संघ की धमक हुई कम
19-May-2020 12:00 AM 968

 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के दबदबे का चाहे जो बखान किया जाता रहा हो, आज हकीकत यह है कि भाजपा का वैचारिक संरक्षक यह संगठन नरेंद्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में हाशिए पर पड़ा दिख रहा है। इसकी वजह यह है कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और संघनिष्ठ भाजपाई संघ को तवज्जो नहीं दे रहे हैं। भाजपा को खड़ा करने में जहां संघ का मुख्य योगदान है, वहीं भाजपा की सरकारें योजनाएं बनाने में संघ की न तो सलाह ले रही हैं और न ही उनके द्वारा दी जा रही सलाहों को महत्व दे रही हैं। ताजा मामला श्रम सुधारो को लेकर सामने आया है। जहां संघ ने उसका विरोध किया है।

उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की भाजपा सरकारों ने पिछले सप्ताह जो महत्वपूर्ण श्रम सुधार किए उनका आरएसएस के मजदूर संगठन भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) ने उम्मीद के मुताबिक विरोध किया। बीएमएस के अध्यक्ष साजी नारायणन ने कहा कि संघ 'जंगल राज’ की इजाजत नहीं दे सकता और मजदूरों को 'कॉरपोरेट्स के हाथों का खिलौना नहीं बनने दे सकता।’ लेकिन उप्र, मप्र और केंद्र की भाजपा सरकारों को इससे कोई फर्फ नहीं पड़ा है। बीएमएस के विरोध के दो दिनों बाद गुजरात में विजय रूपाणी के नेतृत्व वाली सरकार ने नए उद्योगों को 1200 दिनों के लिए श्रम कानूनों से मुक्त करने घोषणा कर दी। इसी नक्शेकदम पर चलते हुए गोवा की भाजपा सरकार ने फैक्टरीज एक्ट और काम के घंटों से संबंधित कानूनों में ढील देने का ऐलान कर दिया। अब आरएसएस को यह तो पता ही है कि राज्यों की भाजपा सरकारें केंद्र के समर्थन के बिना ऐसे साहसिक कदम नहीं उठा सकतीं, सो उसके लिए इस उपेक्षा को बर्दाश्त करने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। अब आरएसएस अपने पूर्व प्रचारक नरेंद्र मोदी के लिए थाली और ताली बजाने के सिवाय कुछ नहीं कर सकता, जिनका कद अब संघ के दायरे में समाने वाला नहीं रह गया है।

2014 का लोकसभा चुनाव जीतने के कुछ ही दिनों बाद मोदी ने एक ब्रिटिश लेखक को दिए इंटरव्यू में साफ कह दिया था कि लोगों ने उनकी पार्टी (या कहें आरएसएस) को नहीं बल्कि उनको वोट दिया है। आरएसएस व्यक्तिपूजा से परहेज करने के चाहे जो दावे करता रहा हो। मोदी के दूसरे कार्यकाल में आरएसएस-भाजपा तालमेल की अनौपचारिक व्यवस्था जरूर कायम है, मगर वह नाम का ही है। दोनों के नेताओं ने कभी साथ बैठकर कोरोना संकट तक पर विचार नहीं किया है। आरएसएस के एक पदाधिकारी ने कहा कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी तक को अपने आंतरिक स्त्रोतों से विरोध की जितनी आवाजें सुननी पड़ती हैं, उतनी तो आज मोदी सरकार को न तो आरएसएस से सुननी पड़ रही हैं, न भाजपा से।

आरएसएस की वाजपेयी युग वाली अकड़ ढीली पड़ गई है। वाजपेयी सरकार ने जब भी बालको, हिंदुस्तान जिंक, या आईटीडीसी के होटलों जैसे सार्वजनिक उपक्रमों में रणनीतिक विनिवेश का कदम उठाया, आरएसएस उनका गला पकड़ने को कूद पड़ता था। उसने अपने ही एक पूर्व प्रचारक अटल बिहारी वाजपेयी से इस बात के लिए अपनी नाराजगी कभी नहीं छिपाई कि वे उसके हिंदुत्ववादी एजेंडे को आगे नहीं बढ़ाते थे। जब वक्त आया तो उसने 2002 के गुजरात दंगे में 'राजधर्म’ का पालन न करने के लिए मोदी को मुख्यमंत्री पद से हटाने की वाजपेयी की कोशिश में अड़ंगा लगाने वाले लालकृष्ण आडवाणी का समर्थन किया।

अब 18 साल बाद आरएसएस खुद को प्रासंगिक बनाए रखने और अपना विस्तार करने की हताशा में मोदी का दामन थामे हुए है। 'ब्रांड मोदी’ जबकि आरएसएस से बड़ा होता जा रहा है, आरएसएस भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार की चेरी बनकर भी खुश होने को मजबूर है।

