छा के रूप में देखा जा रहा है।

हाल ही में महाराष्ट्र और झारखंड चुनाव में हाथ जला चुका भाजपा नेतृत्व स्पष्ट तौर पर बिहार में एक और संकट खड़ा नहीं करना चाहता। बिहार से 40 लोकसभा सांसद आते हैं। चुनाव में महज 10 महीने बचे हैं और जद(यू) के एक नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, 'भाजपा को यह समझना होगा कि 68 साल के नीतीश बतौर मुख्यमंत्री आखिरी कार्यकाल चाह रहे हों। प्रदेश भाजपा नेताओं को धैर्य रखना चाहिए और उनका साथ देना चाहिए।’

2019 के लोकसभा चुनाव परिणामों की गहन जांच से पता चलता है कि 17 सीटों और कुल चार करोड़ मतों में से 96 लाख मतों के बावजूद भाजपा राज्य में सबसे ज्यादा बढ़त हासिल करने वाली पार्टी नहीं थी। लगभग 90 लाख मत नीतीश की पार्टी जद(यू) को मिले। भाजपा को 2015 के विधानसभा चुनाव में 93 लाख मत मिले थे, यह चुनाव वह राजद-जद(यू) गठबंधन से हार गई थी। भाजपा के लोकसभा वोट के आंकड़े में 3,10,000 वोटों की बढ़त दर्ज की गई। जद(यू) को 89 लाख वोट मिले, जो 2015 के आंकड़ों से 38.7 फीसद की चकित करने वाली छलांग है।

2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से बिहार में 61 लाख नए मतदाता जुड़े हैं और जद(यू) नेतृत्व का मानना है कि हर दूसरा नया मतदाता नीतीश के लिए वोट करता है। यही एक कारण है कि पार्टी नया गठबंधन नहीं करना चाहती। जद(यू) के एक नेता का कहना है, 'हम दागी गठबंधन (चारा घोटाले में राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव के संदर्भ में) का हिस्सा नहीं बनना चाहते। युवा मतदाता इसे बहुत विनम्रता से नहीं स्वीकार कर सकते।’

जद(यू) नेताओं का एक वर्ग हालांकि सीटों के बंटवारे को लेकर आशंकित है। 2010 के विधानसभा चुनाव में नीतीश भाजपा से गठबंधन करके चुनाव लड़ रहे थे। जद(यू) ने 141 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए थे जबकि भगवा पार्टी ने 102 सीटों पर। लेकिन पिछले वर्ष के लोकसभा चुनाव में दोनों दलों ने बराबर सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि नतीजों में भाजपा ने बिहार में अपनी सभी 17 सीटों पर जीत दर्ज की, जिसने उसे स्पष्ट रूप से जद(यू) के बराबर पहुंचा दिया। निश्चित रूप से सीट बंटवारे पर बातचीत भाजपा की ओर से 2010 की तुलना में ज्यादा सीटों की मांग के साथ शुरू होगी। लेकिन जैसा कि जद(यू) के नेता कहते हैं, 'विधानसभा का चुनाव कुल मिलाकर मुख्यमंत्री का चुनाव है। यहां पार्टी को यकीन है कि तुरुप का पत्ता उसके पास रहेगा।’

बिहार में उभर रही है नई लीडरशिप

दिल्ली के बाद राजनीति का केंद्र बिहार शिफ्ट हो जाएगा। सबका फोकस बिहार पर बनेगा। इस बार बिहार में नया नेतृत्व उभरने की गुंजाइश देखी जा रही है। ध्यान रहे बिहार में पिछले 30 साल से राजनीति जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से जुड़े रहे नेताओं के ईर्द-गिर्द घूम रही है। तीन शीर्ष पार्टियों के नेता जेपी आंदोलन से निकले हैं। राजद के लालू प्रसाद, जदयू के नीतीश कुमार और भाजपा के सुशील कुमार मोदी तीनों जेपी आंदोलन के नेता हैं। राजद में तो आधिकारिक रूप से नेतृत्व का हस्तांतरण हो गया है और लालू प्रसाद के बेटे तेजस्वी पार्टी की राजनीति संभाल रहे हैं। लालू के साथ रहे तमाम पुराने नेताओं ने तेजस्वी यादव को नेता मान लिया है। जनता दल (यू) में फिलहाल नीतीश कुमार का विकल्प नहीं है। पर भाजपा में नया नेतृत्व आगे किया जा रहा है। अमित शाह और भूपेंद्र यादव ने नित्यानंद राय को बिहार भाजपा का चेहरा बनाया है। उनके बाद मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल और केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह भी नेतृत्व की दावेदारी में हैं। इनके अलावा बिहार की राजनीति में इस बार दो लोगों पर खास नजर रहेगी। जदयू से निकाले गए प्रशांत किशोर और सीपीआई के कन्हैया कुमार। कन्हैया इस समय बिहार में दौरा कर रहे हैं और हर शहर में उनकी रैलियों में भारी भीड़ जुट रही है। उनके दम पर सीपीआई अपने पुराने दिन हासिल करने की उम्मीद कर रही है।

 - विनोद बक्सरी

 

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