02-Jan-2020 08:35 AM
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विकास के बड़े-बड़े दावे करके सत्ता में आने के बाद पार्टियां अपनी विचारधारा को मजबूत करने में जुट जाती हैं। अपनी विचारधारा को मजबूत करने के लिए वे अपनी विचारधारा के नायकों को राजनीतिक मोहरा बनाने लगती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि कई बार राज्यों में टकराव की स्थिति देखने को मिलती है। यही नहीं एक सरकार के जाने के बाद दूसरी सरकार योजनाओं का नाम बदलने की कवायद करती है। इस प्रक्रिया में विकास कहीं न कहीं पिछड़ जाता है।
राजनीतिक महानायकों की स्मृृतियों का प्रभावी होना इस बात पर निर्भर करता है कि उनके विचारों को आगे बढ़ाने वाली राजनीतिक धारा की शक्ति कितनी प्रभावी है। साथ ही यह भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है कि उक्त राजनीतिक धारा को उस नायक की स्मृति एवं विरासत की उस वक्त कितनी जरूरत है। अक्सर यह देखने को भी मिलता है कि कोई राजनीतिक नायक अपने जीवनकाल में जितना महत्वपूर्ण नहीं होता, वह बाद में कई गुना प्रभावी हो जाता है। बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर के मामले में ऐसा ही हुआ है। अपने जीवन काल में वह एक यथार्थ बने रहे और उसके उपरांत एक मिथक में तब्दील हो गए जो उनके यथार्थ वाले प्रभाव को बढ़ाता गया।
जीवनपर्यंत किए कार्यों के कारण ही कालांतर में वह दलित मुक्ति के प्रतीक में परिवर्तित होते गए। ऐसा इसलिए भी हुआ, क्योंकि महाराष्ट्र और देश के अन्य भागों में उनके जीवनकाल में ही लामबंद समर्थकों एवं अनुयायियों का एक वर्ग तो तैयार हो ही गया था। उनके निधन के पश्चात भी दलित समर्थक राजनीतिक दल रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया यानी आरपीआई उनके विचारों को आगे बढ़ाती रही। हालांकि इस दौरान आरपीआई का आधार खिसकता गया। इसकी भरपाई आजादी के बाद उभरे दलितों के शिक्षित वर्ग से हुई जो लोग शिक्षा प्राप्ति एवं अपने अधिकारों के लिए आंबेडकर के प्रतीक से अपने संघर्ष की प्रेरणा पाने लगे।
इस प्रकार आंबेडकर के प्रतीक को नई ऊर्जा, नई शक्ति एवं नया जीवन मिला। उत्तर भारत विशेषकर उत्तर प्रदेश में कांशीराम के नेतृत्व में उभरे बहुजन दलित आंदोलन, जिसने आगे चलकर बहुजन समाज पार्टी यानी बसपा का रूप अख्तियार किया, ने आंबेडकर के प्रतीक को और शक्तिशाली बनाया। कांशीराम और मायावती के नेतृत्व में पिछली सदी के नौवें दशक में उभरे बहुजन दलित आंदोलन के तहत दलितों की राजनीतिक गोलबंदी की गति तेज हुई। फलत: उत्तर भारत विशेषकर उत्तर प्रदेश में आंबेडकर का प्रतीक और ताकतवर बनकर उभरा।
इस व्यापक उभार में इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि उत्तर भारत खासतौर से उत्तर प्रदेश में बहुजन सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलन ने भी इसे धार देने का काम किया। इस जुगलबंदी से आंबेडकर दलितों के निर्विवाद महानायक के रूप में स्थापित होते गए। इससे यही आशय है कि राजनीतिक नायकों के नायकत्व का विकास उनकी विचारधारा के प्रतिनिधियों की राजनीतिक शक्ति एवं संबंधित विमर्श में उन्हें दी जाने वाली जगह पर निर्भर करता है।
