18-Feb-2020 12:00 AM
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कहने को तो संघ एक सामाजिक संगठन है, लेकिन इसकी महत्वकांक्षाएं किसी सियासी दल से कम नहीं। संघ भाजपा का मुखौटा लगाकर शासन करना चाहता है। हालत यह है कि भाजपा अपने मुख्यालय 11, अशोक रोड की बजाय नागपुर या झंडेवालान से संचालित होती है। संघ की मर्जी के बिना भाजपा में एक पत्ता तक नहीं हिलता। इसका प्रभाव है कि मोदी सरकार में भाजपा के 53 मंत्रियों में से 38 संघ की पृष्ठभूमि से हैं। यह कुल मंत्रियो का 71 प्रतिशत है। दरअसल भाजपा हमेशा संघ के पदचिन्ह पर चलती है। भाजपा संगठन का गठन हो या फिर सरकार संघ की उसमें महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़े भाजपा के पांच सांसदों में से एक को 2019 में नरेंद्र मोदी की कैबिनेट में मंत्री के रूप में शामिल किया गया था। लेकिन, संघ की पृष्ठभूमि से न आने वाले सांसदों का अनुपात 1:14 है। सीधे शब्दों में कहें तो आरएसएस की पृष्ठभूमि से आने वाले सांसदों के पास दूसरों की तुलना में तीन गुना बेहतर मंत्री बनने की संभावनाएं थीं, यह एक तथ्य है जिसे आकांक्षी मंत्रियों को टीम मोदी के संभावित कैबिनेट विस्तार के बारे में अटकलों के बीच ध्यान में रखना चाहिए। हालांकि, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद आरएसएस के पूर्व प्रचारक हैं। सरकार में नंबर दो गृहमंत्री और भाजपा के पूर्व अध्यक्ष अमित शाह आरएसएस की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) से भी जुड़े थे। यह सरकार की नीतियों पर संघ के विचारधारा के प्रभाव को भी जाहिर करता है।
मोदी सरकार में भाजपा के 53 मंत्रियों में से 38 संघ की पृष्ठभूमि से हैं। यह कुल मंत्रियो का 71 प्रतिशत है। यह आंकड़ा मोदी के पहले कार्यकाल में 62 प्रतिशत था, जब 2014 में शपथ लेने वाले 66 भाजपा मंत्रियों में से 41 आरएसएस से थे। हालांकि, प्रधानमंत्री ने ऐसे मंत्रियों को कई महत्वपूर्ण विभाग सौंपा है, जिनकी आरएसएस की पृष्ठभूमि नहीं है। इनमें वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण, विदेश मंत्री एस जयशंकर, आवास और शहरी मामलों के मंत्री हरदीप सिंह पुरी और ऊर्जा मंत्री आरके सिंह हैं।
भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने इसे ज्यादा महत्व नहीं दिया। भाजपा नेता ने कहा, आरएसएस से संबंध मंत्री बनने की कसौटी नहीं है। पीएम और वरिष्ठ नेतृत्व इस पर निर्णय करते हैं। यह कहना कि किसी को केवल इसलिए पदोन्नत किया जा रहा है क्योंकि उनके आरएसएस से संबंध हैं तो उचित टिप्पणी नहीं है। यह विचार आरएसएस के पदाधिकारी से बार-बार सुनने को मिला। आरएसएस के पदाधिकारी ने कहा, पार्टी के लिए टिकट या पोर्टफोलियो तय करने में आरएसएस की कोई भूमिका नहीं होती है। आरएसएस केवल दो चीजों में विश्वास करता है ऐसे लोग, जो पहले से ही हमारे साथ हैं और जिन्हें अभी हमारे साथ आना बाकी है।
आरएसएस के पदाधिकारी ने यह भी बताया कि जहां तक भाजपा नेताओं का सवाल है। सुषमा स्वराज की कोई आरएसएस की पृष्ठभूमि नहीं थी, लेकिन उनके पास महत्वपूर्ण पद थे और यहां तक कि जसवंत सिंह भी नहीं थे। इसलिए ये वर्गीकरण सही नहीं है। इस तरह के विरोध के बावजूद मोदी सरकार पर संघ के निशान स्पष्ट रूप से हैं। लोकसभा के 303 भाजपा सांसदों में से 146 या 48 प्रतिशत सांसदों का आरएसएस से जुड़ाव है। राज्यसभा में 82 सांसदों में से भाजपा के 34 सांसदों का संघ से लिंक है। इस तरह के लिंक सरकार के निर्णय लेने में भी तेजी से दिखाई दे रहे हैं।
