15-Jul-2014 10:23 AM
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बुद्धिज्र्ञानमसम्मोह: क्षमा सत्यं दम: शम:।
सुखं दु:खं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च।।
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयश:।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधा:।।

बुद्धि का अर्थ है नीर-क्षीर विवेक करने वाली शक्ति, और ज्ञान का अर्थ है, आत्मा तथा पदार्थ को जान लेना। विश्वविद्यालय की शिक्षा से प्राप्त ज्ञान मात्र पदार्थ से सम्बन्धित होता है, यहाँ इसे ज्ञान नहीं स्वीकार किया गया है। ज्ञान का अर्थ है आत्मा तथा भौतिक पदार्थ के अन्तर को जानना। आधुनिक शिक्षा में आत्मा के विषय में कोई ज्ञान नहीं दिया जाता, केवल भौतिक तत्वों तथा शारीरिक आवश्यकताओं पर ध्यान दिया जाता है। फलस्वरूप शैक्षिक ज्ञान पूर्ण नहीं है।
असम्मोह अर्थात् संशय तथा मोह से मुक्ति तभी प्राप्त हो सकती है, जब मनुष्य झिझकता नहीं और दिव्य दर्शन को समझता है। वह धीरे-धीरे निश्चित रूप से मोह से मुक्त हो जाता है। हर बात को सतर्कतापूर्वक ग्रहण करना चाहिए, आँख मँूदकर कुछ भी स्वीकार नहीं करना चाहिए। क्षमा का अभ्यास करना चाहिए। मनुष्य को सहिष्णु होना चाहिए और दूसरों के छोटे-छोटे अपराध क्षमा कर देना चाहिए। सत्यम् का अर्थ है कि तथ्यों को सही रूप में अन्यों के लाभ के लिए प्रस्तुत किया जाए तथ्यों को तोडऩा मरोडऩा नहीं चाहिए। सामाजिक प्रथा के अनुसार कहा जाता है कि वही सत्य बोलना चाहिए, जो अन्यों को प्रिय लगे। किन्तु यह सत्य नहीं है। सत्य को सही-सही रूप में बोलना चाहिए, जिससे दूसरे लोग समझ सकें कि सच्चाई क्या है।
दम: का अर्थ है कि इन्द्रियों को व्यर्थ के विषयभोग में न लगाया जाए। इन्द्रियों की समुचित आवश्यकताओं की पूर्ति का निषेध नहीं है, किन्तु अनावश्यक इन्द्रियभोग आध्यात्मिक उन्नति में बाधक है। फलत: इन्द्रियों के अनावश्यक उपयोग पर नियन्त्रण रखना चाहिए। इसी प्रकार मन पर भी अनावश्यक विचारों के विरूद्ध संयम रखना चाहिए। इसे शम कहते हैं। मनुष्य को चाहिए कि धन-अर्जन के चिन्तन मेें ही सारा समय न गँवाये। यह चिन्तन शक्ति का दुरुपयोग है। मन का उपयोग मनुष्यों की मूल आवश्यकताओं को समझने के लिए किया जाना चाहिए और उसे
ही प्रमाणपूर्वक प्रस्तुत करना चाहिए। शास्त्रमर्मज्ञों, साधुपुरुषों, गुरुओं तथा महान विचारकों की
संगति में रहकर विचार-शक्ति का विकास करना चाहिए। जिस प्रकार से कृष्णभावनामृत के आध्यात्मिक ज्ञान के अनुशीलन में सुविधा हो
वही सुखम् है। इसी प्रकार दु:खम् वह है
जिससे कृष्णभवनामृत के अनुशीलन में असुविधा हो। जो कुछ कृष्णभावनामृत के विकास के अनुकूल हो, उसे स्वीकार करें और जो प्रतिकूल हो उसका परित्याग करें।
