02-Apr-2014 09:37 AM
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बने रहो पगला काम करेगा अगला की तर्ज पर राजकुमार पांडे ने मध्यप्रदेश विधानसभा को चलाया। उनके कार्यकाल में पुरानी एक भी जांच की फाइल पर निर्णय लेना तो दूर उन्होंने उसे देखना भी उचित नहीं समझा। विधानसभा में

श्रीनिवास तिवारी और पयासी के कार्यकाल की सारी नस्तियों को उन्होंने अपने पास बुलाकर तो रख लिया और अब जब उच्च न्यायालय के चीफ जस्टिस द्वारा अपने जजों की कमी को बताते हुए उन्हें वापस अपने पास बुलाया तो वह सारी की सारी नस्तियां जो उनके कार्यकाल के शुरू होते ही आई थी वह वापस चली गई। हालांकि पांडे ने विधानसभा में बने रहने के लिए कई तरीके से हाथ पैर तो चलाए परंतु वे उसमें कामयाब नहीं हो पाए। कारण सीधा सा विधानसभा सचिवालय और अध्यक्ष सीताशरण शर्मा द्वारा लिया गया निर्णय ने अंतत: राजकुमार को विधानसभा से चलता कर दिया और विभागीय सचिव भगवान देव इसरानी को प्रभारी प्रमुख सचिव बना दिया। मध्यप्रदेश विधानसभा के प्रमुख सचिव की नियुक्ति का मामला सदैव चर्चा में रहता है। जब यज्ञदत्त शर्मा 1981 में विधानसभा अध्यक्ष थे तो उन्होंने पहली बार किसी ज्यूडिशियल व्यक्ति को विधानसभा के प्रमुख सचिव पद पर आसीन करवाया था उस समय यह एक परंपरा सी बन गई। 1993 में श्रीनिवास तिवारी विधानसभा अध्यक्ष बने तो उन्होंने इस परंपरा को बदलते हुये एके पयासी को अपने निजी स्वार्थ के चलते विधानसभा का प्रमुख सचिव बनवा दिया। वह भी विधानसभा सचिवालय से बाहर के व्यक्ति थे। इसको लेकर विधानसभा सचिवालय के अधिकारियों में भारी रोष था। इसके चलते ईश्वर दास रोहाणी ने फिर से ज्यूडिशियली से विधानसभा के प्रमुख सचिव के पद को भरा। इसके पीछे सीधा सा कारण था कि कार्यपालिका पर नियंत्रण के लिये विधायिका है और देखा जाये तो जहां कार्यपालिका अपनी सीमाओं का उल्लंघन करती है वहां विधायिका उसे सही रास्ता दिखलाती है। ज्यूडिशियल क्षेत्र से आने वाले विधानसभा प्रमुख सचिव ज्यादा बेहतर साबित हो सकते थे। ऐसा कहना है पूर्व विधानसभा अध्यक्ष यज्ञ दत्त शर्मा का। उन्होंने कई ऐसे व्यक्तियों को इस पद पर देखा है जो ज्यूडिशियल क्षेत्र से आये थे और जिनमें से कुछ बाद में हाईकोर्ट में जज भी बने। परंतु जब राजकुमार पांडे को इस पद पर काबिज किया गया था तो भावनाएं तो यही थीं। परंतु पांडे से ज्यादा अच्छे तो विभागीय सचिव रहे जिनमें प्रमुख भरत नारायण, मनोज सहाय, के.के. गुप्ता, मदन गोपाल। इसी के चलते हुए बीच में ज्यूडिशियली से शीला खन्ना के.पी. तिवारी को भी कभी कार्यवाहक या प्रमुख सचिव बनाया गया। विधानसभा में दो सचिव और एक प्रमुख सचिव का पद है। नियम यह है कि विभागीय और ज्यूडिशियल दोनों क्षेत्र से प्रमुख सचिव आ सकता है। लेकिन विभागीय क्षेत्र से लाने में अब ज्यादा सहूलियत महसूस की जा रही है। इसी कारण पुरानी परंपरा को जारी नहीं रखा गया। एके पयासी के बारे में तो यहां तक बात पहुंच चुकी है कि उनकी नियुक्ति भी फर्जी मार्कशीट के बलबूते पर हुई थी। सवाल यह उठता है कि आखिर पयासी को लाने वाले श्रीनिवास तिवारी