उदाहरण के लिए मोदी 2.0 में एक अलग पशुपालन, डेयरी और मत्स्य पालन मंत्रालय बनाया गया था, यह सुझाव मुख्य रूप से विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) की तरफ से सामने आया है। इसके अलावा राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) भी संघ से जुड़े संगठनों से मसौदा नीति में कई सुझावों को तवज्जो दिया गया है। पिछले साल लोकसभा चुनावों से पहले आरएसएस और वीएचपी द्वारा दबाव डाले जाने के बाद भाजपा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से अयोध्या शीर्षक विवाद मामले में तेजी लाने के लिए कहा था। लेखक नीलांजन मुखर्जी ने कहा कि यह सरकार वैचारिक अखंडता रखने वालों को बढ़ावा देना चाहती है। पिछली अटल बिहारी वाजपेयी सरकार की तुलना में जिसे पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं था मोदी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह ऐसी सरकार है, जिसके पास संघ के एजेंडे को आगे बढ़ाने में कोई हिचक नहीं है।
गौरतलब है कि पीएम, गृहमंत्री और रक्षामंत्री, सभी की आरएसएस पृष्ठभूमि है। तथ्य यह भी है कि आरएसएस की पृष्ठभूमि के और भी मंत्री हैं क्योंकि यह सरकार का संघ परिवार को बेहतर तरीके से एकीकृत करने का तरीका है, ताकि कोई विभाजन न हो सके। सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान पढ़ाने वाले सुहास पलशीकर ने कहा कि वाजपेयी सरकार के समय स्थिति बहुत अलग थी, क्योंकि उस समय गठबंधन था। पलशीकर ने कहा, 'मेरा मानना है कि अगर हम वाजपेयी सरकार के साथ इसकी तुलना करते हैं तो शायद स्थिति अलग हो सकती है, क्योंकि वह गठबंधन सरकार थी। जहां तक मोदी सरकार का संबंध है, हम आरएसएस के साथ बहुत विशिष्ट संबंध देखते हैं और उनका एजेंडा सरकार द्वारा लिया जाता है।
उन्होंने यह भी कहा, जहां तक मंत्रियों का संबंध है तो कोई भी देख सकता है कि आरएसएस की पृष्ठभूमि से आने वाले लोग महत्वपूर्ण विभागों को संभाल रहे हैं। यह एक संगठन और एक पार्टी के बीच की अनोखी स्थिति है, जहां यह कहना मुश्किल है कि कौन किसे नियंत्रित कर रहा है। लेकिन उनके एजेंडे निश्चित रूप से एक दूसरे के पूरक हैं और इसलिए उनकी राजनीतिक परियोजनाएं भी हैं।
मोदी कैबिनेट में सबसे महत्वपूर्ण पैनल, सुरक्षा पर कैबिनेट समिति (सीसीएस) पर संघ का प्रभुत्व है, लेकिन इसमें दो गैर-आरएसएस सदस्य हैं- वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और विदेश मंत्री एस जयशंकर। समिति की अध्यक्षता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करते हैं और संघ परिवार से गृहमंत्री अमित शाह और रक्षा मंत्री राजनाथ भी हैं। आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (सीसीईए), दूसरा सबसे महत्वपूर्ण मंत्रिस्तरीय पैनल, जिसमें आरएसएस की पृष्ठभूमि वाले लोग भी शामिल हैं। समिति में राजनाथ सिंह, शाह, नितिन गडकरी, डीवी सदानंद गौड़ा, नरेंद्र सिंह तोमर, रविशंकर प्रसाद, पीयूष गोयल और धर्मेंद्र प्रधान, जिन सभी के संबंध आरएसएस से हैं। इसमें सीतारमण और जयशंकर अपवाद हैं। आरएसएस का शिक्षा, संस्कृति और श्रम के मूल हितों में लिंक देखा जा सकता है। इन सभी विभागों को संगठन से नजदीकी संबंध रखने वाले नेताओं द्वारा संभाला जाता है। इन विभागों को रमेश पोखरियाल, प्रह्लाद सिंह पटेल और संतोष गंगवार संभाल रहे हैं।
कहने को तो संघ एक सामाजिक संगठन है, लेकिन इसकी महत्वकांक्षाएं किसी सियासी दल से कम नहीं। संघ भाजपा का मुखौटा लगाकर शासन करना चाहता है। हालत यह है कि भाजपा अपने मुख्यालय 11, अशोक रोड की बजाय नागपुर या झंडेवालान से संचालित होती है। संघ की मर्जी के बिना भाजपा में एक पत्ता तक नहीं हिलता। संघ एक राष्ट्रव्यापी संगठन है और इसकी शाखाएं देशभर में फैली हैं, जिनमें विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, हिन्दू स्वयंसेवक संघ, स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय मजदूर संघ, अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद, इंडियन मेडिकोज ऑॅर्गेनाइजेशन, भारत विकास परिषद, सेवा भारती, विद्या-भारती, संस्कृत भारती, विज्ञान भारती, भारत विकास परिषद, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग परिषद, विश्व संवाद केंद्र, सहकार भारती, अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत परिषद, राष्ट्रीय सिख संगत, वनवासी कल्याण आश्रम, लघु उद्योग भारती, दीनदयाल शोध संस्थान, विवेकानंद केंद्र, बालगोकुलम, राष्ट्रीय सेविका समिति और दुर्गा वाहिनी आदि शामिल हैं। संघ के आदेश पर इन संगठनों के कार्यकर्ता भाजपा के लिए दिन-रात एक किए रहते हैं। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि संघ ने अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए भाजपा को पैदल सिपाहियों की फौज मुहैया कराई। भाजपा आज देश की सबसे बड़ी पार्टी है और भाजपा की इस कामयाबी में संघ के करीब साढ़े पांच करोड़ स्वयंसेवकों का महत्वपूर्ण योगदान भी शामिल है।
