04-Feb-2013 11:30 AM
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दिल्ली में वीभत्स बलात्कार प्रकरण के बाद सरकार द्वारा गठित जस्टिस वर्मा समिति ने तयशुदा समय में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी है। रिपोर्ट में ऐसे बहुत से बिंदु हैं जिन पर लगातार चर्चा की आवश्यकता है। यह रिपोर्ट निश्चित रूप से मौजूदा कानूनों को और सख्त बनाने के लिए तथा अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने के लिए प्रस्तुत की गई है। इसमें शासन के चारों तंत्र को दुरुस्त करने का सुझाव भी है, लेकिन हमारी समस्या कानूनों की नहीं है। भारत का संविधान दुनिया का सबसे बड़ा संविधान है और यहां जितने भी कानून हैं वे दुनिया के सबसे उपयुक्त कानून कहे जा सकते हैं। किंतु हमारी अदालतों में सबसे बड़ी कमी मुकदमों में हो रही देरी है। कई बार यह देरी इतनी अधिक हो जाती है कि अंधेर बन जाती है। सुप्रीम कोर्ट के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2011 में ही ट्रायल कोर्टों में 2 करोड़ 70 लाख पुराने मामलों को सुना गया। साढ़े चार लाख नए मामले दर्ज किए गए और प्रत्येक जज ने 650 मामलों को निपटाया लेकिन इसके बाद भी जब वर्ष समाप्त हुआ तो 2 करोड़ 60 लाख मामले पेंडिंग थे। वर्ष दर वर्ष पेंडिंग मामलों की परतें लगती जा रही हैं, लेकिन अदालतें कोई निर्णय नहीं कर पाती। दिल्ली हाईकोर्ट के एक जज ने वर्ष 2008 में अनुमान लगाया था कि अदालत के सभी लंबित मामलों को निपटाने में 464 साल लग जाएंगे। पुलिस की विवादित जांच प्रक्रिया और वकीलों के बर्ताव की वजह से मामले वर्ष दर वर्ष लटकते हैं। 10-20 साल की देरी तो आम बात है। लेकिन 50-60 और कई मामलों में तो सैंकड़ों वर्ष पुराने विवाद भी हल नहीं हो पाते। वादी-प्रतिवादी, गवाह, वकील और न्यायाधीश तक भगवान को प्यारे हो जाते हैं, लेकिन मुकदमे अमर बने रहते हैं। उनका कभी खात्मा ही नहीं होता। शायद इसीलिए जस्टिस वर्मा ने न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने का सुझाव दिया है। क्योंकि एक-एक न्यायाधीश के ऊपर प्रतिवर्ष मुकदमों का जो भार रहता है वह सैंकड़ों में होता है और उतने मुकदमों को पढऩा, उन पर चिंतन करना तथा सटीक निर्णय देना बहुत कठिन प्रश्न है। यदि एक जज एक साल में 600 से अधिक मुकदमों का फैसला करेगा तो उसे प्रति मुकदमा कुछ घंटे ही समय मिल पाएगा। लेकिन जजों की संख्या बढ़ाने के साथ-साथ उनकी गुणवत्ता का ध्यान रखना भी जरूर है। न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और लापरवाही एक बड़ी समस्या बनती जा रही है। इसी परिपे्रक्ष्य में यह आवश्यक है कि पहले न्याय देने की संपूर्ण प्रक्रिया गुणवत्तापूर्ण बने। उसके बाद ही कठोर कानून सही ढंग से अपना काम कर सकेंगे। जहां तक दुष्कर्म जैसे प्रकरणों का प्रश्न है। इनमें मौजूदा कानूनों के तहत सही तरीके से न्याय मिले तो निश्चित रूप से अपराधों में कमी हो सकेगी। केवल प्रकरणों की संख्या बढ़ाने से न्याय सुनिश्चित नहीं होता। न्याय सुनिश्चित होता है उन प्रकरणों पर उचित फैसले आने से। भारत में फैसलों की दर बहुत कम है सही न्याय मिलने के लिए न्याय प्रक्रिया को तीव्रतर करना ही होगा।