सीधी जंग की सियासत
03-Mar-2020 12:00 AM 926

पिछले विधानसभा चुनावों में वसुंधरा राजे को कमान सौंपने के मामले में भाजपा नेतृत्व का तुजुर्बा काफी कसैला रहा था। बावजूद अजमेर और जयपुर में आयोजित संघ के चिंतन शिविरों में राजे के विकल्प का मुद्दा काफी कसमसाता रहा। लेकिन भाजपा नेतृत्व ने पारम्परिक सुल्तान को ही इस तर्क के साथ कमान सौंपना बेहतर समझा कि राजे-शाह का गठजोड़ प्रदेश में भाजपा को फिर से सत्ता में ला सकता है। लेकिन चुनावी नतीजे झिंझोड़ कर बता गए कि वसुंधरा राजे मोदी मॉडल की सबसे कमजोर कड़ी थी। इसके कसैले सबक के बाद ही संघ के पदाधिकारी उन सूरमाओं पर टकटकी लगाए हुए थे, जो पार्टी को संवारकर फिर से सत्ता का राजमुकुट पहना सके।

शताब्दी वर्ष की तरफ तेजी से बढ़ते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सत्ता में सीधी धमक के दस्ताने पहन लिए हैं। इन दिनों राजस्थान में जिस तरह भाजपा की राजनीति संघनिष्ठ संगठन मंत्री चंद्रशेखर के इर्द-गिर्द घूम रही है उसने संघ समर्थक विश्लेषक राकेश सिन्हा के इस तर्क पर मुहर लगा दी है कि 'वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में सत्ता में सीधा दखल न सिर्फ संघ की विवशता है। बल्कि समय की मांग और अनिवार्यता भी है।Ó राजनीतिक विश्लेषकों ने उन्हें सियासी खेल का धुरंधर और कामयाबी की चाबी मानते हुए ऐसा हुनरमंद माना है, जो प्रदेश में भाजपा को सत्ता के गलियारों में ले जा सकता है।

सूत्रों का कहना है कि पांच राज्यों में सत्ता के घाट पर फिसल चुका भाजपा नेतृत्व भी अब यह मानने लगा है कि राज्यों के चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दों की बजाय क्षेत्रीय मुद्दों और स्थानीय चेहरों पर दांव खेला जाना चाहिए। विश्लेषकों का कहना है कि अब नए सियासी महामंथन के बाद अगर संघ खुलकर सत्ता के संघर्ष की दहलीज पर कदम रखने जा रहा है, तो देखना ज़्यादा दिलचस्प होगा। खासकर संघ प्रमुख भागवत के उस बयान के बाद कि 'केवल राजनीति देश में परिवर्तन नहीं ला सकती। परिवर्तन तो केवल लोगों के द्वारा ही लाया जा सकता है।Ó बहरहाल सूत्रों का कहना है कि अपने राजनीतिक कौशल की सबसे बड़ी परीक्षा देने के लिए संघ ने राजस्थान को चुना है। संघ प्रदेश में भाजपा को फिर से सत्ता में लाने के लिए कई मोर्चों पर काम कर रही है। सीएए को लेकर भाजपा के समर्थन अभियान से भी संघ सतुष्ट नहीं है। उसी का नतीजा है कि संघ ने संपर्क अभियान की बागडोर अपने हाथों में थाम ली है। संघ के कार्यकर्ता घर-घर जाकर लोगों को ऐसे पम्पलेट बांट रहे हैं, जो सीएए की अच्छाइयों का बखान करते नजर आते हैं।

राजनीतिक दक्षता के इस मुहाने पर अगर चंद्रशेखर खूबियों से लबरेज नजर आते हैं, तो इसकी बेशुमार वजहें हैं। सत्ता और संगठन में खम ठोककर तालमेल का मसौदा पढऩे वाले चंद्रशेखर ने विस्तारक योजना जैसे कार्यक्रम चलाए और संगठन को मजबूती देने के लिए 50 लाख सदस्य जोड़ेे हैं। विधानसभा और लोकसभा चुनावों में संभाग स्तर पर प्रभारी बनाए गए। पदाधिकारियों को संगठनात्मक कामकाज का बंटवारा किया। चंद्रशेखर यही पद वाराणसी में भी 2014 में संभाल चुके हैं। जब प्रधानमंत्री

नरेंद्र मोदी ने वहां से संसदीय चुनाव लड़ा था। विश्लेषकों का कहना है कि ऐसा 29 साल में पहली बार हुआ जब किसी संगठन महामंत्री की पकड़ को इतना मजबूत देखा गया। चंद्रशेखर ने बेशक अपने लिए कोई सुर्खियां बटोरने की कोशिश नहीं की। लेकिन उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि गिनी जाएगी कि वसुंधरा राजे की बुझती चमक के बीच सिर्फ चंद्रशेखर ही ऐसा नेता साबित हुए, जो महज ढाई साल में प्रदेश भाजपा का सबसे बड़ा चेहरा बन गए।

करीब दो दशकों से राजस्थान में भाजपा की सियासत वसुंधरा राजे तक ही सीमित रही। इससे पहले भैरोसिंह शेखावत पार्टी के केंद्र बिंदु रहे। लेकिन प्रदेश संगठन महामंत्री के तौर पर चाहे ओम प्रकाश माथुर हो या प्रकाश चंद्र प्रदेश भाजपा में वैसा वर्चस्व कायम नहीं कर पाए? जैसा चंद्रशेखर ने किया। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष के रूप में सतीश पूनिया की तैनाती समेत कई बदलावों में चंद्रशेखर का प्रभाव साफ नजर आता है।

महारानी पूरी तरह हासिए पर

संगठन मंत्री के पद को पार्टी और संघ के बीच महत्वपूर्ण कड़ी माना जाता है। बाद में राजे और पार्टी नेतृत्व के बीच टकराव के चलते यह पद 8 साल तक खाली ही रहा। लेकिन इस टकराव को दूर करने में चंद्रशेखर ही कामयाब रहे। सौरभ भट्ट कहते हैं कि अतीत से भविष्य का निर्माण तो संभव नहीं है। लेकिन चंद्रशेखर पर अगर संघ की नजरें गड़ी हैं, तो उन्हें अतीत ओर वर्तमान दोनों टटोलने होंगे। उधर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह अब भी राजे से मुंह फुलाए हुए हैं। पिछले दिनों नागरिकता संशोधन कानून के समर्थन में जोधपुर में हुई शाह की सभा से वसुंधरा राजे ने दूरी ही बनाए रखी। शाह की सभा के लिए शहर में लगाए गए पोस्टरों में भी वसुंधरा राजे की तस्वीर नदारद थी। सूत्रों का कहना था कि राजे को शाह के कार्यक्रम में आने का निमंत्रण ही नहीं दिया गया था। इससे पहले जयपुर में सीएए के समर्थन में रैली निकाली गई। भाजपा की सभा में राजे को आमंत्रित नहीं किया गया था। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि राजे के लिए इससे बड़ा अप्रत्यक्ष संकेत क्या हो सकता है कि सीएए को लेकर 5 जनवरी को देश में लॉन्च किए गए संपर्क अभियान में भी उन्हें शामिल नहीं किया गया, जबकि इसमें शिवराज सिंह से लेकर रमन सिंह, रघुवरदास और देवेंद्र फडणवीस सरीखे सभी पूर्व मुख्यमंत्री शामिल थे।

-  जयपुर से आर.के. बिन्नानी

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