गलत सौदे करने वालों की सबसे बड़ी पहचान होती है कि वो पहले सामने वाले को उसका फायदा समझाते हैं। वो ये नहीं बताते कि उनका अपना क्या स्वार्थ है। इसी फायदे के लालच में आकर लोग ठगी के शिकार होते हैं। दिल्ली और अरविंद केजरीवाल की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। दरअसल, केजरीवाल की खासियत यह है कि वे अपनी गलती को भी इतने बेहतर तरीके से पेश करते हैं जिससे लोगों को लगता है कि उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया है। अब कोरोना वायरस के संक्रमण को ही ले लें। देश में यह वायरस सबसे अधिक जमातियों के कारण ही फैला है। लेकिन केजरीवाल अपनी गलती को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि में तब्दील कर जनता को यह बताने में जुटे हुए हैं कि वायरस को रोकने के लिए उनकी सरकार ने कितने कठोर और सार्थक कदम उठाते हैं। हालांकि वहां भी गलतियां ही गलतियां हुई हैं।
कोरोना संकट के वक्त अरविंद केजरीवाल की सक्रियता कदम-कदम पर बोल रही है, लेकिन सियासत खामोश हो गई लगती है। पहले दिल्ली दंगों को लेकर, फिर लॉकडाउन के दौरान पूर्वांचल के लोगों के पलायन को लेकर और अब तब्लीगी जमात के मामले में दिल्ली के मुख्यमंत्री बुरी तरह घिरते नजर आ रहे हैं। ऐसा भी नहीं कि केजरीवाल के पास पूछने के लिए सवाल नहीं बचे हैं। तब्लीगी जमात के मामले में अजीत डोभाल की दखल से साफ है कि केंद्र में सत्ताधारी भाजपा कैसे खुद को फंसा हुआ महसूस कर रही होगी, लेकिन राजनीति तो यही होती है कि कैसे विरोधी को ही घसीटकर सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया जाए। तब्लीगी जमात के आयोजन के लिए सवाल तो केंद्र सरकार को रिपोर्ट करने वाली दिल्ली पुलिस से भी पूछे जा रहे हैं, लेकिन सवालों पर केजरीवाल को सफाई देते नहीं बन रहा है। ऐसा लगता है जैसे भाजपा ने केजरीवाल को चारों तरफ से घेर लिया हो और उनको निकलने का रास्ता नहीं सूझ रहा हो। फिर भी केजरीवाल के मुंह से भाजपा के खिलाफ एक भी शब्द नहीं निकल रहा है।
अरविंद केजरीवाल कहते हैं- 'अर्जुन की आंख की तरह इस समय सिर्फ देश को बचाना है। कोई राजनीति करने की जरूरत नहीं है।’ खुद तो खामोशी बरत ही रहे हैं, कार्यकर्ताओं से भी केजरीवाल यही अपील कर रहे हैं वे भी चुप रहे और ऐसा कोई राजनीतिक बयान न दें जिससे बवाल मचने लगे। दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के लिए राहत भरी एक ही खबर है, लेकिन फिलहाल वो उनके किसी काम नहीं आने वाली है। दिल्ली में प्रदूषण पर काबू पाने के लिए अरविंद केजरीवाल के पास ले देकर आखिरी रास्ता बचता था- ऑड और ईवन, लेकिन रिपोर्ट आई है कि राजधानी की हवा पांच साल पहले जितनी साफ हो चुकी है। ऐसा बारिश के चलते हुआ है क्योंकि मार्च में 109.6 एमएम बारिश हुई थी और ये 1901 से लेकर अब तक सबसे ज्यादा है। लेकिन ये साफ सुथरी हवा और ये बारिश फिलहाल अरविंद केजरीवाल के किसी भी काम नहीं आ रही है। दिल्ली में हुए दंगे हों, हाल फिलहाल पूर्वांचल के मजदूरों के पलायन का मुद्दा हो या फिर अभी-अभी निजामुद्दीन में तब्लीगी जमात के मरकज में मजहबी जमावड़ा, अरविंद केजरीवाल ने चुप्पी साधे हुए राजनीति करने की कोशिश की है। तीनों