का कार्यकाल विधानसभा में बहुत विवादास्पद रहा है। उनके समय 175 फर्जी नियुक्तियां की गईं जो पूरी की पूरी रीवा से थीं। कमलाकांत, सत्यनारायण शर्मा जैसे दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों को श्रीनिवास तिवारी ने पदस्थ कर रखा था। बाद में तो वह विधानसभा सचिव के पद तक पहुंच गए। इतनी जल्दी तरक्की मिलने के कारण उनके घरों पर आयकर के छापे भी पड़े थे। विधानसभा में फर्जीवाड़े की शुरूआत श्रीनिवास तिवारी के कार्यकाल से हुई, जिसकी जांच अभी तक चल रही है। 76 विधायकों ने इस बात के पीछे विधानसभा से लेकर कोर्ट तक हल्ला भी किया और लक्ष्मण तिवारी ने हाईकोर्ट में एक याचिका भी दायर की थी। जिसके निर्णय के आधार पर अनियमितता की बात उजागर हुई। यह निर्णय वर्ष 2003 में आया। प्रमुख सचिव फर्जी मार्कशीट के भरोसे नौकरी करते रहे और उनकी डिपार्टमेंटल इनक्वायरी भी नहीं बैठी, क्योंकि उन्होंने स्वयं को अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुये बना लिया था। जनवरी 2006 में पयासी की फर्जी मार्कशीट और डिग्रियों के संबंध में जस्टिस शतींद्र द्विवेदी की रिपोर्ट आई थी जिसमें इसकी जांच की अनुशंसा की गई थी। इसमें कहा गया था कि पयासी को बर्खास्त करते हुये उनके खिलाफ प्रकरण दर्ज किया जाना चाहिये। इसीलिये विभागीय जांच को सही अंजाम तक पहुंचाने हेतु ज्यूडिशियल क्षेत्र से ईमानदार और साफ सुथरी छवि के जज को प्रमुख सचिव बनाया गया। परंतु सूत्र बताते हैं कि वह तो पयासी द्वारा ही प्रस्तावित किए हुए अधिकारी थे तो भला वह पयासी और तिवारी के कार्यकाल की उन सब जांचों को कैसे खोल सकते थे। पांडे ने तो जाते-जाते वह सब जांचों की नस्तियां भी अपने पास से वापस लौटा दी। अनुच्छेद 164(2) यह कहना है कि विधायिका का कार्यपालिका पर नियंत्रण होगा। कार्यपालिका विधायिका के प्रति उत्तरदायी होगी। विधानसभा के प्रमुख सचिव का कार्य भी कार्यपालिका के ऊपर नियंत्रण रखने का ही है लेकिन विभागीय प्रमुख सचिव यह नियंत्रण नहीं रख पाते। उन्हें वापस विभाग में ही लौटना होता है इसीलिये इस पद का प्रयोग वे अपने भविष्य को संवारने के लिये करते हैं। जबकि ज्यूडिशियल क्षेत्र से आये राजकुमार पांडे का तकिया कलाम है कि बने रहो पगला काम करेगा अगला की तर्ज पर आगे बढ़ो। इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने काम किया। विभागीय अधिकारी तो यह कहते हैं कि भला हो उच्च न्यायालय के चीफ जस्टिस महोदय का कि उन्होंने अपने न्यायालय में लंबित प्रकरणों के चलते सभी जजों को फिर उनके काम पर लगा दिया। इस मामले में विधानसभा अध्यक्ष सीताशरण शर्मा ने माननीय उच्च न्यायालय के पत्र का हवाला देते हुए बताया है कि उनकी सेवाएं वापस लेने के कारण ऐसी स्थिति निर्मित हुई। जिसका मेरे पास कोई विकल्प नहीं था। इस कारण सबसे सीनियर भगवान देव इसरानी को प्रभारी प्रमुख सचिव बनाया गया। जब उनसे पूछा गया कि क्या अभी भी ज्यूडिशियली से यह पद भरा जाएगा तो उन्होंने कहा कि भविष्य के बारे में अभी से विचार नहीं किया जा सकता। इसीलिए उन्हें प्रभारी प्रमुख सचिव बनाया गया।