भव अर्थात् जन्म का सम्बन्ध शरीर से है। जहाँ तक आत्मा का प्रश्र है, वह न तो उत्पन्न होता है न मरता है। जन्म तथा मृत्यु का संबंध इस भौतिक जगत् में शरीर धारण करने से है। भय तो भविष्य की चिन्ता से उद्भूत है। कृष्णभावनामृत में रहने वाला व्यक्ति कभी भयभीत नहीं होता, क्योंकि वह अपने कर्मों के द्वारा भगवद्धाम को वापस जाने के प्रति आश्वस्त रहता है। फलस्वरूप उसका भविष्य उज्जवल होता है। किन्तु अन्य लोग अपने भविष्य के विषय में कुछ नहीं जानते, उन्हें इसका कोई ज्ञान नहीं होता कि अगले जीवन में क्या होगा। फलस्वरूप वे निरन्तर चिन्ताग्रस्त रहते हैं। यदि हम चिन्तामुक्त होना चाहते हैं, तो सर्वोत्तम उपाय यह है कि हम कृष्ण को जानें तथा कृष्णभावनामृत में निरंतर स्थित रहें। इस प्रकार हम समस्त भय से मुक्त रहेंगे। श्रीमद्भागवत में (११.२.३७) कहा गया है- भयं द्वितीयाभिनिवेशत: स्यात्- भय तो हमारे मायापाश में फँस जाने से उत्पन्न होता है। किन्तु जो माया के जाल से मुक्त हैं, जो आश्वस्त हैं कि वे शरीर नहीं, अपितु भगवान् के आध्यात्मिक अंश हैं और जो भगवद्भक्ति में लगे हुए हैं, उन्हें कोई भय नहीं रहता।
अहिंसा का अर्थ होता है कि अन्यों को कष्ट न पहुँचाया जाये। अहिंसा का अर्थ है कि मनुष्यों को इस प्रकार से प्रशिक्षित किया जाए कि इस मानवदेह का पूरा-पूरा उपयोग हो सके। मानवदेह आत्म-साक्षात्कार के हेतु मिली है। अत: ऐसी कोई संस्था या संघ जिससे उद्देश्य की पूर्ति में प्रोत्साहन न हो, मानवदेह के प्रति हिंसा करने वाला है। जिससे मनुष्यों के भावी आध्यात्मिक सुख में वृद्धि हो, वही अहिंसा है।
समता से राग-द्वेष से मुक्ति द्योतित होती है। न तो अत्यधिक राग अच्छा होता है और न अत्यधिक द्वेष ही। इस भौतिक जगत् को राग-द्वेष से रहित होकर स्वीकार करना चाहिए। जो कुछ कृष्णभावनामृत को सम्पन्न करने में अनुकूल हो, उसे ग्रहण करें और जो प्रतिकूल हो उसका त्याग कर दें। यही समता है। कृष्णभावनामृत युक्त व्यक्ति को न तो कुछ ग्रहण करना होता है, न त्याग करना होता है। उसे तो कृष्णभावनामृत सम्पन्न करने में उसकी उपयोगिता से प्रयोजन रहता है।
तुष्टि का अर्थ है कि मनुष्य को चाहिए कि अनावश्यक कार्य करके अधिकाधिक वस्तुएं एकत्र करने के लिए उत्सुक न रहे। उसे तो ईश्वर की कृपा से जो प्राप्त हो जाए, उसी से प्रसन्न रहना चाहिए। यही तुष्टि है। तपस् का अर्थ है तपस्या। तपस्् के अन्तर्गत वेदों में वर्णित अनेक विधि-विधानों का पालन करना होता है-यथा प्रात:काल उठना और स्नान करना। कभी-कभी प्रात:काल उठना अति कष्टकारक होता है, किन्तु इस प्रकार स्वेच्छा से जो भी कष्ट सहे जाते हैं वे तपस् या तपस्या कहलाते हैं। इसी प्रकार मास के कुछ विशेष दिनों में उपवास रखने का भी विधान है।