05-Sep-2014 07:18 AM
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असक्तबुद्धि: सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृह:।
नैष्कम्र्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति।।

सच्चे संन्यास का अर्थ है कि मनुष्य सदा अपने को परमेश्वर का अंश मानकर यह सोचे कि उसे अपने कार्य के फल को भोगने का कोई अधिकार नहीं है। चूँकि वह परमेश्वर का अंश है, अतएव उसके कार्य का फल परमेश्वर द्वारा भोगा जाना चाहिए, यही वास्तव में कृष्णभावनामृत है। जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में स्थित होकर कर्म करता है, वही वास्तव में संन्यासी है। ऐसी मनोवृत्ति होने से मनुष्य संतुष्ट रहता है क्योंकि वह वास्तव में भगवान के लिए कार्य कर रहा होता है। इस प्रकार वह किसी भी भौतिक वस्तु के लिए आसक्त नहीं होता, वह भगवान की सेवा से प्राप्त दिव्य सुख से परे किसी भी वस्तु में आनन्द न लेने का आदी हो जाता है। संन्यासी को पूर्व कार्यकलापों के बन्धन से मुक्त माना जाता है, लेकिन जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में होता है वह बिना संन्यास ग्रहण किए ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है। यह मनोदशा योगारूढ़ या योग की सिद्धावस्था कहलाती है। जैसा कि तृतीय अध्याय में पुष्टि हुई है- यस्त्वात्मरतिरेव स्यात्- जो व्यक्ति अपने में संतुष्ट रहता है, उसे अपने कर्म से किसी प्रकार के बंधन का भय नहीं रह जाता।
विपदा का उपाय पहले से करें
अनागतविधाता च प्रत्युत्पन्नमतिस्तथा।
द्वावेते सुखमेधेते यद्भविष्यो विनश्यति।।
ये दोनों- अनागत विधाता-सम्भावित संकट के आने से पूर्व उसकी निवृत्ति के उपाय की चिंता करने वाला, अर्थात् समय से पूर्व जागने वाला तथा प्रत्युत्पन्नमति-संकट के उपस्थित होने पर अपने संतुलन बनाए रखकर संकट से निवृत्ति के उपाय को सोचने वाला व्यक्ति-सुखी रहते हैं, किंतु इनके विपरीत यद्भविष्य- जो होगा, देखा जाएगा- ऐसी धारणा रखने वाला, अर्थात् भाग्य के भरोसे किसी प्रकार का सोच-विचार अथवा उद्यम न करने वाला व्यक्ति दु:ख-कष्ट को सहता-झेलता है। अभिप्राय यह है कि भाग्य के सहारे रहना तथा दूसरे की दया पर निर्भर होकर स्वयं किसी प्रकार का श्रम न करना कदापि उचित नहीं।
भाग्य की प्रबलता और भावी की अवश्यंभाविता को स्वीकार करते हुए भी उद्यम की महत्ता कम नहीं हो जाती। प्रयत्न करने से भावी को अभावी भले न किया जा सकता हो, परन्तु उसकी तीव्रता को अवश्य कम किया जा सकता है, अत: संकट आने पर अपनी ओर से उद्धार का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए।