04-Oct-2014 07:03 AM
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भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में मैसूर दशहरा प्रसिद्ध है। मैसूर में छह सौ सालों से अधिक पुरानी परंपरा वाला यह पर्व ऐतिहासिक दृष्टि से तो महत्वपूर्ण है ही कला, संस्कृति और आनंद का अद्भुत

सामंजस्य भी है महालया से दशहरे तक इस नगर की फूलों, दीपों एवं विद्युत बल्बों से सुसज्जित शोभा देखने लायक होती है। दशहरा उत्सवÓ का प्रारंभ मैसूर में चामुंडी पहाडिय़ों पर विराजने वाली देवी चामुंडेश्वरी के मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना और दीप प्रज्ज्वलन के साथ होता है। इस उत्सव में मैसूर महल को 97 हजार विद्युत बल्बों तथा 1.63 लाख विद्युत बल्बों से चामुंडी पहाडिय़ों को सजाया जाता है। पूरा शहर भी रोशनी से जगमगा उठता है। जगनमोहन पैलेस, जयलक्ष्मी विलास एवं ललिता महल का अद्भुत सौंदर्य देखते ही बनता है। पारंपरिक उत्साह एवं धूमधाम के साथ 10 दिनों तक मनाया जाने वाला यह उत्सव देवी दुर्गा (चामुंडेश्वरी) द्वारा महिषासुर के वध का प्रतीक है। यानी यह बुराई पर अच्छाई, तमोगुण पर सत्गुण, दुराचार पर सदाचार या दुष्कर्मों पर सत्कर्मों की जीत का पर्व है। इस उत्सव में मां की भक्ति में सराबोर किया जाता है। शहर की अद्भुत सजावट एवं माहौल को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो स्वर्ग से सभी देवी-देवता मैसूर की ओर प्रस्थान कर गए हैं।
बस्तर में दशहरे की शान
समय के साथ भले ही बस्तर के प्रसिद्ध दशहरा पर्व के आयोजन की भव्यता में कुछ कमी आई है, लेकिन आज भी यह जन आस्था और आदिवासी संस्कृति की आन, बान और शान का प्रतीक बना हुआ है। रियासतों के दौर में बस्तर दशहरा की धूम देखने लायक होती थी। वक्त बदला लेकिन इस त्यौहार से जुड़ी लोगों की भावना वैसी ही रही। यही वजह है कि आज भी दशहरे पर यहाँ जन आस्था का सैलाब उमड़ पड़ता है। समय परिवर्तन के साथ ही बस्तर दशहरा के आयोजक राजा के स्थान पर राजनेता हो गए। पर्व के आयोजन के लिए बस्तर दशहरा समिति का गठन किया जाता है। इस समिति में भले ही अलग राजनीतिक दल के लोग शामिल होते हैं लेकिन बस्तर की आराध्य देवी माई दंतेश्वरी के प्रति सभी की अगाथ श्रद्धा में कोई कमी नहीं होती है। दरअसल यह त्यौहार माई दंतेश्वरी देवी को ही समर्पित होता है। इस पर्व का मुख्य आकर्षण होता है माई दंतेश्वरी देवी का विशाल दुमंजिला रथ जिसे बलशाली माडिया जाति के आदिवासी युवक एकसाथ मिल कर खींचतें हैं। आदिवासी मावली परघाव की रस्म भी खूब धूमधाम से मनाते हैं। मावली परघाव का अर्थ स्वागत होता है।
कोटा का दशहरा
कोटा के दशहरे मेले की गिनती राष्ट्रीय मेले के रूप में की जाती है। इस दशहरे मेले को आकर्षक बनाने का क्रम सन 1892 से शुरू हुआ। महाराव उम्मेद सिंह द्वितीय के शासन कल में यह मेला अपने पूर्ण यौवन पर आया। तीन दिन चलने वाला मेला एक सप्ताह का हो गया। बाहर के व्यापारी भी आने लगे। सन् 1921 में नगर पालिका ने मेले का कार्यभार सम्हाल लिया। पंचमी के दिन से मेला भरने लगता, पूरे देश के व्यापारी आते, पशु मेला भी व्यापक स्टार पर लगने लगा। अष्टमी के दिन महाराव साहेब जहाँ कुल देवी आशापुरा देवी का पूजन करते तो नवमी के दिन आशापुरा देवी के खांडा एक प्रकार का शस्त्र रखने जाते थे। दरी खाने में रावण से युद्ध करने पर विचार होता, तोपें चलायी जाती। विजय दशमी के दिन रावण वध की सवारी निकलती। कई तोपें चलतीं, रावण पर महाराव साहेब तीर चलाते। उस समय रावण का सिर 80 मन लकडिय़ों को लेकर बनाया जाता था। रावण और उसके परिवार की प्रतिमाएं बनवाई जाती थीं। अब कोटा के इस मेले का रूप आधुनिक हो गया है। आज भी यह मेला अपने आप में विशिष्ट है। यह मेला पूरे 20 दिन तक चलता है।
कुल्लू का दशहरा
भारत में यूँ तो कई जगह दशहरे का पर्व अलग अंदाज में मनाया जाता है परंतु हिमाचल प्रदेश के कुल्लू का दशहरा इन सबसे अलग पहचान रखता है। यहाँ का दशहरा एक दिन का नहीं बल्कि सात दिन का त्यौहार है। जब देश में लोग दशहरा मना चुके होते हैं तब कुल्लू का दशहरा शुरू होता है। यहाँ इस त्यौहार को दशमी कहते हैं। हिन्दी कैलेंडर के अनुसार आश्विन महीने की दसवीं तारीख को इसकी शुरुआत होती है। इसकी एक और खासियत यह है कि जहाँ सब जगह रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण का पुतला जलाया जाता है, कुल्लू में काम, क्रोध, मोह और अहंकार के नाश के प्रतीक के तौर पर पाँच जानवरों की बलि दी जाती है। कुल्लू के दशहरे का सीधा संबंध रामायण से नहीं जुड़ा है। बल्कि इसकी कहानी एक राजा से जुड़ी है।