आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम में एलजी पॉलिमर्स से हुई गैस लीक ने भोपाल गैस त्रासदी के जख्मों को ताजा कर दिया है। यह बात भी फिर होने लगी है कि हम हादसों से सबक नहीं लेते हैं और न ही सामान्य स्थितियों में कुछ भी सोचते हैं। कानून और नियमों की अधिकता के बावजूद हमारे देश में रसायनिक हादसे न थम रहे हैं और न ही इन्हें रोकने का कोई कारगर उपाय हो रहा है। मप्र में केवल भोपाल ही नहीं बल्कि पूरा प्रदेश खतरनाक रसायनों के भंवर में फंसा हुआ है। मप्र की जमीन में जिंक स्लज, जिंक स्क्रैप, सल्फेट, क्लोराइड, एल्युमिनियम, आयरन, लेड, आर्सेनिक आदि रसायन खतरनाक स्तर पर बढ़ रहे हैं। ये जानलेवा भी साबित हो रहे हैं। लेकिन इनकी रोकथाम के लिए कोई पर्याप्त इंतजाम नहीं किए गए हैं।
भोपाल गैस त्रासदी से काफी पहले दवाओं के निर्माण, आयात-निर्यात और वितरण पर नियंत्रण के लिए द ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट 1940 में बना था। फिर फैक्ट्री कानून 1948 में आया जिसे 1987 में संशोधित किया गया। 1955 में खाने में मिलावट रोकने के लिए द प्रिवेंशन ऑफ फूड एडल्ट्रेशन एक्ट बना। 1962 में कस्टम एक्ट बना जो खतरनाक वस्तुओं के आयात-निर्यात के लिए था। 1968 में कीटनाशकों के नियंत्रित इस्तेमाल के लिए कानून आया। 1971 में कीटनाशक नियम बना। 1974 में जल प्रदूषण से बचाव व नियंत्रण कानून बना जबकि 1981 में वायु प्रदूषण से बचाव व नियंत्रण कानून आया। इतना कुछ होने के बाद भी 1984 में बड़ी भोपाल गैस त्रासदी हुई थी।
भारत में इस औद्योगिक हादसे के बाद पर्यावरण को ध्यान में रखकर बड़ा कानून बना। इसे हम पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के तौर पर जानते हैं। इसके बाद केंद्रीय मोटर कानून, 1988 और 1989 में हजार्ड्स वेस्ट मैनेजमेंट एंड हैंडलिंग रूल्स बना। 1994 में औद्योगिक विस्तार पर नियंत्रण के लिए पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) कानून बना। 2000 में ओजोन डिपलेटिंग सब्सटेंसेज (रेग्यूलेशन एंड कंट्रोल) रूल बना। 2001 में बैटरी (मैनेजमेंट एंड हैंडलिंग रूल्स) बना। 2007 में नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी औद्योगिक दुर्घटनाओं के लिए एक विस्तृत गाइडलाइन लेकर आई। 2016 में हजार्ड्स वेस्ट मैनेजमेंट एंड हैंडलिंग रूल्स को संशोधित किया गया। इसके अलावा भारत कीटनाशक, मर्करी और खतरनाक कचरे के चार प्रमुख अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों का हस्ताक्षरकर्ता है। इनमें बेसल कन्वेंशन, रॉटर्डम कन्वेंशन, स्टॉकहोम कन्वेंशन, मिनिमाता कन्वेंशन शामिल हैं। अंतरराष्ट्रीय कानून बहुत है। भारत इसका हिस्सा है। कुछ काम हुए हैं लेकिन वह काफी नहीं है। मिसाल के तौर पर चिरस्थायी कार्बनिक प्रदूषक (पीओपी) के लिए स्टॉकहोम सम्मेलन है। बहुत से पीओपी रसायन चरणबद्ध तरीके से हटाए गए