18-Nov-2019 07:49 AM
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बिहार में विधानसभा की पांच और लोकसभा की एक सीट पर हुए उपचुनाव के जो परिणाम आए, उनसे ऐसे राजनीतिक पंडितों के चश्मे का नंबर बढ़ गया है जो पिछले कुछ महीनों से मिल रहे संकेतों को नहीं पढ़ पा रहे थे। विधानसभा की पांच सीटों में से चार पहले नीतीश कुमार की पार्टी जदयू और एक कांग्रेस के पास थी। उपचुनाव में प्रमुख विपक्षी दल राजद ने जहां जदयू से दो सीटें छीन लीं, तो, एक सीट निर्दलीय बने भाजपा के बागी ने। राजद नेता तेजस्वी यादव का मानना है कि पिछले दिनों पटना में हुए ऐतिहासिक जल-जमाव में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के विकास और सुशासन का दावा डूब गया। उपचुनाव के नतीजे उनकी बातों को प्रमाणित भी करते हैं। वहीं इन परिणामों से यह फिर साबित हुआ कि पिछली बार नीतीश की सफलता में राजद का बड़ा हाथ था। और, भाजपा की अगले साल विधानसभा चुनाव में केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय को बतौर मुख्यमंत्री दावेदार पेश करने की तैयारी सोची-समझी है। इसलिए अगले साल भाजपा के जदयू से अलग होकर विधानसभा चुनाव लडऩे के अब तक मिल रहे तमाम संकेतों को उपचुनाव के परिणाम ने पुख्ता ही किया है।
इस उपचुनाव के परिणामों की सबसे उल्लेखनीय बात यह हुई कि मुस्लिम मतदाताओं ने अपने सभी तरह के वर्तमान नेतृत्व को खारिज करते हुए नई राह पकड़ लेने का ऐलान कर दिया है। हैदराबाद के तेजतर्रार मुस्लिम नेता असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने बिहार में पहली बार किशनगंज सीट जीतकर राजद के माय’ समीकरण को ध्वस्त करते हुए जदयू के मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाने के मंसूबे पर पानी फेर दिया है। 17-18 फीसदी मुसलमानों में बचा-खुचा जनाधार खोने से कांग्रेस और मुस्लिम मतदाताओं के नए तेवर से भाजपा भी बेचैन है। कांग्रेस के हाथ से यह सीट न सिर्फ निकल गई, बल्कि यहां वह तीसरे नंबर पर पहुंच गई। गौरतलब है कि मई में जब लोकसभा चुनाव हुआ था, तब किशनगंज ही वह इकलौती सीट थी जो एनडीए को नहीं मिल पाई थी।
उपचुनाव के सबक सत्ताधारी एनडीए के साथ-साथ विपक्षी महागठबंधन के लिए भी हैं। यह ठीक है कि राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के जेल में होने के बावजूद उसने नीतीश कुमार की पार्टी से दो सीटें जीत लीं, लेकिन महागठबंधन की गांठें मजबूत रहतीं तो यह संख्या बढ़ भी सकती थी। महागठबंधन में नेतृत्व का मसला हल नहीं होना नीतीश कुमार के लिए फलदायी हो सकता है। लेकिन चुनौतियां बेहिसाब हैं इसलिए आगे आगे देखिए, होता है क्या!
ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जदयू को बिहार में इन दिनों खेले जा रहे शह-मात के खेल का पता नहीं है। जदयू के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर (पीके) की टीम अगली रणनीति पर दिन-रात काम में जुटी हुई है। वैसे चुनावी राजनीति करने वाले जदयू के तमाम नेता भाजपा से संबंध बनाए रखने के पक्षधर हैं, लेकिन टीम पीके की सोच कुछ अलग है। इस टीम के लगभग सौ सदस्य पूरे बिहार में घूम-घूमकर विधानसभा की कुल 243 सीटों में से कम से कम सौ सीटों पर जीतने का फॉर्मूला निकालने में लगे हुए हैं, ताकि महाराष्ट्र की शिवसेना की तरह सत्ता की चाबी उसी के पास रहे। दूसरी ओर मुख्य विपक्षी पार्टी राजद के वोट बैंक में सेंध लगाने की तैयारी भी की जा रही है। पिछले दिनों मिथिलांचल में कद्दावर मुस्लिम नेता माने जाने वाले अली अशरफ फातमी को राजद से तोडऩे में सफलता मिली थी।
जदयू सूत्रों के मुताबिक, अब आलोक मेहता, भागलपुर के पूर्व सांसद भूलो मंडल, बांका के पूर्व सांसद जयप्रकाश नारायण यादव और सीतामढ़ी के पूर्व सांसद सीताराम यादव को पार्टी में लाने के प्रयास हो रहे हैं। बताया जाता है कि इनमें से सीताराम यादव की जदयू नेतृत्व के साथ बात बन गई है, लेकिन बाकी तीनों ने बार-बार आमंत्रण मिलने पर भी मिलने का समय नहीं दिया है। सूत्र तो यहां तक कह रहे हैं कि तेजस्वी यादव की कार्यशैली से नाराज दो दर्जन से अधिक विधायक पाला बदलने को तैयार हैं। जदयू को लगता है कि लालू की गैरहाजिरी में राजद और महागठबंधन को तोडऩा आसान है। ऐसे में भाजपा ने अकेले चुनाव लडऩे का फैसला किया, तो लोकसभा चुनाव की तरह राजद और उसके मित्र दलों का वोट काटा जा सकता है। तब राजद की अगुवाई वाले महागठबंधन की सीटें कम हो जाएंगी और लगभग सौ सीटें जीतकर भी भाजपा के साथ सत्ता में फिर गलबहियां डाली जा सकती हैं।
भाजपा के वोटरों ने मुंह मोड़ा
देश में चुनाव सुधार भले दूर की बात लगती हो, लेकिन मतदाता भूल सुधार में देर नहीं करता। इसी साल गर्मी में संसदीय चुनाव में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को प्रचंड बहुमत देने वाली जनता ने महाराष्ट्र और हरियाणा के साथ-साथ बिहार में भी सर्दी शुरू होने से पहले ही उसके जोश को ठंडा कर दिया। नीतीश कुमार के लिए असहज करने वाली यह स्थिति सहयोगी भाजपा के मतदाताओं के मुंह मोड़ लेने से आई। वर्चस्व की लड़ाई में कई महीने से एनडीए के दोनों प्रमुख घटक दल जिस तरह जुबानी जंग की सीमाएं लांघ रहे थे, उसका मैसेज नीचे कार्यकर्ताओं तक सीधे पहुंचा। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने अंतिम समय में डैमेज कंट्रोल करने की जो कोशिश की, उसकी भी जमीनी स्तर पर अलग व्याख्या हुई और भाजपा मतदाताओं ने नीतीश को पराया माना।
- विनोद बक्सरी