2014 में मोदी जब प्रधानमंत्री बन गए उसके करीब सात सप्ताह बाद आरएसएस नेताओं के एक दल ने संघ और सत्ता पक्ष के बीच तालमेल की व्यवस्था पर तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से चार घंटे विचार-विमर्श किया और इसके बाद प्रधानमंत्री मोदी के निवास पर रात्रि भोज किया। इसके बाद आरएसएस-भाजपा अनौपचारिक कोर ग्रुप का गठन हुआ जिसमें आरएसएस के भैयाजी जोशी, दत्तात्रेय होसबले और कृष्ण गोपाल सरीखे वरिष्ठ नेता शामिल हुए। बाद के महीनों और सालों में यह कोर ग्रुप नीतिगत मसलों पर विचार करने के लिए अमित शाह और मोदी के मंत्रियों के साथ बैठकें करता रहा। दोनों पक्ष हमेशा एकमत तो नहीं होते थे मगर इस व्यापक विचार-विमर्श से सरकार को निरंतर फीडबैक मिलता रहता था।

जून 2018 में बीएमएस के प्रतिनिधियों ने अमित शाह से मिलकर उन श्रम सुधारों का विरोध किया जिनके तहत 44 श्रम कानूनों को मिलाकर चार संहिताएं बनाने का प्रस्ताव किया गया था। आरएसएस के नेताओं ने एक बयान जारी करके कहा कि शाह ने आश्वासन दिया है कि मजदूर संघों से सलाह-मशविरा करने के बाद ही श्रम कानूनों में सुधार या बदलाव किए जाएंगे। लेकिन इस मसले पर वह बैठक आखिरी सलाह-मशविरा ही साबित हुआ। 14 महीने बाद, मोदी सरकार ने 2019 का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद जो प्रारंभिक कानून बनाए उनमें एक था 'कोड ऑन वेजेज-2019’।

बीएमएस रास्ते पर आ गया, उसने इसे 'ऐतिहासिक कानून’ घोषित कर दिया, जबकि दूसरे मजदूर संघ उसकी आलोचना कर रहे थे। जुलाई 2019 में आरएसएस ने वैचारिक संरक्षक और राजनीतिक आश्रित के बीच समन्वय के लिए भाजपा के महासचिव (संगठन) पद पर बिठाए गए अपने नेता रामलाल को हटाकर बीएल संतोष को बैठा दिया। रामलाल इस पद पर 12 साल रहे और माना जाता है कि वे भाजपा के तंत्र में इतने समाहित हो गए थे कि आरएसएस ने उन्हें वहां से हटाकर किसी अधिक मुखर सिद्धांतकार को तैनात करना जरूरी समझा। लेकिन, संतोष भाजपा की जयकार करने वाले नेता ही साबित हुए हैं।

आरएसएस के पसंदीदा मुद्दे राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर भी पिछले 6 वर्षों में कुछ नहीं किया गया है। मानव संसाधन विकास और स्वास्थ्य मंत्रालय तो आरएसएस की संबंधित शाखाओं 'भारतीय शिक्षण मंडल’ और 'आरोग्य भारती’ से विचार-विमर्श तो करते रहे हैं लेकिन ये सब रस्मी ही रहे हैं, जिनका कोई ठोस नतीजा नहीं दिखा है। जैविक खेती और ई-कॉमर्स के नियमन जैसे और कई मसलों को लाकर भी संघ मोदी सरकार से नाराज है। अपनी कमजोर पड़ती पकड़ के एहसास के कारण आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने अक्टूबर 2019 में विजयादशमी पर अपने उद्बोधन में एफडीआई और उपक्रमों के विनिवेश का समर्थन कर दिया। देखा जाए तो भाजपा के 52 केंद्रीय मंत्रियों में से 38 संघ की पृष्ठभूमि वाले हैं। भाजपा के अधिकतर मुख्यमंत्री भी ऐसे ही हैं। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, रक्षामंत्री ही जब आरएसएस के हैं, तो विपक्ष अक्सर कहता रहता है कि यह सरकार नागपुर (आरएसएस मुख्यालय) के रिमोट कंट्रोल से चलती है। लेकिन ऊपर के उदाहरणों से लगता है कि सच कुछ ज्यादा ही उलझा हुआ है।

आरएसएस ने अगर यह कबूल कर लिया है कि सत्ता पक्ष से उसके संगठनों को जो रेवड़ी मिल जाए और उसके वफादारों को विभिन्न संस्थानों में जो जगह मिल जाए वही काफी है, तो इसकी दो वजहें हैं। पहली यह कि मोदी सरकार ने उसके बड़े वैचारिक एजेंडों को पूरा कर दिया है- अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का रास्ता साफ कर दिया गया है, अनुच्छेद-370 को कमजोर करके जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म कर दिया गया है, तीन तलाक को अपराध घोषित कर दिया गया है, जिसे समान नागरिक संहिता की ओर एक कदम माना जा रहा है। आरएसएस के नेतागण इस बात से प्रसन्न हैं कि 'हिंदुत्ववादी राजनीति को लगभग व्यापक स्वीकृति’ मिल गई है और अधिकतर दल नहीं चाहते हैं कि उन्हें मुसलमानों के समर्थक के रूप में देखा जाए। संघ के स्वयंसेवक जब केंद्र और राज्यों में बड़े ओहदों पर बैठे हैं, संघ को लगने लगा है कि वह राष्ट्रीय राजनीति की 'मुख्य धारा’ में आ गया है।

