02-Apr-2014 09:51 AM
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मध्यप्रदेश का तकनीकी शिक्षा विभाग डेपुटेशन पर चल रहा है। यहां अधिकारियों से लेकर व्याख्याताओं को डेपुटेशन पर आने का बेहद शौक है। आलम यह है कि जो व्यक्ति और अधिकारी जिस पद के योग्य नहीं है। उस पद पर भी

डेपुटेशन की मेहरबानी से विराजमान हैं। जो लोग 22 नए पॉलीटेक्निक कॉलेज में डेप्यूटेड हैं उन्हें हटाया नहीं गया है। डायरेक्टर खुद डेपुटेशन पर हैं जबकि उनका मूल पद प्राचार्य का है। डायरेक्ट्रेट में सभी आफिसर्स डेपुटेशन पर हैं। ्रकोई भी ऐसा व्यक्ति संचालनालय में तैनात नहीं है जो इंजीनियरिंग कॉलेज से संबद्ध हो। नियमत: इंजीनियरिंग कॉलेज के प्राचार्य को ही तकनीकी शिक्षा के डायरेक्टर के पद पर बिठाया जाना चाहिए पर यहां मामला दूसरा है। इस पद का सुख डेपुटेशन पर आए डायरेक्टर भोग रहे हैं।
मध्यप्रदेश में तकनीकी शिक्षा के विकास के लिए सरकार भरसक प्रयास कर रही है और प्राय: हर मौके पर सरकार द्वारा यह ढिंढोरा पीटा जाता है कि वह तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए वल्र्ड बैंक जैसी संस्थाओं से करोड़ों रुपए का कर्ज भी ले रही है। लेकिन सच्चाई तो यह है कि कॉलेजों में नियुक्तियां वल्र्ड बैंक के नियामकों के अनुसार नहीं है। पॉलीटेक्निक कॉलेज की स्थापना के लिए व्याख्याताओं की नियुक्ति पूर्णत: स्थायी होनी चाहिए, लेकिन सरकार ने इन नियुक्तियों को पूर्ण सरकारी न मानते हुए संविदा पर माना है जो कि विश्व बैंक के मानकों के अनुरूप नहीं है। वर्ष 2004 में कुछ नियम बनाकर सभी सरकारी व्याख्याताओं, प्राचार्यों और डायरेक्टर ने अपने आपको सुरक्षित कर लिया है। इस नियम के अनुसार सरकारी कर्मचारी अपनी संस्था में डेपुटेशन पर माना जाएगा और उसकी इच्छा से ही उसका तबादला हो सकता है। इस अनोखे नियम का फायदा इन्होंने यह उठाया कि कुछ समय पूर्व जब तबादले की लिस्ट निकली तो इन्होंने अपना तबादला रुकवा लिया। ये लोग वर्षों से एक ही जगह पर जमे हुए हैं। लोक सेवा आयोग संविदा नियुक्ति नहीं करता, लेकिन जो व्याख्याता वर्ष 2004 में बनाए गए नियम के तहत लोकसेवा आयोग से नियुक्त हुए हैं उन्हें संविदा नियुक्ति बताया जा रहा है। यदि ऐसा ही माना जाए तो भी संविदा नियुक्ति में तीन वर्ष बाद नियमितीकरण करने का प्रावधान है, लेकिन 7-7 वर्ष हो गए हैं, अभी भी 70 प्रतिशत कॉलेजों में विभिन्न पदों पर नियुक्त संविदा व्याख्याता, प्राचार्य इत्यादि नियमित नहीं हो पाए हैं। अराजकता का आलम यह है कि हर जगह प्राचार्य अपने हिसाब से नियमों को चला रहे हैं कोई सीपीएफ काटता है तो कोई एनपीएफ और किसी ने तो कुछ भी नहीं काटा है। हालांकि शासन की तरफ से पत्र निकला है कि यह नियुक्तियां संविदा न मानी जाएं। बल्कि इसे परवीक्षा अवधि मानी जाए। फिर भी कॉलेज में इन कर्मचारियों के नाम के आगे संविदा लगाकर उनका अपमान किया जा रहा है। इससे बहुत आर्थिक हानि भी हो रही है। उदाहरण के लिए वर्ष 2008 में नियुक्त इंजीनियरिंग कॉलेज के नियमित व्याख्याता का सीपीएफ उसकी नियुक्ति की दिनांक से काटने पर आज ब्याज सहित 5 लाख रुपए हो चुका है। किंतु उसी दिनांक पर उसी पद पर नियुक्त दूसरे व्याख्याता को कोई लाभ नहीं मिला क्योंकि वहां के प्राचार्य ने इस नियम को लागू ही नहीं किया और सीपीएफ अकाउंट ही नहीं बनवाया। अब सरकार कहती है कि एनपीएस सभी पर लागू होगा। लेकिन प्रश्न यह है कि जिन लोगों को नियुक्ति के दिनांक से यह लाभ नहीं मिला है और जो सीपीएफ से वंचित रह गए हैं। उनके नुकसान की भरपाई कौन करेगा।
