18-Nov-2019 07:26 AM
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अयोध्या शब्द अयुद्धा का बिगड़ा स्वरूप है। इसका शाब्दिक अर्थ है जहां पर युद्ध न हो। लेकिन पिछले 500 साल से अयोध्या में एक ऐसा युद्ध लड़ा जा रहा था जिसका कोई ओर-छोर नजर नहीं आ रहा था। लेकिन कई शताब्दी पुराने रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को देश ने जिस शांतिपूर्ण और विवेकसम्मत अंदाज में ग्रहण किया है, उसे आने वाले वर्षों में एक मिसाल के रूप में याद किया जाएगा।
अल्लामा इकबाल का एक शेर है...
है राम के वजूद पे हिन्दोस्तां को नाज
अहल-ए-नजर समझते हैं उस को इमाम-ए-हिंद
जी हां! जिस देश की दिनचर्या में जय रामजी की या जय सियाराम बोलने की आदत है। जिस देश के अभिवादन में राम हैं। उसी राम को उनकी जन्म स्थली पर कब्जा दिलाने में हमें 500 साल लग गए। 500 सालों के संघर्ष का वृतांत सुनकर अपने आप ही अंतस से आह रे अयोध्या निकल आता है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के पांचों जजों ने सर्वसम्मति से जिस तरह कई शताब्दी पुराने रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद का पटाक्षेप किया है और देश की जनता ने उसे सिरोधार्य किया है उससे अब अनायास ही वाह रे अयोध्या का उद्गार निकल आता है।
9 नवंबर को फैसला आने से पहले सबकी सांसें थमी हुई थीं। सवाल यह तो था ही कि फैसला क्या होगा, यह भी था कि समाज के अलग-अलग हिस्से उस पर कैसे रिऐक्ट करेंगे। जब भी कोई विवाद एक हद से ज्यादा लंबा खिंच जाता है तो समय के साथ उसकी जटिलता बढ़ती चली जाती है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की इस बेंच के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि समाज के गले में लंबे समय से फंसे इस कांटे को किस तरह निकाला जाए कि वह कोई नया जख्म पाए बगैर इससे मुक्त हो जाए।
40 दिन चली सुनवाई
500 साल पुराने अयोध्या मंदिर-मस्जिद विवाद को सुलझाने के लिए 6 अगस्त से 16 अक्टूबर तक 40 दिन सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। संविधान पीठ द्वारा 9 नवंबर को 45 मिनट तक पढ़े गए 1045 पन्नों के फैसले ने देश के इतिहास के सबसे अहम और पुराने विवाद का अंत कर दिया। चीफ जस्टिस गोगोई, जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस एस अब्दुल नजीर की पीठ ने स्पष्ट किया कि मंदिर को अहम स्थान पर ही बनाया जाए। रामलला को दी गई विवादित जमीन का स्वामित्व केंद्र सरकार के रिसीवर के पास रहेगा। इसके तहत अयोध्या की 2.77 एकड़ की पूरी विवादित जमीन राम मंदिर निर्माण के लिए दे दी। शीर्ष अदालत ने कहा कि मंदिर निर्माण के लिए 3 महीने में ट्रस्ट बने और इसकी योजना तैयार की जाए। चीफ जस्टिस ने मस्जिद बनाने के लिए मुस्लिम पक्ष को 5 एकड़ वैकल्पिक जमीन दिए जाने का फैसला सुनाया, जो कि विवादित जमीन की करीब दोगुना है। चीफ जस्टिस ने कहा कि ढहाया गया ढांचा ही भगवान राम का जन्मस्थान है और हिंदुओं की यह आस्था निर्विवादित है।
सदियों से इंतजार
स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे बहुप्रतीक्षित, महत्वपूर्ण और निर्णायक सिद्ध होने वाला जो निर्णय आया उसकी प्रतीक्षा दशकों से नहीं, सदियों से की जा रही थी। यह निर्णय करोड़ों-करोड़ लोगों की आकांक्षाओं के अनुरूप ही है। अयोध्या के विवादित स्थल पर राम मंदिर के निर्माण को प्रशस्त करने वाले इस सर्वोच्च निर्णय की अपेक्षा केवल इसलिए नहीं की जा रही थी कि भारतीय समाज के एक बहुत बड़े वर्ग की यह मान्यता थी कि अयोध्या का विवादित स्थल राम की जन्मभूमि है, बल्कि इसलिए भी की जा रही थी कि ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और पुरातात्विक महत्व के प्रमाण इसी ओर संकेत कर रहे थे कि राम मंदिर के स्थान पर मस्जिद का निर्माण किया गया। यह मस्जिद को दिए गए नाम बाबरी से ही नहीं, विवादित ढांचे के आसपास बने अनेक मंदिरों से भी स्पष्ट होता था।
