18-Feb-2014 06:30 AM
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मध्यप्रदेश की विधानसभा में नई सरकार के पहले सत्र में उस दिन बड़ा अजीब सा नजारा था। नेता प्रतिपक्ष ने पद और गोपनीयता की शपथ तो ली, लेकिन उन्हें उनके ही दल से कोई विशेष सम्मान नहीं मिला। न तो किसी ने उन्हें उनकी

सीट तक पहुंचने के समय साथ दिया और न ही बाद में जब नेता प्रतिपक्ष के नाते सत्यदेव कटारे ने अपने भाषण को व्यापमं घोटाले पर केंद्रित कर दिया तब भी उनके कांग्रेसी साथियों ने कोई रुचि दिखाई।
दरअसल अजय सिंह और कालूखेड़ा के बीच चल रही उठा-पटक का लाभ देते हुए हाईकमान ने सत्यदेव कटारे को नेता प्रतिपक्ष के रूप में कांग्रेस पर जिस दिन थोप दिया था उसी दिन तय हो गया था कि कांग्रेस सदन में अब उतनी मुखर और प्रखर नहीं रहेगी। जितनी पहले हुआ करती थी। उपाध्यक्ष के रूप में राजेंद्र कुमार सिंह का नाम आगे करके कांग्रेस ने ठाकुर और ब्राह्मण का तालमेल सदन में भी बनाने की कोशिश की है। तो भी नेताप्रतिपक्ष में जो आक्रामकता और तथ्यों पर पकड़ होनी चाहिए उसका सत्यदेव कटारे में सर्वथा अभाव है। वक्त के साथ शायद उनमें कोई सुधार आ जाए लेकिन सच तो यह है कि नेता प्रतिपक्ष के रूप में फिलहाल तो वे असफल ही रहे। कांग्रेस में अंदरूनी लड़ाई का असर विधानसभा में भी देखने को मिल रहा है। कटारे ने मध्यप्रदेश की कई समस्याओं को नजर अंदाज करते हुए केवल व्यापमं घोटाले पर अपना भाषण केंद्रित किया और जो कुछ बोला वह पेपरों में पहले ही आ चुका है तथा मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने भी मीडिया को कई बार बता दिया है। आशा तो यह थी कि कटारे सदन में कोई नई बात कहते ऐसी बहुत सी समस्याएं हैं जिन पर सरकार को घेरा जा सकता था। शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, बिजली, पानी, सड़क जैसी अनेकानेक समस्याओं पर सदन में विचार होना था, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से नेता प्रतिपक्ष के भाषण का ज्यादातर समय व्यापमं घोटाले का बखान करने में ही बीता। यह सच है कि व्यापमं घोटाला एक बड़ा घोटाला है और सत्तासीन दल भाजपा की नेत्री उमा भारती भी इसे चारा घोटाले के समान महा घोटाला बता चुकी है, लेकिन अनुपात से कहीं अधिक एक ही विषय पर चर्चा नीरस ही लगती है।
सदन में कटारे की बॉडी लेंग्वेज भी उतनी प्रभावशाली नहीं लगी। बहरहाल कटारे की इस केज्युअल एप्रोच से यह तो साबित हो गया है कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस लोकसभा चुनाव की तैयारी के लिहाज से बहुत पीछे हो गई है और उनकी आंतरिक लड़ाई ही इतनी गहरा चुकी है कि भाजपा से चुनावी दो-दो हाथ करना उनके लिए संभव नहीं है। विधानसभा चुनाव में करारी पराजय के बाद कांग्रेस के नेताओं ने न तो हारे हुए विधायकों की बैठक की और न ही हार की समीक्षा उस तरह से की। आलम यह है कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस की स्क्रीनिंग कमेटी में कोई आने को तैयार ही नहीं है।
