18-Jan-2020 07:57 AM
1234924
चुनावी बॉन्ड राजनीतिक दलों को चंदा देने की एक नई व्यवस्था के रूप में हमारे सामने आया है। सरकार का दावा है कि चुनावी बॉन्ड व्यवस्था से राजनीतिक दलों को गलत तरीके से की जाने वाली फंडिंग के प्रचलन पर रोक लगेगी और उन दलों को ही चंदा दिया जा सकेगा जो इसके योग्य हों। लेकिन सरकार की इस पहल पर कई सवालिया निशान लगने से इसकी सकारात्मकता और पारदर्शिता फिर सवालों के घेरे में है। पिछले दिनों चुनाव आयोग ने चंदा देने वालों के नाम को गोपनीय रखने के संशोधन पर आपत्ति जताई थी। जाहिर है, आयोग को इस बात का डर है कि नाम गुप्त रखने से प्रक्रिया में पारदर्शिता नहीं आएगी।
देश के राजनीतिक गलियारों में इलेक्टोरल (चुनावी) बॉन्ड का नाम साल 2017 से खूब चर्चा में है। मोदी सरकार ने राजनीतिक चंदे की स्वच्छता व पारदर्शिता के लिए साल 2017 के बजट में इलेक्टोरल बॉन्ड लागू किया था। इसके बाद जनवरी 2018 में पहली बार इलेक्टोरल बॉन्ड जारी किए गए। अभी तक के हासिल आंकड़ों के मुताबिक मार्च 2018 से अक्टूबर 2019 तक कुल 12,313 इलेक्टोरल बॉन्ड जारी किए गए हैं जिनके द्वारा राजनीतिक दलों को 6,128 करोड़ रुपए का चंदा मिला है। लेकिन यह चंदा किस-किस ने दिया है इसकी जानकारी सार्वजनिक नहीं हो पाई है। यही नहीं जिस तरह प्रधानमंत्री कार्यालय ने वित्त मंत्रालय को निर्देश देकर अपने ही बनाए नियमों का उल्लंघन किया और इलेक्टोरल बॉन्ड की अवैध बिक्री का दरवाजा खोल दिया उससे इलेक्टोरल बांड गड़बडिय़ों और घोटालों का हिमालय बन गया है।
चुनाव किसी भी लोकतंत्र के लिए त्योहार सरीखे होते हैं। इसमें बेहतर कल के लिए आम आदमी की आकांक्षाएं और उम्मीदें जुड़ी होती हैं। लेकिन इसी चुनावी प्रक्रिया में कुछ ऐसी चिताएं भी जुड़ी हैं जो बीते सात दशकों से लोकतंत्र के इस पर्व का स्वाद कड़वा कर देती है। पॉलिटिकल फंडिग और खर्च का सवाल भी चिताओं की फेहरिस्त का हिस्सा है। यूं तो चुनाव में चंदा देना आम बात है। लेकिन ये चंदा कौन दे रहा है? कितना दे रहा है, किसे दे रहा है और क्यों दे रहा है? ये सवाल हर चुनाव में उठते रहे हैं। लेकिन इस बार देश में इलेक्टोरल बॉन्ड पर विवाद चरम पर है। इसकी सबसे बड़ी वजह है इसकी अपारदर्शिता और भाजपा को मिलने वाले चंदे में रिकार्ड बढ़ोत्तरी।
हालांकि इस व्यवस्था का निर्माण होने के समय ही सरकार की ओर से यह कहा गया था कि यह पूरी तौर पर पारदर्शी नहीं, लेकिन अब उसे लेकर एक विवाद खड़ा हो गया है। इस विवाद का कारण विपक्ष का यह आरोप है कि इस व्यवस्था का लाभ सत्ताधारी दल यानी भाजपा को मिल रहा है। इस आरोप के साथ रिजर्व बैैंक की उस आपत्ति का भी जिक्र किया जा रहा है जो उसकी ओर से चुनावी बांड को लेकर जताई गई थी।
चुनावी फंडिंग व्यवस्था में सुधार के लिए सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड की शुरुआत की है। सरकार ने इस दावे के साथ इस बॉन्ड की शुरुआत की थी कि इससे राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता बढ़ेगी और साफ-सुथरा धन आएगा, काले धन पर रोक लगेगी। हालांकि, इस बॉन्ड ने पारदर्शिता लाने की जगह जोखिम और बढ़ा दिया है, यही नहीं विदेशी स्त्रोतों से भी चंदा आने की गुंजाइश हो गई है। चुनाव आयोग ने भी अपनी टिप्पणियों में इलेक्टोरल बॉन्ड जैसी अज्ञात बैंकिंग व्यवस्था के जरिए राजनीतिक फंडिंग को लेकर संदेह जाहिर किए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस साल 12 मार्च को हुई सुनवाई में केंद्र सरकार को नसीहत भी दी थी कि इस बारे में केंद्र सरकार गंभीरता से कदम उठाए। इसके बाद से ही इलेक्टोरल बॉन्ड लगातार सवालों के घेरे में है। राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे का सोर्स पता न होने के चलते कॉर्पोरेट चंदे को बढ़ावा मिला। साथ ही विदेश से मिलने वाला धन भी वैध हो गया। इस बॉन्ड के स्त्रोत का खुलासा करना जरूरी नहीं है।
