20-Aug-2014 10:15 AM
1235068
जीना उसी का, जो
दूसरों के लिए जियेजीवन्तं मृतवन्मन्ये देहिनं धर्मवर्जितम्।

मृतो धर्मेण संयुक्तो दीर्घजीवी न संशय:।।
धर्म-रहित (पतित) व्यक्ति के जीवित होने पर भी उसे मरा हुआ ही समझना चाहिए; क्योंकि ऐसा व्यक्ति पृथ्वी पर भार-रूप होता है। वह न तो अपने लिए उपयोगी होता है और न ही समाज के लिए उपयोगी होता है। ऐसा व्यक्ति जीवित रहकर अन्न का विनाश ही करता है।
इसके विपरीत, अपने कर्तव्य-कर्म-रूपी धर्म का पालन करने वाला बनने पर अपने शुभकर्मों के कारण लोगों के मन में अमर हो जाता है। वह अपने यश-शरीर से बहुत समय तक अमर बना रहता है।
इसीलिए कहा जाता है-
जीना भला उसी का, जो दूसरों के लिए जिये। मर चुका है वह, जो जीता है अपने लिए। अभिप्राय यह है कि संसार में अपना यश छोड़ जाने के लिए शुभकर्मों के अनुष्ठान में ही जीवन बिताना चाहिए।
लुब्धमर्थेन गृह्वीयात् स्तब्धमञ्जलि कर्मणा।
मूर्खं छन्दोऽनुवृत्त्या च यथार्थत्वेन पण्डितम्।।12।।
बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिए कि, लोभी पुरुष को धन का प्रलोभन देकर अपने वश में कर लेना चाहिए, अहंकारी पुरुष के अहम् को सन्तुष्ट करने के लिए उसके प्रति विनम्र हो जाना चाहिए।
मूर्ख पुरुष को अपने वश में करने के लिए उसके मनोरथ को जानकर - धन चाहता है, सम्मान चाहता है अथवा चाटुकारिता चाहता है आदि तथा उसे पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। विद्वान् एवं विवेकशील के प्रति यथोचित सम्मान का प्रदर्शन करके उसे अपने अनुकूल बनाना चाहिए। अभिप्राय यह है कि सभी को अपने अनुकूल बनाने के लिए एक जैसा उपाय अथवा साधन उपयोगी सिद्ध नहीं होता। प्रत्येक की दुर्बलता का अध्ययन करके उसके साथ यथायोग्य व्यवहार करके उसे अपने वश में करना चाहिए। लोभी को धन से, अहंकारी को उसके अहम् को सन्तुष्ट करके, मूर्ख को उसके मनोऽनुकूल व्यवहार द्वारा तथा पण्डित के प्रति उचित सम्मान दिखाकर उन्हें अपने अनुकूल बनाना चाहिए।
लोभी धन का भूखा होता है, अहंकारी झूठी ऐंठन में रहता है, मूर्ख का कोई भरोसा नहीं होता और पण्डित दूसरों से लोकमर्यादा के पालन की आशा करता है।
इस पेट में न सही, उस पेट में ही सही
भ्रमण एवं भाषणों से थके हुए स्वामी विवेकानंद अपने निवास स्थान पर लौटे। उन दिनों वे अमेरिका में एक महिला के यहां ठहरे हुए थे। वे अपने हाथों से भोजन बनाते थे। एक दिन वे भोजन की तैयारी कर रहे थे कि कुछ बच्चे पास आकर खड़े हो गए। उनके पास सामान्यतया बच्चों का आना-जाना लगा ही रहता था। बच्चे भूखे थे। स्वामीजी ने अपनी सारी रोटियां एक-एक कर बच्चों में बांट दी। महिला वहीं बैठी सब देख रही थी। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। आखिर उससे रहा नहीं गया और उसने स्वामीजी से पूछ ही लिया- आपने सारी रोटियां उन बच्चों को दे डाली, अब आप क्या खाएंगे?
स्वामीजी के अधरों पर मुस्कान दौड़ गई। उन्होंने प्रसन्न होकर कहा- मां, रोटी तो पेट की ज्वाला शांत करने वाली वस्तु है। इस पेट में न सही, उस पेट में ही सही। देने का आनंद पाने के आनंद से बड़ा होता है।
-AKS Bureau