31-Jul-2014 10:30 AM
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हिन्दू कैलेण्डर के बारह मासों में से सावन का महीना अपनी विशेष पहचान रखता है। इस माह में चारों ओर हरियाली छाई रहती है। ऐसा लगता है मानों प्रकृति में एक नई जान आ गई है। वेदों में

मानव तथा प्रकृति का बड़ा ही गहरा संबंध बताया गया है। वेदों में लिखी बातों का अर्थ है कि बारिश में ब्राह्मण वेद पाठ तथा धर्म ग्रंथों का अध्ययन करते हैं। इन मंत्रों को पढऩे से व्यक्ति को सुख तथा शांति मिलती है। सावन में बारिश होती है। इस बारिश में अनेक प्रकार के जीव-जंतु बाहर निकलकर आते हैं। यह सभी जन्तु विभिन्न प्रकार की आवाजें निकालते हैं। उस समय वातावरण ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने अपना मौन व्रत तोड़कर अभी बोलना आरम्भ किया हो। जीव-जन्तुओं की भाषा का वर्णन इस प्रकार किया गया है कि जिस प्रकार बारिश होने पर जीव-जन्तु बोलने लगते हैं उसी प्रकार व्यक्ति को सावन के महीने से शुरु होने वाले चौमासों(चार मास) में ईश्वर की भक्ति के लिए धर्म ग्रंथों का पाठ सुनना चाहिए। धर्मिक दृष्टि से समस्त प्रकृति ही शिव का रुप है। इस कारण प्रकृति की पूजा के रुप में इस माह में शिव की पूजा विशेष रुप से की जाती है। सावन के महीने में वर्षा अत्यधिक होती है। इस माह में चारों ओर जल की मात्रा अधिक होने से शिव का जलाभिषेक किया जाता है।
शिव पूजन क्यों किया जाता है
प्राचीन ग्रंथों के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान समुद्र से विष निकला था। इस विष को पीने के लिए शिव भगवान आगे आए और उन्होंने विषपान कर लिया। जिस माह में शिवजी ने विष पिया था वह सावन का माह था। विष पीने के बाद शिवजी के तन में ताप बढ़ गया। सभी देवी - देवताओं और शिव के भक्तों ने उनको शीतलता प्रदान की लेकिन शिवजी भगवान को शीतलता नहीं मिली। शीतलता पाने के लिए भोलेनाथ ने चन्द्रमा को अपने सिर पर धारण किया। इससे उन्हें शीतलता मिल गई। ऐसी मान्यता भी है कि शिवजी के विषपान से उत्पन्न ताप को शीतलता प्रदान करने के लिए मेघराज इन्द्र ने भी बहुत वर्षा की थी। इससे भगवान शिव को बहुत शांति मिली। इसी घटना के बाद सावन का महीना भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए मनाया जाता है। सारा सावन, विशेष रुप से सोमवार को, भगवान शिव को जल अर्पित किया जाता है। महाशिवरात्रि के बाद पूरे वर्ष में यह दूसरा अवसर होता है जब भग्वान शिव की पूजा बड़े ही धूमधाम से मनाई जाती है।
सोमवार व्रत का महत्व
ज्योतिष विज्ञान के मुताबिक यह दिन कुण्डली में चंद्र ग्रह के बुरे योग से जीवन में आ रही बाधाओं को दूर करने के लिए भी अहम है। दरअसल, चंद्र मानव जीवन और प्रकृति पर असर डालता है और चंद्र के बुरे प्रभाव को कम करने के लिए ही सोमवार को चंद्र पूजा और व्रत का महत्व बताया गया है। विज्ञान के मुताबिक पृथ्वी समेत अन्य सभी ग्रह सूर्य के चक्कर लगाते हैं। वहीं चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करता है, क्योंकि वह ग्रह न होकर एक उपग्रह है। व्यावहारिक जीवन में भी हम देखते हैं कि चन्द्रमा मानव जीवन के साथ-साथ साथ-साथ पूरे जगत पर ही प्रभाव डालता है। इसका प्रमाण है पूर्णिमा की रात जब चन्द्रमा पूर्ण आकार में दिखाई देता है, तब समुद्र में आता है ज्वार। वहीं जब अमावस्या के आस-पास चन्द्रमा अदृश्य होता है, तब समुद्र पूरी तरह शांत रहता है। इस प्रकार आकाश में चन्द्रमा के आकार घटने-बढने के साथ-साथ पानी और अन्य तरल पदाथों में हलचल भी कम-ज्यादा होने लगती है। ज्योतिष विज्ञान कहता है कि चन्द्रमा हमारी पृथ्वी के सबसे नजदीक है और अपनी निकटता के कारण ही हमारे जीवन के हर कार्य व्यवहार पर सबसे अधिक असर डालता है। यही वजह है कि जिन लोगों में जल तत्व की प्रधानता होती है, वे पूर्णिमा के आस-पास अधिक आक्रामक, क्रोधित और उद्दण्ड बने रहते हैं। जबकि अमावस्या के आस-पास एकदम शांत और गंभीर देखे जाते हैं। खासतौर पर जलतत्व राशि जैसे मीन, कर्क, वृश्चिक वाले स्त्री-पुरूषों को सोमवार का व्रत और चन्द्रदेव का पूजन तो जरूर करना ही चाहिए। मानसिक शांति, मन की चंचलता को रोकने और दिमाग को संतुलित रखने के लिए तो चन्द्रदेव के निमित्त किए जाने वाला सोमवार का व्रत ही श्रेष्ठ उपाय है।
चंद्रदोष शांत के लिए स्फटिक की माला पहनना तथा मोती का धारण करना शुभ होता है। सावन मास में आशुतोष भगवान शंकर की पूजा का विशेष महत्व है। सोमवार शंकर जी का प्रिय दिन है। इसलिए श्रावण सोमवार का महत्व और भी बढ़ जाता है। इस महीने प्रत्येक सोमवार भगवान शिव का व्रत करने से मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। इस मास में लघुरूद्र, महारूद्र अथवा अतिरूद्र पाठ करके प्रत्येक सोमवार को शिवजी का व्रत करना चाहिए।
सावन माह की विशेषता
हिन्दु धर्म के अनुसार सावन के पूरे माह में भगवान शंकर का पूजन किया जाता है। इस माह को भोलेनाथ का माह माना जाता है। भगवान शिव का माह मानने के पीछे एक पौराणिक कथा है। इस कथा के अनुसार देवी सती ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति से अपने शरीर का त्याग कर दिया था। अपने शरीर का त्याग करने से पूर्व देवी ने महादेव को हर जन्म में पति के रुप में पाने का प्रण किया था। अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती के नाम से हिमालय और रानी मैना के घर में जन्म लिया। इस जन्म में देवी पार्वती ने युवावस्था में सावन के माह में निराहार रहकर कठोर व्रत किया। यह व्रत उन्होंने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए किए। भगवान शिव पार्वती से प्रसन्न हुए और बाद में यह व्रत सावन के माह में विशेष रुप से रखे जाने लगे।