कहावत है, रहा भी न जाए और सहा भी न जाए। कांग्रेसियों का नेहरू-गांधी परिवार के साथ रिश्ता कुछ ऐसा ही हो गया है, पर पिछले कुछ दिनों से बदलाव के संकेत नजर आने लगे हैं। जिस कांग्रेस में परिवार के खिलाफ बोलना कुफ्र समझा जाता था उसमें परिवार की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठ रहे हैं, दबी जुबान से ही सही।
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस इन दिनों दो संघर्षों में उलझी हुई है। दोनों समानांतर स्तर पर चल रहे हैं। पहला संघर्ष कांग्रेस के सामने अस्तित्व बचाने का है। दूसरा, कांग्रेस के प्रथम परिवार यानी नेहरू-गांधी परिवार का रुतबा कायम रखने या कहिए कि वीटो बनाए रखने का है। दोनों के केंद्र में सोनिया गांधी हैं। बहुत से कांग्रेसी 2004 और 2009 के लोकसभा चुनाव में जीत को सोनिया गांधी का चमत्कार मानते हैं। उन्हें उम्मीद है फिर चमत्कार होगा, पर सोनिया गांधी का एक ही लक्ष्य है, राहुल को रिलॉन्च करना। समस्या यह है कि रिलॉन्च के लिए न तो नया कलेवर है और न ही तेवर।
पार्टी का एक वर्ग परिवार के म्यूजिकल चेयर के खेल से तंग आ चुका है। संदेश साफ है कि राहुल गांधी को अध्यक्ष पद की फिर से जिम्मेदारी संभालना है तो संभालें और ठीक से काम करें, नहीं तो दूसरों के लिए रास्ता खाली करें। संदीप दीक्षित, अभिषेक मनु सिंघवी मिलिंद देवड़ा, शशि थरूर, मनीष तिवारी, सलमान सोज और संजय झा जैसे कई नेता अलग-अलग ढंग से नेतृत्व, विचारधारा, धर्मनिरपेक्षता, राष्ट्रवाद, आर्थिक नीति जैसे मुद्दों पर स्पष्टता, संगठन में फैसले के तरीके, विकेंद्रीकरण और कार्य संस्कृति का मुद्दा उठा रहे हैं। इनमें से कई नेताओं ने यह भी संकेत दिया है कि पार्टी में पुराने नेता बदलाव नहीं होने दे रहे हैं। जो बदलाव की बात कर रहे हैं उनके सामने भी कोई स्पष्ट मार्ग नहीं है। वे बस चाहते हैं कि यथास्थिति बदले। जैसे चल रहा है वैसे नहीं चल सकता। इन नेताओं को भी अब यह लगने लगा है कि कांग्रेस का अस्तित्व खतरे में है, लेकिन पहले परिवार में सत्ता के बंटवारे की गुत्थी तो सुलझे।
राहुल गांधी ने करीब आठ महीने पहले यह कहकर अध्यक्ष पद छोड़ दिया था कि परिवार से बाहर का कोई व्यक्ति अध्यक्ष बने। परिवार को पहला झटका यही लगा कि कांग्रेसजनों ने इस फैसले को इस तरह स्वीकार किया जैसे इसी का इंतजार कर रहे हों। लंबी कसरत के बाद
सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बना दिया गया और वे सहर्ष बन भी गईं। पार्टी की बागडोर परिवार के हाथ में ही रह गई। अब राहुल गांधी दोबारा अध्यक्ष बनने को तैयार भी हैं और नहीं भी। सोनिया गांधी राहुल के अलावा किसी और को अध्यक्ष के रूप में देखना नहीं चाहतीं। राहुल ने सबको भला बुरा कहकर अध्यक्ष पद तो छोड़ दिया, लेकिन सवाल यह है कि क्या बोलकर लौटें? पुरानी रवायत तो यह है कि कांग्रेसी रोएं, गिड़गिड़ाएं कि आइए हुजूर बचाइए, पर यहां तो कोई बुला ही नहीं रहा। ‘राहुल लाओ, कांग्रेस बचाओ’ का नारा भी नहीं लग रहा। कल्पना की दुनिया से निकलकर वास्तविकता की दुनिया से परिवार का पहली बार वास्ता पड़ा है।