सबको कुछ न कुछ मिला
इसे कोर्ट की परिपक्वता कहेंगे कि पांचों जजों ने सर्वसम्मति से ऐसा फैसला दिया जिससे किसी भी पक्ष को सब कुछ भले न मिला हो, पर कोई भी पक्ष ऐसा नहीं रहा जिसे कुछ न मिला। सबसे बड़ी बात यह कि पीठ ने यह खास सावधानी बरती कि फैसले से कोई गलत प्रस्थापना पुष्ट न हो। इसीलिए विवादित भूमि मंदिर के लिए देते हुए भी कोर्ट ने साफ किया कि अतीत की गलतियों को वर्तमान में सुधारने की कोशिश उचित नहीं है। यह भी कि 1934, 1949 और 1992 में पूजास्थल के साथ हुई छेड़छाड़ गैरकानूनी थी। यह उन तत्वों को साफ संदेश था जो इस फैसले को मंदिर निर्माण के नाम पर की गई अपनी तमाम गतिविधियों के लिए सर्टिफिकेट के रूप में इस्तेमाल कर सकते थे। मुस्लिम पक्ष को मस्जिद बनाने के लिए पांच एकड़ जमीन देने का कोर्ट का आदेश भी बताता है कि भले विवादित भूमि पर उसका दावा स्वीकार न किया गया हो, लेकिन उसके दावे को अदालत ने नजरअंदाज करने लायक नहीं माना। बहरहाल, इस पूरे प्रकरण का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है इस फैसले पर देशवासियों की प्रतिक्रिया। मुस्लिम समाज ने जो शांति, संयम और समझदारी दिखाई है वह निश्चित रूप से काबिलेतारीफ है। हिंदू पक्ष ने भी पिछले कई मौकों के विपरीत इस बार गौरव प्रदर्शन से परहेज किया। कानून व्यवस्था से जुड़ी एजेंसियों ने फैसला आने से पहले से ही हर संभव सतर्कता बरतते हुए सोशल मीडिया पर नजर रखने और अमन कमेटी वगैरह गठित करने जैसे कदम उठाए।
हम पहले से ज्यादा परिपक्व
कुल मिलाकर एक देश के रूप में हमने जिस कुशलता, शांतिप्रियता और समझदारी का परिचय देते हुए इस विवाद से अपना पीछा छुड़ाया है वह बताता है कि एक लोकतांत्रिक समाज के रूप में हम पहले से ज्यादा परिपक्व हुए हैं। हालांकि किसी भी समाज के जीवन में ऐसा कोई एक बिंदु स्थायी नहीं होता। आने वाले समय में ऐसी और भी परीक्षाएं हमारे सामने आएंगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि हम अपने ही इस उदाहरण की रोशनी में आगे बढ़ते हुए उन परीक्षाओं में भी सफल होंगे। उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णय सुनाए जाने के बाद दशकों या फिर कहें कि सदियों पुराने अयोध्या में राम जन्मस्थल से जुड़े विवाद का पटाक्षेप हो गया है। हालांकि पिछले कई दशकों से यह देश का एक बड़ा राजनीतिक मसला भी बना हुआ था, लेकिन अदालत का फैसला आने के बाद निश्चित तौर पर किसी भी राजनीतिक दल को इसका फायदा मिलेगा, इसकी गुंजाइश कम है, क्योंकि लोग आर्थिक तरक्की की राह पर देश को आगे ले जाने की कवायद में जुटे हैं।
फैसला मील का पत्थर
भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने अयोध्या मामले का पटाक्षेप कर एक नया अध्याय लिखने का काम किया है। इसीलिए उसका फैसला मील का पत्थर है। इस फैसले के लिए संविधान पीठ को भी बधाई दी जानी चाहिए। अपने इस ऐतिहासिक निर्णय में देश की शीर्ष अदालत ने विवादित स्थल पर मंदिर निर्माण के पक्ष में आदेश दिया। इसके साथ ही उसने मुस्लिम पक्ष को मस्जिद निर्माण के लिए अयोध्या में ही किसी स्थान पर पांच एकड़ जमीन आवंटित करने का भी निर्देश दिया। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद कुछ राजनैतिक लोगों ने फैसले पर आपत्ति जताई लेकिन देश की जनता ने इसे सहर्ष स्वीकार किया।
