04-Oct-2014 07:00 AM
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सभी 52 शक्तिपीठों में आदिशक्ति का मूर्ति स्वरूप नहीं है, इन पीठों में पिंडियों की आराधना की जाती है। साथ ही सभी पीठों में शिव रूद्र भैरव के रूपों की भी पूजा होती है। इन पीठों में कुछ तंत्र

साधना के मुख्य केंद्र हैं। मूलत: साधना के चार प्रकार माने जा सकते हैं- तंत्र साधना, मंत्र साधना, यंत्र साधना और योग साधना। तीनों ही तरह की साधना के कई उप प्रकार हैं। तांत्रिक साधना दो प्रकार की होती है- एक वाम मार्गी तथा दूसरी दक्षिण मार्गी। वाम मार्गी साधना बेहद कठिन है। वाम मार्गी तंत्र साधना में 6 प्रकार के कर्म बताए गए हैं जिन्हें षट् कर्म कहते हैं।
शांति, वक्ष्य, स्तम्भनानि,
विद्वेषणोच्चाटने तथा।
गोरणों तनिसति षट कर्माणि मणोषण:॥
अर्थात शांति कर्म, वशीकरण, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन, मारण ये छ: तांत्रिक षट् कर्म। इसके अलावा नौ प्रयोगों
का वर्णन मिलता है:-
मारण मोहनं स्तम्भनं विद्वेषोच्चाटनं वशम?।
आकर्षण यक्षिणी चारसासनं कर
त्रिया तथा॥
मारण, मोहनं, स्तम्भनं, विद्वेषण, उच्चाटन, वशीकरण, आकर्षण, यक्षिणी साधना, रसायन क्रिया तंत्र के ये 9 प्रयोग हैं।
रोग कृत्वा गृहादीनां निराण शन्तिर किता।
विश्वं जानानां सर्वेषां निधयेत्व मुदीरिताम्?॥
जिससे रोग, कुकृत्य और ग्रह आदि की शांति होती है, उसको शांति कर्म कहा जाता है और जिस कर्म से सब प्राणियों को वश में किया जाए, उसको वशीकरण प्रयोग कहते हैं तथा जिससे प्राणियों की प्रवृत्ति रोक दी जाए, उसको स्तम्भन कहते हैं तथा दो प्राणियों की परस्पर प्रीति को छुड़ा देने वाला नाम विद्वेषण है और जिस कर्म से किसी प्राणी को देश आदि से पृथक कर दिया जाए, उसको उच्चाटन प्रयोग कहते हैं तथा जिस कर्म से प्राण हरण किया जाए, उसको मारण कर्म कहते हैं।
श्रीलंका में लंका, तिब्बत में मानस और नेपाल में गण्डकी शक्तिपीठ हैं। गण्डकी पीठ को मुक्तिदायिनी माना गया है। पाकिस्तान के बलूचिस्तान में हिंगलाज शक्तिपीठ 52 पीठों में सबसे दुर्गम पीठ है। जहां पहुंचना आज भी मुश्किल है। बांग्लादेश में सुगंधा, करतोयाघाट, चट्टल और यशोरेश्वरी शक्तिपीठ हैं। इनमें करतोयाघाट प्रमुख पीठ मानी गई है। देवी भागवत में जहां 108 और देवी गीता में 72 शक्तिपीठों का जिक्र है। तंत्र चूड़ामणि में 52 शक्तिपीठ बताए गए हैं। तंत्र, मंत्र और यंत्र हिन्दू धर्म की प्राचीन विधायें हैं। तंत्र का पदार्थ विज्ञान, रसायन शास्त्र, आर्युर्वेद, ज्योतिष एवं ध्यानयोग आदि विधाओं से गहरा संबंध है। इन सबों में इसका विशेष और बुनियादी संबन्ध हैं। ये एक दूसरे के पूरक भी हैं। तंत्र की प्रयोगशाला हमारा शरीर है। तंत्र का उद्देश्य है शरीर में विद्यमान शक्ति केंद्रों को जागृत कर विशिष्ट कार्यों को सिद्ध करना। तंत्र का आरंभिक अर्थ एवं अंतिम लक्ष्य महंत प्रकाश नाथ तंत्र अभ्यास और व्यवहारिक ज्ञान का शास्त्र है और तंत्र शब्द अपने आप में महत्वपूर्ण और गौरवमय है। तंत्र शब्द तनÓ इस मूल धातु से बना है, अत: तंत्र का विकास अर्थ में प्रयोग किया जाता है। आज के युग में हमारे पास इतना समय नहीं हैं, कि हम बार-बार हाथ जोड़े, बार-बार घी के दिए जलाएं, बार-बार भोग लगायें, लक्ष्मी की आरती उतारते रहे और बीसों साल दरिद्री बने रहे, इसलिए तंत्र ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, कि लक्ष्मी बाध्य हो ही जायें और कम से कम समय में सफलता मिले! बड़े ही व्यवस्थित तरीके से मंत्र और साधना करने की क्रिया तंत्र हैं! किस ढंग से मंत्र का प्रयोग किया जायें, साधना को पूर्णता दी जायें, उस क्रिया का नाम तंत्र हैं! और तंत्र साधना में यदि कोई न्यूनता रह जायें, तो यह तो हो सकता हैं, कि सफलता नहीं मिले परन्तु कोई विपरीत परिणाम नहीं मिलता! तंत्र के माध्यम से कोई भी गृहस्थ वह सब कुछ हस्तगत कर सकता हैं, जो उसके जीवन का लक्ष्य हैं! तंत्र तो अपने आप में अत्यंत सौम्य साधना का प्रकार हैं, पंचमकार तो उसमें आवश्यक हैं ही नहीं! बल्कि इससे परे हटकर जो पूर्ण पवित्रमय सात्विक तरीके, हर प्रकार के व्यसनों से दूर रहता हुआ साधना करता हैं तो वह तंत्र साधना हैं!