प्रियंका गांधी का खेमा अलग जोर लगाए हुए है कि भाई नहीं तो बहन। अंदरखाने की खबरें यह भी हैं कि प्रियंका राज्यसभा में जाना चाहती हैं, पर सोनिया भेजना नहीं चाहतीं। जो भी हो, कांग्रेसी जानना चाहते हैं कि सोनिया गांधी ने राहुल के बारे में क्या तय किया और फिर राहुल ने उनके तय किए पर क्या तय किया? प्रियंका तय नहीं कर पा रहीं या अभी इतनी ताकतवर नहीं हुई हैं कि अपने बारे में तय कर सकें। सवाल यह भी है कि उनके बारे में कौन तय करेगा-मां या भाई? इस पूरे प्रसंग में कहीं कांग्रेस कार्यसमिति या अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का कोई जिक्र नहीं आता। यह हाल है देश की सबसे पुरानी पार्टी का जो सुबह-शाम जनतंत्र बचाने की गुहार लगाती है। मनीष तिवारी कह रहे हैं कि पचमढ़ी जैसे मंथन शिविर होने चाहिए, जिसमें विचार हो कि भाजपा से अलग कांग्रेस राष्ट्रवाद को कैसे परिभाषित करे? अभी तो यहां परिवार के सदस्यों की भूमिका पर घर में ही मंथन का दौर पूरा नहीं हो रहा।
कांग्रेस की हालत 2004 से 2013 के बीच की भाजपा जैसी हो गई है। दो लोकसभा चुनाव हारने के बाद भी भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व जगह खाली करने को तैयार नहीं था, क्योंकि यथास्थिति टूटने से कई लोग असुरक्षित महसूस करते। यह जानते हुए कि देश में मोदी लहर चल रही है, उन्हें स्वीकार करने को नेतृत्व तैयार न था। इस पर जनता ने कैडर पर दबाव डाला और कैडर ने नेताओं पर। इसके बावजूद आखिरी पल तक मोदी को रोकने की कोशिश हुई। कांग्रेस के मामले में तो जनता मुंह घुमाकर खड़ी है और कैडर परिवार से ऊब चुका है। जो बात देश को काफी समय से दिख रही थी और अब कांग्रेस कार्यकर्ताओं को भी दिखने लगी है वह परिवार के लोगों को नहीं दिख रही। इस पर दुष्यंत कुमार की गजल का एक शेर है- तुम्हारे पांव के नीचे कोई जमीन नहीं, कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं।
पिछले छह साल में गांधी परिवार के लोगों के कामकाज के तरीके या सोच में कोई बदलाव नहीं आया है। सोनिया गांधी से जिनको बहुत उम्मीद है वे भी अच्छी तरह जानते हैं कि उनका स्वास्थ्य पहले जैसा नहीं रहा। आखिरी बार उन्होंने किस चुनाव में खुलकर प्रचार किया था, यह याद करना कठिन है। राहुल गांधी की हालत नौ दिन चले अढ़ाई कोस वाली है। कभी-कभी तो उनके मामले में अढ़ाई कोस भी ज्यादा लगता है। प्रियंका गांधी को राजनीति एक शगल की तरह नजर आती है। कभी मोटर साइकिल पर, कभी स्टीमर पर चलकर कहीं पहुंच जाना उन्हें क्रांति की तरह लगता है। राजनीति उनके बस की बात नहीं लगती। परिवार के नाम पर मिलने वाला डिविडेंड अब बंद हो गया है। यह बात
उत्तर प्रदेश विधानसभा और लोकसभा चुनाव के नतीजे के बाद भी उन्हें समझ में नहीं आई। कांग्रेस का क्या होगा, इस सवाल का जवाब खोजने के लिए कांग्रेस के लोगों को पहले तय करना पड़ेगा कि इस परिवार का क्या होगा? परिवार पार्टी को चला भी नहीं रहा और हटने को भी तैयार नहीं है। लाख टके का सवाल है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? यही तो पूछा था, संदीप दीक्षित ने। यह प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है।
दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को मिली जीत के बाद अन्य राज्यों में आप के विस्तार से कांग्रेस की चिंता बढ़ गई है। जो हालत दिल्ली में आज कांग्रेस की है, उसी तरह की हालत देश के कई राज्यों में पैदा होने का खतरा उसके लिए बढ़ता जा रहा है। देशभर में कांग्रेस इसीलिए कमजोर होती चली गई, क्योंकि उसका वोट बैंक दूसरे दलों की तरफ खिसकता चला गया। उत्तर प्रदेश में एक जमाने की मजबूत पार्टी कांग्रेस ने सरकार बनाने के लिए