इलेक्टोरल बॉन्ड की शुरुआत करते समय इसे सही ठहराते हुए तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जनवरी 2018 में लिखा था, इलेक्टोरल बॉन्ड की योजना राजनीतिक फंडिंग की व्यवस्था में साफ-सुथरा धन लाने और पारदर्शिता बढ़ाने के लिए लाई गई है। इलेक्टोरल बॉन्ड फाइनेंस एक्ट 2017 में बदलाव के द्वारा लाए गए थे। वास्तव में इनसे पारदर्शिता पर जोखिम और बढ़ा है। खुद चुनाव आयोग ने इन बदलावों पर गहरी आपत्ति करते हुए कानून मंत्रालय को इनमें बदलाव के लिए लेटर लिखा है। सरकार का कहना है कि इलेक्टोरल बॉन्ड में योगदान किसी बैंक के अकाउंट पेई चेक या बैंक खाते से इलेक्ट्रॉनिक क्लीयरिंग सिस्टम के द्वारा दिया जाता है। सरकार का यह भी तर्क है कि इन बॉन्ड को एक रैंडम सीरियल नंबर दिए गए हैं जो सामान्य तौर पर आंखों से नहीं दिखते। बॉन्ड जारी करने वाला एसबीआई इस सीरियल नंबर के बारे में किसी को नहीं बताता। लेकिन उक्त सारे प्रावधानों से भी समस्याएं दूर नहीं होतीं। चंदा देने वाली की गोपनीयता और राजनीतिक फंडिंग में अपारदर्शिता बनी रहती है और यह सब चुनाव आयोग की जांच के दायरे से भी बाहर है। केवाईसी होने के बाद भी चंदा देने वाले के बारे में सिर्फ बैंक या सरकार को जानकारी हो सकती है, चुनाव आयोग या किसी आम नागरिक को नहीं। जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 29 सी में बदलाव करते हुए कहा गया है कि इलेक्टोरल बॉन्ड के द्वारा हासिल चंदों को चुनाव आयोग की जांच के दायरे से बाहर रखा जाएगा। चुनाव आयोग ने इसे प्रतिगामी कदम बताया है। चुनाव आयोग ने कहा कि इससे यह भी नहीं पता चल पाएगा कि कोई राजनीतिक दल सरकारी कंपनियों से विदेशी स्त्रोत से चंदा ले रही है या नहीं, जिस पर कि धारा 29 बी के तहत रोक लगाई गई है।
देश की तीन राष्ट्रीय और 22 क्षेत्रीय दलों ने अपना 50 फीसदी चंदा चुनावी बांड के जरिए वसूला है। इन पार्टियों द्वारा चुनाव आयोग को दिए गए ब्यौरे के आधार पर एडीआर रिपोर्ट में यह दावा किया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक इन 25 दलों ने वित्त वर्ष 2018-19 के दौरान कुल 1163.17 करोड़ रुपए का चंदा वसूला जिसमें से 593.6 करोड़ रुपए चुनावी बॉन्ड से आया। एडीआर रिपोर्ट के मुताबिक ब्यौरा देने वाले राष्ट्रीय दलों में बसपा, तृणमूल कांग्रेस और बीजद शामिल हैं। भाजपा, कांग्रेस समेत 35 पार्टियों ने अब तक अपनी आय का ब्यौरा चुनाव आयोग को नहीं सौंपा है। इनमें पांच राष्ट्रीय और 30 क्षेत्रीय पार्टियां शामिल हैं। रिपोर्ट के मुताबिक ब्यौरा देने वाली 25 पार्टियों ने 893.6 करोड़ रुपए यानी 76.82 फीसदी स्वैच्छिक योगदान, दान और चुनावी बॉन्ड के माध्यम से एकत्र किया है। जबकि अन्य दान में 305.53 करोड़ रुपए यानी 25 दलों की कुल आय के 26 फीसदी से अधिक राशि प्राप्त की। तीन राष्ट्रीय दलों में केवल तृणमूल कांग्रेस ने चुनावी बॉन्ड के माध्यम से मिले दान का खुलासा किया है। पार्टी को 97.28 करोड़ की राशि मिली है। एडीआर ने कहा, चुनावी चंदे में चुनावी बॉन्ड वर्तमान समय में सबसे अधिक लोकप्रिय हो रहा है। गोपनीयता के कारण इसे काफी पसंद किया जा रहा है। आंकड़ों के मुताबिक सबसे अधिक आय 249.31 करोड़ रुपए ओडिशा के बीजू जनता दली की है। इसके बाद 192.65 करोड़ रुपए के साथ तृणमूल कांग्रेस दूसरे और 188.7 करोड़ रुपए के साथ टीआरएस तीसरे नंबर पर है।