हैं। हालांकि प्रतिबंध के बाद भी कुछ प्रतिबंधित पीओपी रसायनों की पुष्टि यहां-वहां होती रहती है। वहीं, रॉटर्डम सम्मेलन में यह तय हुआ था कि आयात-निर्यात के लिए देश एक-दूसरे को रसायनों के जोखिम और खतरे के बारे में पूर्व सूचना देकर अनुमति लेंगे, लेकिन यह भी पूरी तरह अमल में नहीं है। ऐसे प्रमुख कानून, नियम और गाइडलाइन बनते रहे लेकिन समस्या का निदान नहीं किया गया। उल्टे भारत खतरनाक कचरे का डंपिंग यार्ड बन गया है, जिसके कारण प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष खतरनाक रसायन यहां की हवा, मिट्टी, पानी को बर्बाद कर रहे हैं।
केंद्रीय वन एवं पर्यावरण विभाग के मुताबिक बीते तीन वर्ष (2015 से 2017) के दौरान रसायनिक दुर्घटनाओं के कारण घायल होने वालों की संख्या में 279 फीसदी की वृद्धि हुई है। 2015-16 में 64 रासायनिक दुर्घटनाओं में 192 लोग घायल हुए थे। वहीं, 66 लोगों की मृत्यु हुई थी, जबकि 2017-18 में महज 31 दुर्घटनाओं में 728 लोग घायल हुए हैं और 39 लोगों की जान गई है। भोपाल त्रासदी के बाद भी छोटी और बड़ी दोनों तरह की रसायनिक दुर्घटनाएं इस देश में जारी हैं। दुनिया में एक भी रसायन ऐसा नहीं है जिसे मासूम कहा जाए। इस सच को हम अच्छे से जानते हैं और इसके भुगतभोगी भी हैं। दुनिया के सबसे बड़े रासायनिक हादसों में शामिल भोपाल गैस त्रासदी को 35 वर्ष हो चुके हैं और जानलेवा मिथाइल आइसोसाइनेट (एमआईसी) गैस का प्रयोग अभी तक देश में प्रतिबंधित नहीं है।
इन रसायनों की जद में जिंदगी
मप्र और उसके आसपास के राज्यों में कई तरह के रसायन खतरनाक स्तर पर बढ़ रहे हैं। इससे मप्र खतरे में है। मप्र में जहां जिंक स्लज, जिंक स्क्रैप, सल्फेट, क्लोराइड, एल्युमिनियम, आयरन, लेड, आर्सेनिक आदि रसायन बढ़ रहे हैं। वहीं, महाराष्ट्र में साइनाइड, लेड, जिंक, सल्फेड, कलर, सीओडी, एसओ4, क्लोराइड, वालेटाइल, फैटी एसिड, क्रोमियम-6, फैडमियम, गुजरात में टोटल क्रोमियम, आर्सेनिक, कैडमियम, लेड मर्करी, जिंक, वालेटाइल, ऑर्गेनिक कंपाउंड, एरोमेटिक हाइड्रोकार्बन्स, बीटेक्ट, साइनाइड, फिनाइल्स, आर्गेनिक्स, राजस्थान में इनऑर्गेनिक साल्ड, आर्गेनिक, क्रोमियम-6, छत्तीसगढ़ मे ंलेड, आर्सेनिक, मर्करी, पॉलीक्लोरिनेटेड, बाईफेनिल्स, साइनाइड, फ्लोराइड, पभ्एएच, टीपीएच, वोओसी, पीसीबी, उत्तरप्रदेश में हेक्सावेलेंट, क्रोमियम, क्रोमियम-6, क्रोमियम टोटल, जिंक, भारी धातु, कीटनाशक (अल्फा, बीटा, गामा, डेल्टा एचसीएच), कीटनाशक (आइसोमर्स ऑफ एचसीएच) लेड, कैडमियम, नाइट्रेट सल्फेड, फ्लोराइड आदि रसायन तेजी से बड़ रहे हैं। जानकारों का कहना है कि इन राज्यों के बीच में मप्र के होने के कारण यहां की जमीन, पानी और हवा में इन रसायनों का स्तर तेजी से बढ़ रहा है। इस कारण कई तरह की बीमारियां फैलने की आशंका बढ़ गई है। जबकि सरकारों द्वारा इन रसायनों को रोकने के कोई प्रयास नहीं किए गए हैं।
- रजनीकांत पारे