भाजपा का 'राम- कार्ड’
ये तो पहले से जाहिर है कि भारतीय जनता पार्टी ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में अपना सारा दांव झोंक रखा है। ऐसा लगता है कि गृहमंत्री अमित शाह ने अपनी छवि को यहां दांव पर लगा दिया है। ऐसे में कोई हैरत नहीं कि चुनाव प्रचार का अंत आते- आते केंद्र सरकार ने राम मंदिर कार्ड भी खेल दिया। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर आगे बढ़ते हुए अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए ट्रस्ट का गठन कर दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद संसद में अपनी सरकार के इस फैसले का ऐलान किया। उन्होंने बताया कि राम की जन्मभूमि में भव्य और दिव्य मंदिर बनेगा। इसके लिए उन्होंने अपनी सरकार का विस्तृत प्लान सामने रखा। मोदी सरकार के ट्रस्ट गठन के फैसले के बाद तुरंत उत्तर प्रदेश सरकार के प्रवक्ता का बयान आया। बताया गया कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के मुताबिक उप्र सरकार सुन्नी वक्फ बोर्ड को पांच एकड़ जमीन देने का प्रस्ताव पास कर चुकी है। अगर सरकार चुनाव आचार संहिता का ख्याल करती तो यह ऐलान चार दिन टाल सकती थी। लेकिन उसने संसद के पटल का सहारा लेकर मंदिर से जुड़ा संदेश मतदाताओं को भेज दिया है।
इशारों में नहीं, अब खुली लड़ाई
चुनाव प्रचार में भड़काऊ भाषण या विभाजनकारी बातें, जो इशारों में होती थी वह अब खुलकर होने लगी हैं। पहले प्रतीकों के सहारे बात कही जाती थी। पाकिस्तान एक प्रतीक था। तभी भारतीय जनता पार्टी ने समूचे विपक्ष को पाकिस्तान का समर्थक घोषित किया हुआ था और तभी अमित शाह ने बिहार के चुनाव प्रचार में कहा था कि भाजपा हारी तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे। पाकिस्तान के प्रतीक का ही इस्तेमाल 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद किया। उन्होंने प्रचार के दौरान कांग्रेस नेताओं और पाकिस्तान के कुछ नेताओं की बैठक का जिक्र किया और दावा किया कि उसमें भाजपा को हराने की योजना पर चर्चा हुई। हालांकि वह पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ पाकिस्तान के नेताओं की औपचारिक मुलाकात थी। ध्यान रहे खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पाकिस्तान जाकर वहां के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मिले थे। पर कांग्रेस नेताओं की मुलाकात को भाजपा विरोध और इस तरह से देश का विरोध बताया गया। ऐसे ही एक प्रतीक उत्तर प्रदेश के चुनाव में चुना गया था। प्रधानमंत्री ने श्मशान बनाम कब्रिस्तान की बात कही। उन्होंने कहा कि सरकार अगर कब्रिस्तान बनाने के लिए पैसा देती है तो श्मशान बनाने के लिए भी देना चाहिए। अब उनका ताजा प्रतीक पहनावा है। उन्होंने पिछले दिनों एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि संशोधित नागरिकता कानून का विरोध करने वालों की पहचान उनके पहनावे से हो जाती है। उनका स्पष्ट तौर पर इशारा मुस्लिम पहनावे की ओर था। ध्यान रहे बहुत पहले संभवत: 2012-13 में नरेंद्र मोदी ने अपने एक सद्भावना कार्यक्रम में एक मौलाना के हाथों नमाजी टोपी पहनने से इनकार कर दिया था। पाकिस्तान के साथ-साथ एक प्रतीक कश्मीर भी था। अनुच्छेद 370 को दशकों से भाजपा ने विपक्षी पार्टियों की मुस्लिमपरस्त नीतियों का प्रतीक बनाया हुआ था। महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के चुनाव में उस प्रतीक का भी खूब इस्तेमाल किया गया।
- दिल्ली से रेणु आगाल