डॉ. राममनोहर लोहिया, पंडित नेहरू के बाद दूसरे राजनीतिक नायक थे। उनका नायकत्व तो उभरा, किंतु भारतीय समाज में पिछड़े वर्ग के समूहों के राजनीतिक सशक्तीकरण, भागीदारी और विकास के लिए किए गए अनेक कार्यों के बावजूद वह आंबेडकर जैसा मुकाम हासिल नहीं कर पाए। इसका मूल कारण यह है कि समाजवादी आंदोलन से उभरे सामाजिक समूहों एवं राजनीतिक दलों ने अपने विमर्श को इस प्रकार आकार नहीं दिया जिसमें लोहिया का नायकत्व विकसित हो पाए। यह ठीक है समाजवादी सरकारों ने तमाम संस्थाओं-स्थानों को लोहिया का नाम दिया, परंतु उन्होंने इस प्रतीक को और शक्तिशाली बनाने के पर्याप्त प्रयास नहीं किए। कहने का अर्थ है कि समाजवादी विचारधारा से उभरे दलों ने सत्ता और ताकत हासिल करने के बावजूद अपने विमर्श को इस प्रकार नियोजित नहीं किया जिससे समाजवादी विचारधारा का महिमामंडन होने के साथ ही लोहिया का नायकत्व भी उभर सके।
अगर तुलना करें तो आंबेडकर ने दलितों के लिए जो किया, बिल्कुल वही काम लोहिया ने पिछड़ों को सशक्त बनाने के लिए किया। कुछ ऐसा ही जयप्रकाश नारायण के साथ हुआ। जेपी आंदोलन से निकलकर तमाम नेता राजनीति के आकाश पर तो खूब चमके, लेकिन उन्होंने जेपी को वैचारिक स्मृति का प्रेरक तत्व बनाकर अपना कोई विशिष्ट राजनीतिक विमर्श विकसित नहीं किया। वर्ष 2014 के बाद भाजपा के शक्तिशाली होने के बाद डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय जैसे राजनीतिक प्रतीकों का महत्व बढ़ा है। इसके पूर्व इन प्रतीकों के बारे में शायद लोग ज्यादा नहीं जानते थे। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि भाजपा ने अपने राजनीतिक विमर्श के मूल तत्वों में इनके विचारों को शामिल किया। इसी तरह मदनमोहन मालवीय की गिनती आजादी के पहले दिग्गज कांग्रेस नेताओं में हुआ करती थी, किंतु वर्ष 2014 में भाजपा के सत्ता में आने एवं नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद मालवीय और सरदार वल्लभभाई पटेल का नायकत्व ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया। ऐसा इसलिए भी हुआ, क्योंकि भाजपा ने कांग्रेस के ही उन प्रतीकों को अपनाया जिनकी कांग्रेस की पहली पांत के प्रतीकों के आगे अमूमन अनदेखी की गई। भाजपा ने पटेल और मालवीय जैसे कांग्रेसी प्रतीकों को कांग्रेस के शीर्ष प्रतीकों के समानांतर खड़ा करने का प्रयास कर राजनीतिक प्रतीकवाद के मोर्चे पर अपनी शक्ति का दायरा बढ़ा लिया।
हम यह उदाहरण देते थकते नहीं कि श्रीराम ने समाज में समता और समरसता स्थापित की, किसी से भेदभाव नहीं किया, शबरी के जूठे बेर खाये, जटायु राज से प्रेम किया, हनुमान को गले लगाया। लेकिन, श्रीराम के उपासक यह भूल जाते हैं कि आज अगर हिंदुओं को सबसे बड़ा खतरा और श्रीराम के नाम का सबसे बड़ा उल्लंघन यदि किसी रूप में हो रहा है, तो वह है हिंदू समाज के ही अभिन्न अंग-जिन्हें दलित और अनुसूचित जाति का भी कहते हैं- के साथ भयानक अमानुषिक अन्याय और उन पर अत्याचार। एक समय था, जब गुरु तेग बहादुर साहब ने कश्मीरी हिंदुओं के उत्पीडऩ पर मुगल सल्तनत को चुनौती दी थी, पर आज दुखी दलित, पीडि़त समाज सरकारी विभागों और नेताओं के बेरहम घडिय़ाली आंसुओं के भरोसे तड़पता रहता है, लेकिन उनके अथाह दुख का कोई अंत नहीं दिखता।
