11-Nov-2014 06:12 AM
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सभी प्रकार की पूजाओं में नवग्रह पूजन का विशेष महत्त्व है। यज्ञानुष्ठान की क्रिया नवग्रह स्थापना के बिना अपूर्ण ही रहती है क्योंकि यज्ञरक्षा नवग्रहों द्वारा ही होती है। अत: रक्षा-विधान के लिए शास्त्रीय आदेश है कि गणोश, सरस्वती, क्षेत्रपाल की स्थापना के साथ-साथ नवग्रहों की भी स्थापना करनी चाहिए।
सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु एवं केतु को नवग्रह कहते हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सूर्य-चंद्रमा को नक्षत्रों का स्वामी, मंगल को पृथ्वी पुत्र, बुध को चंद्रमा का पुत्र, बृहस्पति को देव गुरु, शुक्र को दैत्य गुरु, शनि को सूर्य पुत्र एवं राहु-केतु को पृथ्वी का छाया पुत्र माना गया है। भारतीय संस्कृति में नवग्रह-उपासना का उतना ही महत्त्व है, जितना कि भगवान विष्णु, शिव तथा अन्य देवोपासना का है। जन्म से लेकर उपनयन, विवाह आदि संस्कारों में नवग्रह पूजन का विशेष महत्त्व है।
यज्ञानुष्ठान की क्रिया नवग्रह स्थापना के बिना अपूर्ण ही रहती है क्योंकि यज्ञरक्षा नवग्रहों द्वारा ही होती है। अत: रक्षा-विधान के लिए शास्त्रीय आदेश है कि गणेश, सरस्वती, क्षेत्रपाल की स्थापना के साथ-साथ नवग्रहों की भी स्थापना करनी चाहिए और उन्हें पूजन करके प्रणाम करना चाहिए। जीवन के संपूर्ण सुख-दुख, लाभ-हानि और जय-पराजय आदि जैसे सभी विषय इन नवग्रहों पर आधारित होते हैं। इसका कारण 27 नक्षत्रों और 12 राशियों पर ये ग्रह भ्रमण करते रहते हैं, जिससे ऋतुएं, वर्ष, मास और दिन-रात बनते हैं। नवग्रह अपनी-अपनी गति के अनुरूप मंद अथवा तीव्र चाल से एक-एक राशि को पार करते रहते हैं। जब ये सप्तग्रह सूर्य के समीप अंशों में एक ही राशि पर होते हैं तो अस्त माने जाते हैं। इन राशियों के नाम मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ व मीन हैं।
नाम के अनुसार इन्हीं राशियों पर स्थित ग्रहों की चाल देखकर बताया जाता है कि अमुक व्यक्ति के लिए अमुक समय कैसा है। इसे ही जानने के लिए बारह राशियों हेतु नवग्रहों को इनका स्वामी चुना गया है। मेष व वृश्चिक राशि का स्वामी-मंगल, वृष व तुला राशि का स्वामी-शुक्र, मिथुन व कन्या राशि का स्वामी-बुध, कर्क राशि का स्वामी-चंद्रमा, सिंह राशि का स्वामी-सूर्य, धनु व मीन राशि का स्वामी- गुरु और मकर व कुंभ राशि का स्वामी-शनि को माना गया है। जन्म कुंडली या वर्ष कुंडली में कौन सा ग्रह किस स्थान में बैठा है, उसका फल क्या मिलेगा? उसी अनुसार उस ग्रह की शांति के लिए पाठ-जप करना, रत्न धारण करना व वस्तुओं का दान करना चाहिए, तभी फल प्राप्त होगा।
ग्रह प्रभाव और रोग
अग्नि, पृथ्वी, जल, आकाश और वायु इन्हीं पांच तत्वों से यह नश्वर शरीर निर्मित हुआ है। यही पांच तत्व 360 की राशियों का समूह है। इन्हीं में मेष, सिंह और धनु अग्नि तत्व, वृष, कन्या और मकर पृथ्वी तत्व, मिथुन, तुला और कुंभ वायु तत्व तथा कर्क, वृश्चिक और मीन जल तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं। कालपुरुष की कुंडली में मेष का स्थान मस्तक, वृष का मुख, मिथुन का कंधे और छाती तथा कर्क का हृदय पर निवास है जबकि सिंह का उदर (पेट), कन्या का कमर, तुला का पेडू और वृश्चिक राशि का निवास लिंग प्रदेश है। धनु राशि तथा मीन का पगतल और अंगुलियों पर वास है।
कोई भी ग्रह जब भ्रमण करते हुए संवेदनशील राशियों के अंगों से होकर गुजरता है, तो वह उन अंगों को नुकसान पहुंचाता है। सिंह राशि कालपुरुष की कुंडली में हृदय, पेट (उदर) के क्षेत्र पर वास करती है तो इन लग्नों में पैदा लोगों को हृदयघात और पेट से संबंधित बीमारियों का खतरा बना रहेगा। इसी प्रकार कुंडली में यदि सूर्य के साथ पापग्रह शनि या राहु आदि बैठे हों, तो जातक में विटामिन ए की कमी रहती है। साथ ही विटामिन सी की कमी रहती है, जिससे आंखें और हड्डियों की बीमारी का भय रहता है।
चंद्र और शुक्र के साथ जब भी पाप ग्रहों का संबंध होगा तो जलीय रोग जैसे शुगर, मूत्र विकार और स्नायुमंडल जनित बीमारियां होती है। मंगल शरीर में रक्त का स्वामी है। यदि ये नीच राशिगत, शनि और अन्य पाप ग्रहों से ग्रसित हैं तो व्यक्ति को रक्तविकार और कैंसर जैसी बीमारियां होती हैं। यदि इनके साथ चंद्रमा भी हो जाए तो महिलाओं को माहवारी की समस्या रहती है जबकि बुध का कुंडली में अशुभ प्रभाव चर्मरोग देता है।
चंद्रमा का पापयुक्त होना और शुक्र का संबंध व्यसनी एवं गुप्त रोगी बनाता है। शनि का संबंध हो तो नशाखोरी की लत पड़ती है। इसलिए कुंडली में बैठे ग्रहों का विवेचन करके आप अपने शरीर को निरोगी रख सकते हैं। किंतु इसके लिए सच्चरित्रता आवश्यक है। आरंभ से ही नकारात्मक ग्रहों के प्रभाव को ध्यान में रखकर आप अपने भविष्य को सुखद बना सकते हैं।