आलोचकों का कहना है कि ये बॉन्ड भाजपा को सबसे ज्यादा फायदा पहुंचाने वाले साबित हुए हैं। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स (एडीआर) ने इलेक्टोरल बॉन्ड व्यवस्था को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। एडीआर की तरफ से पेश वकील प्रशांत भूषण का भी यही तर्क था कि इलेक्टोरल बॉन्ड से कॉरपोरेट और उद्योग जगत को फायदा हो रहा है और ऐसे बॉन्ड से मिले चंदे का 95 फीसदी हिस्सा भाजपा को मिलता है। चुनाव आयोग ने भी इस बात को स्वीकार किया था कि इलेक्टोरल बॉन्ड से साल 2017-18 में सबसे ज्यादा 210 करोड़ रुपए का चंदा भाजपा को मिला है। बाकी सारे दल मिलाकर भी इस बॉन्ड से सिर्फ 11 करोड़ रुपए का चंदा हासिल कर पाए थे। चुनाव आयोग ने इस मामले में चल रही सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट को जानकारी दी थी। भाजपा को वित्तीय वर्ष 2018-19 में 20,000 रुपए से अधिक के दान में 743 करोड़ रुपए मिले। यह राशि कांग्रेस समेत छह राष्ट्रीय दलों को प्राप्त हुई चंदे की राशि से तीन गुना अधिक है। 31 अक्टूबर को चुनाव आयोग के सामने दायर हलफनामे में भाजपा ने इस बात का खुलासा किया था। कांग्रेस को चुनावी दान में 147 करोड़ रुपए मिले हैं। यह राशि भाजपा को मिले चंदे का सिर्फ पांचवा हिस्सा ही है। भाजपा को साल 2018-19 में सबसे ज्यादा दान प्रोग्रेसिव इलेक्ट्रोरल ट्रस्ट द्वारा दिया गया। इसने भाजपा को 357 करोड़ की राशि चंदे में दी।
पिछले साल से अब तक देश के 16 राज्यों में भारतीय स्टेट बैंक द्वारा 12 चरणों में कुल 6,128 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल बॉन्ड बेचे गए हैं। इसमें से सबसे ज्यादा 1879 करोड़ रुपए के बॉन्ड मुंबई में बेचे गए हैं। दिल्ली में सबसे ज्यादा 4,917 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल बॉन्ड इनकैश हुए यानी भुनाए गए हैं। रिटायर्ड कमोडोर लोकेश बत्रा द्वारा दाखिल आरटीआई आवेदन के जवाब में यह जानकारी मिली है।
राजनीतिक चंदा हमेशा विवादों में
दरअसल, भारतीय राजनीति में चुनावी चंदे का मामला हमेशा ही विवादों में रहा है। कभी इसे राजनीति में कालेधन के उपयोग से जोड़ा जाता है, तो कभी राजनीति के अपराधीकरण के लिए भी इसे दोषी माना जाता है। लेकिन विडंबना है कि आजादी के 70 साल बाद जिस चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था की गई उसमें भी पारदर्शिता अपने वजूद की तलाश कर रही है। दरअसल, कई दशकों से सियासी दल चंदा देने वालों के नाम को छुपाने का जो खेल, खेल रहे थे, उसका खात्मा इस चुनावी बॉन्ड के चलते भी नहीं हो सका है। ऐसे में पारदर्शिता के सभी सरकारी दावे महज दावे ही मालूम पड़ते हैं। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि हर बार पारदर्शिता को सुनिश्चित करने के लिए चंदा देने वालों के नाम उजागर करने की मांग की जाती है लेकिन सियासी दल हर कानून में अपना रास्ता खोज निकालते हैं। 20 हजार रुपए से कम चंदा देने वालों के नाम और चुनावी बॉन्ड में दान दाताओं की पहचान गोपनीय रखने की व्यवस्था इसी का एक पहलू है।
कॉर्पोरेट फंडिंग किसी खास फायदे के मकसद
ऐसा माना जाता है कि राजनीतिक दलों को कॉर्पोरेट फंडिंग किसी खास फायदे के मकसद से की जाती है। जब कोई कंपनी किसी दल को चंदे के तौर पर धन मुहैया कराती है, तो इसके पीछे चुनाव बाद राजनीतिक और आर्थिक फायदा हासिल करने की नीयत होती है। लेकिन गौर करें कि जब चुनावी बॉन्ड के जरिये चंदा देने वालों का नाम किसी दल को पता नहीं चलेगा, तो यह कैसे मुमकिन है कि किसी व्यक्ति या कंपनी को सत्ताधारी दल कोई फायदा पहुंचा सकेगा? जबकि इसके उलट कुछ चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। हाल ही में, चुनावी बॉन्ड के जरिए राजनीतिक दलों को जो चंदा दिया गया, उसमें से लगभग 95 फीसदी चंदा एक विशेष राजनीतिक दल के खाते में आया। लिहाजा, इस बात की आशंका जताई जा रही है कि भले ही जनता इस बात से अंजान हो कि किस कंपनी ने किस दल को चंदा दिया है। लेकिन राजनीतिक दल अंदरूनी तौर पर इनके नामों से वाकिफ होते हैं।
- इन्द्र कुमार