दिग्विजय सिंह अपने बेटे को उंगली पकड़कर राजनीति में चलना सिखा रहे हैं या ये कहे कि बेटे की मार्केटिंग में लगे हैं। वहीं दूसरे नेता लोकसभा चुनाव के समय की चुनौती को देखकर शायद उतने आत्मविश्वास से लबरेज नहीं हैं जितने पहले हुआ करते थे। यदि
कांग्रेस अपना पिछला प्रदर्शन ही लोकसभा में बरकरार रख पाई तो इसे एक बड़ी उपलब्धि कहा जाएगा।
खैर सत्यदेव कटारे ने एक बेहतरीन शब्द दिया है व्यापमं पुराण यदि इस पुराण को वे अगले पांच वर्ष तक पढ़ते रहे तो विपक्ष के रूप में कांग्रेस की ताकत में कितनी कमी आएगी यह समझा जा सकता है। अब कटारे हर मंत्री की फाइल खुद तैयार कर रहे हैं। देखना है लोकसभा चुनाव तक वे कितना दम भर पाते हैं। विधानसभा में स्थगन प्रस्ताव को लेकर भी जिस अंदाज में तकरार हुई उससे साफ जाहिर होता है कि सदन में सत्ता पक्ष जहां 165 की जीत को लेकर मद में चूर है तो वहीं विपक्ष भी कोई जिम्मेदार स्थिति में नहीं है। शोले के जेलर की तरह आधे इधर आओ, आधे उधर जाओ बाकी मेरे पीछे आओ वाले अंदाज में विपक्ष बिखरा-बिखरा सा नजर आ रहा है। मुख्यमंत्री ने सदन में कहा कि कोई नया-नया आता है तो... यह इशारा सत्यदेव कटारे के नौसिखिएपन की
तरफ ही था।
बहरहाल सदन में जिस द्वितीय अनुपूरक बजट पर चर्चा चल रही थी उसमें बिजली के लिए 23 प्रतिशत बढ़ोतरी ने सभी का ध्यान आकर्षित किया है। भीतरी खबर यह है कि अटल ज्योति अभियान बजट की कमी के कारण चरमरा रहा था, इसलिए नई सरकार ने सबसे पहले उसी पर फोकस किया, लेकिन प्रश्न वही है कि लोकसभा चुनाव की आचार संहिता जारी होने में 100 दिन से भी कम का समय बचा है इतने कम समय में चुनौतीपूर्ण लक्ष्य कैसे प्राप्त किया जाएगा। लेकिन लक्ष्य भले ही प्राप्त न हो प्रचार-प्रसार तो अच्छा होगा। जिसके लिए सरकार सीधे-सीधे अगले तीन माह में 16 करोड़ रुपए खर्च करने वाली है। सस्ते अनाज के वादे को अंजाम देने के लिए 175 करोड़ रुपए खर्च किए जाएंगे। यानी 7 हजार करोड़ रुपए का अधिकांश हिस्सा सरकार अपनी जमीन को और ठोस करने में खर्च करने वाली है।
अध्यक्ष पद पर कश्मकश
कांग्रेस का नया अध्यक्ष कौन हो इसे लेकर बहुत खींचतान चल रही थी। जिस तरह कालूखेड़ा और अजय सिंह के बीच नेता प्रतिपक्ष पर तकरार हुई उसे देखते हुए अध्यक्ष पद पर विवाद बढऩा तय था इसलिए राहुल गांधी को फ्रेम में आना पड़ा। वैसे कुछ नेताओं से राय मांगी गई, लेकिन कोई भी आगे बढ़कर अध्यक्ष बनने के लिए तैयार नहीं था। कई नाम सामने आए और बाला बच्चन जैसे एक-दो चेहरे ऐसे भी थे जो लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी की कमान संभालने की इच्छा रखते थे। लेकिन सिंधिया गुट और दिग्विजय गुट की खींचतान में अरुण यादव को ऊपर से ही तय करके भेज दिया गया। यादव ओबीसी के हैं और लगता है इस बार भी कांग्रेस अध्यक्ष, नेता प्रतिपक्ष, विधानसभा उपाध्यक्ष और उप नेता प्रतिपक्ष के चयन में ब्राह्मण, ठाकुर, और पिछड़ा वर्ग का फार्मूला लागू किया गया है। अरुण यादव को प्रदेश में लोकसभा चुनाव के समय पिछला प्रदर्शन बचाने और कांग्रेस की सीटें बढ़ाने का कारनामा कर दिखाना होगा। फिलहाल तो वे बड़े नेताओं को एक मंच पर लाने में कामयाब हो जाएं यही बहुत बड़ी उपलब्धि है।