शासन ने बांटी रेवडिय़ां
मध्यप्रदेश शासन ने लगता है पॉलीटेकनिक कॉलेज के कर्मचारियों, व्यख्याताओं प्राचार्य आदि को रेवड़ी बांटने का उपक्रम खोल रखा है। 70 प्रतिशत कर्मचारी लोक सेवा आयोग द्वारा नियुक्त न होकर एडहॉक द्वारा नियमित हुए हैं। नियमितीकरण का यह वाइल्ड कार्ड रास्ता नेताओं के कहने पर निकला है क्योंकि सभी अपने खास लोगों को खास जगह फिट करने की जुगाड़ करते रहते हैं और बिडम्बना यह है कि जो लोग सीधे लोक सेवा आयोग द्वारा नियुक्त हुए हैं उन्हें संविदा पर माना जाता है। उनमें से एक सज्जन वल्लभ भवन में पदस्थ हैं। जिन्हें अभी तक हटाया नहीं गया है जबकि उच्च शिक्षा वाले सभी कर्मचारी हटा दिये गए हैं। विभागीय मंत्री कहते हैं कि जिनके तीन साल पूरे हो गये है उनका तबादला किया जाए। लेकिन यहां तो 17-18 साल से तबादले ही नहीं हुए हैं इंदौर पॉलोटेकनिक के प्राचार्य 11 साल से जमे हुए हैं कोई उन्हें हिलाने की हिम्मत नहीं कर पाया जो भी हिलाने की कोशिश करता है वह तबादला करवा देता है लेकिन तबादला रूकवाने में प्राचार्य महोदय माहिर हैं।
सवाल यह है कि डेपुटेशन समाप्त करके ट्रांसफर पॉलिसी लागू क्येंा नहीं की जा रही है। अंधेरगर्दी का आलम यह है कि पिछले शासन काल मेंं प्रोग्रामरों की पोस्ट समाप्त कर सभी नियमों को ताक में रखते हुए उन्हें व्याख्याता बना दिया गया है। अब यह व्याख्याता नियमित होकर स्वयं को सरकारी कर्मचारी कह रहें है जबकि लोक सेवा आयोग से चयनित व्याख्याताओं को संविदा कहा जाता है। सूत्रों के अनुसार ऐसे चौबीस पद हैं जिनमें यह भी नहीं देखा गया है कि क्या वे व्याख्याता के लिए जरूरी शैक्षणिक योग्यता रखते हैं या नहीं। सिफारिश के आधार पर उन्हें व्याख्याता बना दिया गया। उनके पद कब सृजित हुए पता ही नहीं। 2008 में पदस्थ व्याख्याता सोसायटी के अंतर्गत पद पर नियुक्त हुए थे वर्ष 2010 में नियमों को ताक में रखते हुए 24 प्रोग्रामरों को सरकारी पद पर व्याख्याता बना दिया गया। ये पद किस प्रक्रिया के तहत सृजित किये गये है इसका कोई उत्तर नहीं है क्योंकि सारे पद तो सोसायटी को चले गये थे ये 24 व्याख्याता सरकारी कैसे हो गये। क्या इसके लिए फाइनेंस डिपार्टमेंट से अनुमति ली गई थी? क्या विज्ञापन निकालना और भर्ती की संपूर्ण प्रक्रिया,आरक्षण आदि का पालन करना आवश्यक नहीं था? सवाल और भी हैं अनियमितताऐं बहुत अधिक हैं संविदा पर नियुक्त व्यक्ति को एकमुश्त राशि वेतन के तौर पर दी जाती है पर व्याख्याताओं को पूरा वेतनमान दिया जा रहा है तो यह संविदा कैसे हुए। बीच सत्र में डेपुटेशन समाप्त करने की बात कही जा रही है यदि ऐसा हुआ तो बच्चों का भविष्य खतरे में पड़ जाएगा क्योंकि बहुत सी जगह पद खाली हो गये हैं।