18-Jan-2020 07:58 AM
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बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भारतीय राजनीति के सर्वाधिक निराश करने वाले किरदारों में से एक बनकर उभरे हैं। कभी नए जमाने के प्रगतिशील और काम से मतलब रखने वाले नेता के रूप में प्रसिद्ध रहे नीतीश आज खुद का बेजान संस्करण नजर आते हैं- दिशाहीन, मित्रविहीन, अधीर तथा राजनीतिक विचारधारा और सामंजस्य से रहित। राज्य में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर नीतीश कुमार उन नेताओं में से एक हैं जिन पर कि 2020 में सबकी गहरी नजर रहेगी। नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और उस पर नीतीश के जनता दल (यूनाइटेड) के रवैये ने भारत के तेज बदलावों वाले राजनीतिक परिदृश्य में उनकी अप्रासंगिकता और कमजोर होती पकड़ को एक बार फिर से उजागर किया है।
बिहार में भाजपा गठबंधन के साथ सत्तारूढ़ नीतीश की पार्टी जदयू ने संसद में एक अनुदार सीएए कानून का समर्थन किया। हालांकि इसको लेकर विवाद भी हुए क्योंकि कई पार्टी नेताओं ने इस कदम का खुला विरोध किया, और कुछ ने परोक्ष रूप से ऐसा किया। भले ही बिहार के मुख्यमंत्री का भाजपा से संबंध कभी नरम तो कभी गरम वाला रहा हो, पर वे अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि बनाए रखने के लिए प्रयासरत रहे हैं और मुसलमानों को अपना वोट बैंक भी मानते रहे हैं। लेकिन नागरिकता संशोधन विधेयक को जदयू के समर्थन के बाद उनके राजनीतिक और वैचारिक रुझान को लेकर एक बड़ा सवालिया निशान लग गया है और ये पूछा जाने लगा है कि क्या उन्होंने नरेंद्र मोदी के समक्ष घुटने टेक दिए हैं और इस तरह राजनीति के हाशिए पर धकेले जाने की बात मान ली है। अभी लोग उनकी बदली हुई प्राथमिकताओं को लेकर भ्रमित ही थे कि नीतीश ने एक बार फिर पलटी मारते हुए-शायद चिढ़े बैठे पार्टी नेताओं और मुस्लिम मतदाताओं को शांत करने के लिए-राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) को अपने राज्य में लागू नहीं होने देने का ऐलान कर दिया।
दोस्तों और दुश्मनों की फेहरिस्त बदलते रहने से लेकर अपनी मूल विचारधारा से डगमगाते रहने तक-नीतीश कुमार भारतीय राजनीति के शीर्ष पलटमार साबित हुए हैं। इस परिदृश्य पर गौर करें। जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तो बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश ने 2002 के गोधरा दंगों में कथित भूमिका को लेकर मोदी के बिहार आने पर अघोषित रोक लगा रखी थी। और जब 2013 में मोदी को उसके अगले साल के चुनावों के लिए प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया तो उन्होंने भाजपा से संबंध तोड़ लिया था। वैसे ये नहीं भूलें कि वे भाजपा के साथ 1996 में तब आए थे जब पार्टी की हिंदुत्व की नीति तथा सांप्रदायिक रुख और राजनीति बिल्कुल स्पष्ट हो चुकी थी।
नीतीश राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के लालू प्रसाद से अलग होने के कुछ ही वर्षों के बाद 2017 में फिर से एनडीए के पाले में लौट आए। लालू उनके पुराने समाजवादी सहयोगी रहे हैं जो अपनी तमाम खामियों के बावजूद हमेशा धर्मनिरपेक्षता पर अडिग रहे हैं। वास्तव में, नीतीश अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार में कुछ समय के लिए केंद्रीय मंत्री भी रहे थे।
बिहार में विधानसभा चुनावों से पूर्व 2015 में जब नरेंद्र मोदी स्पष्ट खतराÓ बन चुके थे, नीतीश कुमार ने राजद और कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लडऩे के लिए दोस्त से दुश्मन बने लालू यादव से दोबारा हाथ मिला लिया। इस एकजुटता को 2013 में शुरू हुए उस दौर के संदर्भ में देखा गया जब नीतीश मोदी के खिलाफ आक्रामकता दिखा रहे थे।
बिहार के 2015 के चुनाव में महागठबंधन को बड़ी जीत मिली और नीतीश कुमार एक बार फिर मुख्यमंत्री बन गए, हालांकि उनका राजनीतिक कद पहले जैसा नहीं रह गया था। पर ये हमजोली भी अल्पकालिक ही रही, जोकि नीतीश की पहचान है। वर्ष 2017 के आधा बीतते-बीतते नीतीश मोदी से अपनी नफरत को भूल प्रेमकमल खिलाते हुए भाजपा के पाले में लौट आए। नीतीश कुमार जिस निरंतरता के साथ खास कर धुर विरोधियों के बीच पाला बदलते हैं, उसको देखते हुए हरियाणा की आया राम, गया रामÓ की व्यंग्योक्ति तक सहज लगती है। हालांकि नियमित पलटमारी का परिणाम ये हुआ है कि आज नीतीश पर किसी का भी भरोसा नहीं है, खास कर मित्रÓ नरेंद्र मोदी का तो बिल्कुल ही नहीं।
बार-बार बदलता रुख
ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार सिर्फ दोस्त और दुश्मन ही बदलते रहते हैं। विचारधाराओं को लेकर भी उनकी यही स्थिति है। वह धर्मनिरपेक्ष रहना चाहते हैं, फिर भी मुखर हिंदुत्व वाली एक पार्टी के साथ मित्रता करते हैं। उन्हें मुसलमानों के वोट चाहिए और इसके लिए 2006 में उन्होंने 1989 के भागलपुर सांप्रदायिक दंगा मामले को दोबारा खोलने का कदम तक उठाया था, पर इसके बावजूद उन्होंने संसद में संदिग्ध उद्देश्यों वाले नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी) का समर्थन किया। असल में सीएबी का विरोध नहीं करने के नीतीश के रुख ने ही उनकी अनिश्चित और ढुलमुल राजनीति और विचारधारा को एक बार फिर उजागर करने का काम किया है। विधेयक का समर्थन करने के नीतीश के फैसले का जदयू के भीतर विरोध हुआ तथा प्रशांत किशोर और पवन वर्मा जैसे खुद उनके चुनिंदा नेताओं ने खुलकर उनकी आलोचना की।
- विनोद बक्सरी