विरासत की सियासत के नाम पर देश में राजनीति हमेशा फलती-फूलती रही है। हर पार्टी के पास महापुरुषों की अपनी तथाकथित विरासत है। नेहरू और गांधी कांग्रेस का संबल बनकर उभरे तो दीनदयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी बीजेपी के नायक बने। राम मनोहर लोहिया को समाजवादी पार्टी ने अपना सियासी संबल बनाया, तो संविधान निर्माण में अहम योगदान देने वाले बाबा साहेब अंबेडकर को बीएसपी ने दलितों के मसीहा के रूप में दिखाया। सत्ता परिवर्तन के साथ विचारों का परिवर्तन अकाट्य सत्य है। लेकिन एक सत्य ये भी है कि सत्ता परिवर्तन के साथ उन तमाम महापुरुषों और उनसे जुड़ी यादों की मिटाने की कोशिशें शुरू हो जाती हैं, जो सत्ताधारी दल को सूट नहीं करतीं। पार्टियां अपनी सुविधानुसार तय करती हैं कि, उनके दौर में कौन-सा नेता या कौन-सा महापुरुष सर्वमान्य होना चाहिए।
कांग्रेस पर आरोप लगता रहा है, कि उसने नेहरू परिवार और गांधी को छोड़कर किसी और विचारधारा को पनपने नहीं दिया तो वहीं बीजेपी पर दीनदयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी का कद बढ़ाने और नेहरू परिवार की यादों को मिटाने का आरोप लगता रहा है। कमोवेश यही हालत उन छोटी-छोटी पार्टियों की भी है जो अपने-अपने राज्यों में सत्ता में आती-जाती रहती हैं। राजनीति में आज इस कदर परिवर्तन हो गया है कि, रंग, धर्म और जाति तक का बंटवारा हो गया है। आखिर लेनिन, अंबेडकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और गांधी की मूर्ति तोडऩे से क्या हासिल होगा। क्या एक मूर्ति तोड़ देने से उन विचारों का खात्मा हो जाएगा, जो लोगों के दिलों में मूर्त रूप ले चुकी हैं। मूर्तियों को तोडऩा दरअसल, मानसिक खोखलेपन की निशानी है, इसके अलावा कुछ नहीं।
भाजपा ने मालवीय और पटेल को अपनाया
चूंकि भाजपा के पास अपने ज्यादा प्रतीक नहीं थे, लिहाजा उसने अपने हिसाब से आजादी की लड़ाई के कुछ कांग्रेसी नायकों को अपनाया। हालांकि इसमें भी उसने यह खयाल जरूर रखा कि ये प्रतीक उसकी वैचारिकी के खांचे में भी फिट हो सकें। मिसाल के तौर पर मालवीय को ही लें। वह कांग्रेस में हिंदू पक्षधर राजनीति के समर्थक थे। इसी तरह सरदार पटेल और नेहरू के प्रतीकों में कई ऐसे अंतर्विरोध थे जिन्हें आगे लाकर भाजपा ने अपना राजनीतिक विमर्श गढ़ा। कांग्र्रेस अपने ही प्रतीकों के भाजपा के पाले में जाने से रोकने के लिए कोई प्रतिरोधी विमर्श खड़ा करने में नाकाम रही। परिणामस्वरूप कांग्र्रेस अपनी प्रतीक शक्ति के कई तत्वों को गंवाती गई। इस तरह सत्ता के साथ-साथ ये प्रतीक भी उसके हाथ से फिसलते रहे।
भाजपा ने प्रतीकों को जोड़कर बड़ी शक्ति अर्जित की
इस तरह यह स्पष्ट है कि राजनीतिक नायकों की प्रतीकात्मक शक्ति का विकास इस बात पर निर्भर करता है कि उनके वैचारिक प्रतिनिधि भविष्य में उन्हें किस प्रकार प्रस्तुत करते हैं। उनके विचारों से प्रभावित राजनीतिक पक्ष अपने विमर्श में उन्हें कैसे, कहां और किस तरह स्थान देते हैं। भाजपा ने हाल में तमाम ऐसे प्रतीकों को अपने खेमे से जोड़कर बड़ी शक्ति अर्जित कर ली है। इस प्रकार वह आंबेडकर, मालवीय, सरदार पटेल और विवेकानंद को अपने पक्ष में भुना सकती है। यही नहीं, लोहिया को कांग्रेस विरोध से जोड़कर वह उन्हें भी अपने पाले में लाने के प्रयास करती रही है। अगर इन नायकों की विरासत पर दावा करने वाले दलों के पास ऐसे प्रभावी विमर्श की सही काट नहीं है तो देर-सबेर उन्हें ये प्रतीक भी गंवाने ही पड़ेंगे।
- दिल्ली से रेणु आगाल