ही मामलों में अरविंद केजरीवाल को लगा होगा कि उनके चुपचाप बैठ जाने पर भाजपा ही फंसेगी, क्योंकि केंद्र के साथ-साथ उप्र में भाजपा की सरकार है और बिहार की सरकार में वो साझीदार है। दिहाड़ी मजदूरों के पलायन को लेकर अरविंद केजरीवाल उप्र की योगी आदित्यनाथ सरकार और बिहार की नीतीश कुमार सरकार के मंत्रियों के निशाने पर रहे। दोनों ही सरकारों के मंत्रियों ने केजरीवाल पर पूर्वांचल के लोगों के बिजली-पानी के कनेक्शन तक काट डालने के आरोप लगाए और केजरीवाल ये समझाने में भी नाकाम रहे कि क्यों लोगों को डीटीसी की बसें आनंद विहार से लेकर हापुड़ तक पहुंचाती रहीं।
अरविंद केजरीवाल लॉकडाउन को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपील की दुहाई देते फिर रहे थे, लेकिन जब पूरा देश घरों में बंद है और कैबिनेट की मीटिंग तक में सोशल डिस्टेंसिंग का ख्याल रखा जा रहा है, फिर निजामुद्दीन में तीन दिन तक तब्लीगी जमात का जमावड़ा कैसे चलता रहा? मरकज में जमात के लोगों के जुटने के बाद भी न तो दिल्ली पुलिस हरकत में आई और न ही केजरीवाल सरकार के अफसर। अर्जुन की तरह धैर्य और धर्म के भरोसे अरविंद केजरीवाल भले ही दिल्ली विधानसभा का चुनाव जीत चुके हों, लेकिन उसके बाद से दिल्ली की राजनीति में कदम-कदम पर उनकी राजनीतिक समझ अभिमन्यु जैसी ही नजर आ रही है। लगता है अरविंद केजरीवाल ऐसी उलझन में फंसे हैं जिसमें वो न तो धर्म निरपेक्षता को छोड़ना चाहते हैं और न ही हिंदुत्व का चोला ठीक से ओढ़ पा रहे हैं। दिल्ली दंगों से लेकर तब्लीगी जमात तक दोनों ही मामलों में यही उलझन केजरीवाल एंड कंपनी को ले डूबी है।
राहुल गांधी जैसी गलतियां कैसे करने लगे केजरीवाल
ऐसा बार-बार क्यों लगता है जैसे भाजपा को शिकस्त देने के चक्कर में जैसी गलतियां कांग्रेस नेता राहुल गांधी करते गए, अरविंद केजरीवाल भी उसी रास्ते पर चलते हुए लड़खड़ाने लगे हैं। अगर अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में दोबारा सत्ता हासिल कर खुद को साबित किया है तो राहुल गांधी ने भी 2009 के आम चुनाव में कांग्रेस को उप्र की 12 सीटें एक्स्ट्रा दिलाकर वाहवाही तो लूटी ही थी और 9 साल बाद एक साथ राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में पार्टी को सत्ता में लाकर तारीफ बटोरी ही ली थी, राष्ट्रीय स्तर पर वो फेल हो गए अलग बात है। वैसे तो केजरीवाल भी दिल्ली के बाहर कोई चमत्कार ही नहीं दिखा पाए। केजरीवाल की राहुल गांधी की तुलना यहां इसलिए प्रासंगिक हो जा रही है क्योंकि भाजपा के खिलाफ अपनी राजनीति चमकाने के लिए दोनों ही नेताओं ने एक ही तरह के प्रयोग किए हैं। पहले राहुल गांधी ने सॉफ्ट हिंदुत्व का प्रयोग किया और फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सीधे हमले से थोड़ा परहेज। अरविंद केजरीवाल ने भी हनुमान चालीसा से आगे बढ़कर घर में गीता पाठ कराने लगे हैं। फर्क बस ये है कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री मोदी को कुछ दिन सम्मान देते हैं, लेकिन फिर भूकंप लाने के चक्कर में कुछ न कुछ ऐसा बोल ही देते हैं कि बवाल शुरू हो जाता है। केजरीवाल कम से कम इस मामले में लगातार चुप्पी साधे हुए हैं।
- अक्स ब्यूरो