दूसरी वजह यह है कि आरएसएस के पास कोई विकल्प नहीं है। इसके संस्थापक केबी हेडगेवार कभी कांग्रेस में थे। संघ के वरिष्ठ विचारक एमजी वैद्य ने एक इंटरव्यू में कहा था कि 1934 में महात्मा गांधी वर्धा में संघ के शिविर में आए थे। 1963 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने गणतंत्र दिवस की परेड में भाग लेने के लिए आरएसएस को निमंत्रित किया था। उनके उत्तराधिकारी लालबहादुर शास्त्री ने भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान तत्कालीन संघ प्रमुख एमएस गोलवलकर से सलाह-मशविरा किया था। वैद्य ने कहा था- 'आरएसएस के लिए कोई भी अछूत नहीं है।’ संघ ने बांग्लादेश मुक्ति संघर्ष के दौरान इंदिरा गांधी सरकार का समर्थन किया था। कहा जाता है कि 1984 के लोकसभा चुनाव में संघ ने राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस का समर्थन किया था। लेकिन वे सब अलग दिन थे। भाजपा कोई बड़ी राजनीतिक ताकत नहीं थी, न ही कांग्रेस उस समय संघ की उतनी घोर विरोधी थी जितनी सोनिया गांधी और उनके पुत्र राहुल के नेतृत्व में है। अपना विस्तार करने और भारत को 'हिंदू राष्ट्र’ बनाने का अपना एजेंडा पूरा करने के लिए आरएसएस को राजनीतिक संरक्षण की जरूरत है। मोदी सरकार में बैठे अपने पूर्व प्रचारकों और स्वयंसेवकों के कारण वह खुद को भले उपेक्षित और आहत महसूस करे, लेकिन समीकरण बदल गए हैं। आज भाजपा को आरएसएस की जितनी जरूरत है उससे कहीं ज्यादा आरएसएस को मोदी की भाजपा की जरूरत है।

जमीनी सच्चाई से कटे

मोदी और शाह के इर्द-गिर्द सीमित हो चुकी भाजपा के कुल परिवेश पर आरएसएस की कमजोर पड़ती पकड़ इस बात से भी उजागर होती है कि मोदी अचानक जमीनी सच्चाई से कटे हुए दिखते हैं और मध्यवर्ग को खुश करने में जुटे दिखते हैं जबकि उससे कहीं ज्यादा बड़े लाखों प्रवासी मजदूरों के तबके से जुड़ा संकट तपती सड़कों और रेल पटरियों पर फैलता दिख रहा है। संघ की आर्थिक शाखा स्वदेशी जागरण मंच भी बीएमएस वाली नाव पर सवार दिखती है। वह भी श्रम कानूनों, सार्वजनिक उपक्रमों में विनिवेश, फेसबुक-जियो सौदे और शिक्षा के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) जैसे मसलों पर भाजपा सरकार की नीतियों का भारी विरोध करता रहा है। लघु एवं मध्यम उद्यमों (एमएसएमई) का प्रतिनिधित्व करने वाले आरएसएस के संगठन 'लघु उद्योग भारती’ के लगातार विरोधों का भी मोदी सरकार पर कोई असर नहीं होता दिख रहा है।

'जंगलराज की अनुमति नहीं दे सकते’

आरएसएस के श्रमिक संगठन भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) ने भाजपा शासित मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश सरकारों द्वारा इस सप्ताह श्रम कानूनों में किए गए बदलावों का विरोध किया है। बीएमएस ने श्रम कानूनों में इन बदलावों को श्रम कानूनों से संबंधित अंतरराष्ट्रीय संधियों का उल्लंघन बताते हुए कहा है कि इससे अराजकता की स्थिति बन जाएगी। बीएमएस के अध्यक्ष साजी नारायणन ने कहा- 'यह कोरोनावायरस के मुकाबले कहीं बड़ी महामारी साबित होगी। बीएमएस इस मुद्दे पर एक आपात बैठक आयोजित करेगा और इन कदमों का विरोध करेगा।’ उन्होंने कहा, 'ये समय श्रम सुधारों का नहीं है। हम जंगलराज की स्थिति नहीं बनने देंगे। हम मजदूरों को उद्योग जगत के रहमोकरम पर नहीं छोड़ सकते। विभिन्न राज्य ऐसी स्थिति निर्मित कर रहे हैं कि मानो कोई कानून है ही नहीं।’ नारायणन ने कहा कि मध्यप्रदेश ने औद्योगिक विवाद अधिनियम के अधिकांश प्रावधानों को वापस ले लिया है। औद्योगिक विवाद अधिनियम में संशोधनों के बाद, नए उद्यमों को अगले 1,000 दिनों तक कई प्रावधानों से छूट मिल जाएगी, जिनमें मजदूरों को अपनी सुविधा के अनुसार नौकरी पर रखना भी शामिल है। संशोधनों के बाद अब श्रम विभाग के हस्तक्षेप की गुंजाइश नहीं रह जाएगी।

- इन्द्र कुमार

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