मैं और कीड़ा
18-Jan-2020 08:05 AM 1235705
कहते हैं मनुष्य के दिमाग में एक कीड़ा होता है, जो समय-बेसमय पर उसे काटता रहता है। उस दिन कीड़े ने मुझे काटा और पूछा-क्यों रे मानव खोपड़ी, ये मिलावट क्या होती है? तू इस पर विश्वास करता है? मैंने कहा-भैया मेरे, मिलावट पर विश्वास न करना भगवान पर अविश्वास करने के समान है। बिना मिलावट के यह संसार नि:सार है। चल ही नहीं सकता। पढ़ा-लिखा आदमी होकर कैसी मूर्खों जैसी बातें करता है? अब कीड़े ने जरा जोर से दांत गड़ाए। मैंने कहा-भैया, आजकल तो मिलावट का ही युग हैं। वह चाय पत्ती, चाय पत्ती नहीं, जिसमें घोड़े की लीद न हो। वह अनाज क्या जिसमें कंकड़ न हो। वह घी क्या, जिसमें डालडा न हो। अरे भाया, शुद्ध दूध तो आजकल गाय-भैंसे भी नहीं देतीं। संगीत, संगीत नहीं रहा। लक्ष्मी-प्यारे हो गया। नदीम-श्रवण हो गया। कुत्ता भी अब कुत्ता न रहा। अल्सेसियन हो गया, डॉबरमेन हो गया और बुलडाग हो गया। मिलावट देवी तो यहां तक पहुंच गई कि हमारी सरकार भी बड़ी मुश्किल से शुद्ध हो पाई। वरन कभी अठारह दलों का तो कभी तेईस दलों का कॉकटेल हो गई थी। एक ही घूंट में रम का मजा भी देती है और देशी का भी। कीड़ा मेरी बात मानने को कतई तैयार न था। कीड़ा जो था। उसे तो मेरी खोपड़ी खाने की आदत पड़ चुकी थी। तुनककर बोला-मैं नहीं मानता इस मिलावट-विलावट को। तेरी खोपड़ी में देख, क्या शुद्ध साहित्यिक गूदा भरा हुआ हैं। मैंने कहा-दादा, ये शुद्ध खोपड़ीवाला दिमाग भी मिलावटी हैं। सारी मानव काया ही मिलावट की देन है। कीड़े ने जोर से काटा। वह मानने को तैयार ही नहीं था कि किसी मिलावटी माल पर पल रहा है। मैंने कहा-बंधु, तुझे साहित्यिक खोपड़ी खाने का तो शौक है, पर साहित्य का जरा भी ज्ञान नहीं! अरे कबीर बाबा तो ये पांच तार का तंबूरा बजाते-बजाते अल्लाह को प्यारे हो गए और तुलसीबाबा ने भी डंके की चोट पर ऐलान किया था- क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा। पंचतत्व मिलि बना शरीरा।। अब बता इस देश में किसमें दम है जो इन दो दादाओं की बात को काट सके? कीड़ा इतनी आसानी से हार मानने वाला न था। कीड़ा जो ठहरा। बोला-रे पगले! तू ठहरा नए जमाने का पढ़ा-लिखा आदमी। तैने जरा भी दिमाग नहीं। इन बूढ़ों की बातों को गांठ बांधकर बैठ गया। तेरे से अच्छा तो मैं हूँ। कम-से-कम इन दकियानूसी बातों पर तो विश्वास नहीं करता। सच ही तो है जितना इस देेश को अनपढ़-गंवारों से खतरा नहीं है, उससे ज्यादा खतरा इसे तुम जैसे पढ़े-लिखों से है। सच में अब कीड़ा मेरे अहम को चुनौती देने लगा था। मैंने कहा-मैं इस बात को प्रमाणित कर सकता हूं। कीड़े को लगा अब मैं फंसा उसके जाल में। वह बोला-ठीक है, दम है तो करो सिद्ध। मैं शुरू हो गया। हाथ को आरसी क्या, और पढ़े-लिखे का फारसी क्या? मैंने अंगुली से शरीर को थोड़ा-सा खुरचा तो मिट्टी निकली। कीड़ा बोला-हूंऽ-हूंऽ। मैंने कहा-देख भैये, ये रहा पहला भूत। और तूने समय-समय पर इस शरीर से हवा और पानी निकलते देखा है जो आसपास के वातावरण को प्रदूषित करता है। वह बोला-ठीक है, मान लिया। अब बता, तेरी बॉडी में आकाश कहां है? मैं थोड़ा सोच में पड़ गया। कीड़े को लगा लोहा गरम है। उसने तुरंत प्रहार किया-खा गए गच्चा। मैं बोला-नहीं बच्चा। देख तूने कभी-कभी मेरे पेट से कुछ गुडग़ुड़ाने की आवाज़ सुनी है, बादलों के गरजने टाईप। अब भैया, बादल तो धरती या पानी पर होते नहीं, आकाश में ही छाए रहते हैं। बस मान ले कि मेरे भीतर कहीं आकाश भी हैं। कीड़े ने आखरी दांव मारा-अच्छा माना। अब आदमी में आग कहां से निकालेगा? एक पल को लगा कि मैं भी कीड़े के जाल में फंसा किंतु तुरंत मेरी चेतना जागी-है-है, आग भी है, इस शरीर में। बल्कि आग ही आग है। अरे जब पेट खाली होता है तो भूख की आग लगती है। किसी नवयौवना को देखो तो काम-वासना की ज्वाला दहकती है या नहीं? दादा, जब मैं किसी को अपने से आगे से बढ़ता हुआ देखता हूं, किसी का फायदा होते देखता हूं, किसी को अपने से ज्यादा प्रतिभावान पाता हूं और किसी को अपने से अधिक ज्ञानवान और धनवान देखता हूं तो, एक अजीब-सी जलन होती है, तन-बदन में आग-सी लग जाती है। और जानते हो उस समय लगता है इस आग के सामने संसार की सारी आग व्यर्थ हैं-क्या दावानल, क्या बड़वानल और क्या जठरानल? सब इनके आगे ठंडी महसूस होती हैं। मेरा सारी शरीर धधक उठता है। यही है पांचवां महाभूत-आग। अब कीड़े के पास कोई तीर न बचा था। वह शांत हो गया। मेरे तकों के कारण वह भी सुलग रहा था-ईष्र्या की आग में। जिसकी आंच मैं महसूस कर रहा था। - शरद सुनेरी
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