मुलायम सिंह यादव को समर्थन दिया तो मुसलमान हमेशा के लिए सपा के साथ चले गए। बसपा के साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ा तो बचा-कुचा दलित मतदाता भी बसपा के पाले में चला गया है। बिहार में लालू प्रसाद की सरकार बचाने के लिए समर्थन दिया तो आज नतीजा यह है कि अपनी पार्टी के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए उसी राजद से सीटों की मिन्नत करनी पड़ती है। महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश से लेकर तमिलनाडु तक, उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक कांग्रेस की यही कहानी रही है। ज्यादातर राज्यों में नए राजनीतिक दलों ने पहले कांग्रेस का साथ लेकर अपनी जमीन को मजबूत किया और फिर कांग्रेस के वोट बैंक को साधकर ही सरकार बनाई और बेहाल कांग्रेस अपनी हालत से दुखी होने के बजाय भाजपा की हार का जश्न मनाने में लगी है।
दिल्ली की प्रचंड जीत से उत्साहित आम आदमी पार्टी राष्ट्रीय विस्तार तो करना चाहती है, लेकिन इस बार तरीका 2014 से अलग होगा। पार्टी 2014 की गलती नहीं दोहराना चाहती है। रामलीला मैदान में शपथ ग्रहण के बाद अरविंद केजरीवाल का वहां मौजूद लोगों से यह कहना कि ‘अपने गांव फोन करके बता देना कि आपका बेटा चुनाव जीत गया है, अब चिंता की कोई बात नहीं है’ अपने आप में यह बताने के लिए काफी है कि अरविंद केजरीवाल अपनी पार्टी का विस्तार राज्य से बाहर भी करना चाहते हैं। यह कांग्रेस के लिए किसी खतरे से कम नहीं है। क्योंकि कांग्रेस के वोटर आप की तरफ आकर्षित हो रहे हैं।
कांग्रेस के वोट बैंक पर नजर
आम आदमी पार्टी खुद भी इस बात को समझती है कि कांग्रेस से निराश लोगों ने उसकी जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह फॉर्मूला देश के अन्य राज्यों में आजमाया जा सकता है। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस नेतृत्व के संकट से गुजर रही है। सोनिया गांधी फिलहाल पार्टी की अंतरिम राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, लेकिन उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता इसलिए वह चाहती हैं कि फिर से राहुल गांधी ही पार्टी की बागडोर संभाल लें। राहुल इनकार कर चुके हैं और सोनिया गांधी परिवार के बाहर किसी व्यक्ति पर भरोसा नहीं करना चाहती हैं। राज्यों में भी जहां-जहां कांग्रेस की सरकार है वहां-वहां गुटबाजी चरम पर है।
कांग्रेस पर मंडराता संकट
वर्ष 2022 में दिल्ली में होने वाले नगर निगम चुनाव को ‘आप’ जोर-शोर से लड़ेगी। इसके अलावा मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान जैसे राज्यों में भी पार्टी निकाय चुनावों में उतर सकती है। जाहिर सी बात है कि इन राज्यों में जैसे-जैसे आप मजबूत होती जाएगी, वैसे-वैसे कांग्रेस कमजोर होती जाएगी। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में ‘आप’ की मजबूती का नुकसान सपा और राजद को भी उठाना पड़ेगा, लेकिन फिलहाल चुनौती कांग्रेस के समक्ष ज्यादा है। कांग्रेस के दिग्गज और अनुभवी नेता इस खतरे को महसूस कर रहे हैं, लेकिन पार्टी आलाकमान के सामने सच बोलने की हिम्मत भला किसमें है। विडंबना देखिए कि कई कांग्रेसी दिग्गज पार्टी की हार की समीक्षा करने की बजाय आप की जीत पर खुश होकर बयान दे रहे हैं। राजनीतिक हालात भी आज आप के अनुकूल हैं। दिल्ली में मिली प्रचंड जीत से कार्यकर्ता भी उत्साहित हैं। देशभर में केजरीवाल मॉडल की चर्चा हो रही है। सॉफ्ट हिंदुत्व वाला केजरीवाल स्टाइल ऑफ पॉलिटिक्स कामयाब होता भी नजर आ रहा है तो भला ‘आप’ देशभर में छाने की कोशिश क्यों ना करे।
- दिल्ली से रेणु आगाल