गौरतलब है कि 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जब इस विवाद पर अपना फैसला सुनाया तो उसे किसी पक्ष ने स्वीकार नहीं किया। वास्तव में इस फैसले से किसी का भी भला नहीं हो रहा था। विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांटकर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने किसी पक्ष को संतुष्टि नहीं प्रदान की थी, लेकिन इस फैसले ने विवाद सुलझाने की आधारशिला रखी। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण यानी एएसआई ने विवादित स्थल का उत्खनन कर जो साक्ष्य जुटाए उन्होंने यह साबित किया कि मस्जिद का निर्माण खाली जमीन पर नहीं किया गया और वहां मंदिर के अवशेष मिले। ये साक्ष्य इस मान्यता के अनुरूप थे कि विवादित स्थल पर राम मंदिर था, जिसके स्थान पर बाबर के सेनापति ने जबरन मस्जिद का निर्माण कराया।
दूसरा उदाहरण नहीं मिलता
न्यायिक इतिहास में निर्णय की ऐसी प्रतीक्षा का दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। उदारमना हिंदू मानस ने लगातार प्रतीक्षा की। सभी लोकतांत्रिक एवं संवैधानिक उपाय अपनाए। हाईकोर्ट के निर्णय की प्रतीक्षा की। मसला सर्वोच्च न्यायालय गया। यह उत्सुकता और जिज्ञासा की पराकाष्ठा थी। बाबरी निर्माण का मकसद उपासना स्थल बनाना नहीं था। मध्यकालीन सत्ता ने आस्था को कुचलने के ढेर सारे काम किए थे। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के निकट कूवतुल इस्लामÓ नाम की मस्जिद मंदिर सामग्री से बनी थी। इसका अर्थ इस्लाम की ताकत है। अजमेर में अढ़ाई दिन का झोपड़ाÓ एवं धार में भोजशाला मस्जिद के साथ औरंगजेब ने भी राजनीतिक शक्ति प्रदर्शन के लिए ऐसे ही अपकृत्य किए थे। विश्व प्रसिद्ध इतिहासकार अर्नोल्ड टायनबी ने दिल्ली में कहा था, पोलैंड के वारसा पर रूसी अधिकार के समय कैथेड्रल बनाया गया था। यह कार्य रूसियों ने पोलिसों को यह अहसास दिलाने के लिए किया था कि अब उनके भाग्यविधाता रूसी हैं। 1918 में पोलैंड ने स्वतंत्र होते ही कैथेड्रल गिरा दिया। रूसियों का प्रयोजन राजनीतिक था। औरंगजेब का उद्देश्य भी यही था।Ó बाबर का मकसद भी यही था।
कैसे आकार लेगा रामलला का मंदिर
अदालत के फैसले के बाद अब राम मंदिर ट्रस्ट का इंतजार हो रहा है। ट्रस्ट के सदस्यों के चयन और मंजूरी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका भी अहम हो सकती है। इसमें राम जन्मभूमि न्यास, निर्मोही अखाड़ा के सदस्य और विभिन्न धर्मों के धर्माचार्य शामिल किए जा सकते हैं। प्रधानमंत्री मोदी खुद राम मंदिर से जुड़ी प्रगति पर नजर रख पाएं, इसके लिए प्रधानमंत्री कार्यालय से भी किसी को सदस्य बनाया जा सकता है। ट्रस्ट के हर सदस्य का कार्यक्षेत्र और जिम्मेदारी तय होगी।
67 एकड़ भूमि पर मंदिर
मंदिर निर्माण के लिए अधिगृहित की गई 67 एकड़ भूमि का इस्तेमाल होगा। मुख्य मंदिर का निर्माण 2.77 एकड़ में हो जाएगा, बाकी बची जगह पर अन्य तरह के निर्माण कराए जाएंगे। पर्यटन मंत्रालय ने इस स्थल को सरदार पटेल की विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा स्टैच्यू ऑफ यूनिटी की तर्ज पर बड़े पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की तैयारी की है। इसके तहत राम मंदिर तक पहुंचने के लिए रेल, सड़क, हवाई यातायात के बेहतर प्रबंध के लिए भी रोडमैप तैयार किया जा रहा है। इसके अलावा अयोध्या के आधारभूत संरचना विकास के लिए भी जल्द भव्य रोडमैप तैयार किया जाएगा।
नागर शैली में मंदिर
मंदिर का नक्शा उत्तर भारत की नागर शैली पर बनाया गया है। 1989 में ही राममंदिर के लिए डिजाइन तैयार किया गया था। इसे गुजरात के चंद्रकांत सोमपुरा परिवार की तीन पीढिय़ों ने तैयार किया है। नागर शैली उत्तर भारतीय हिंदू स्थापत्य कला की तीन में से एक शैली है। इस शैली के मंदिरों की पहचान आधार से लेकर सर्वोच्च अंश तक इसका चतुष्कोण होना है। इसकी मुख्य भूमि आयताकार होती है जिसमें बीच के दोनों ओर क्रमिक विमान होते हैं जिनके कारण इसका पूर्ण आकार तिकोना हो जाता है। मंदिर के सबसे ऊपर शिखर होता है, जिसे रेखा शिखर भी कहते हैं। नागर शैली के मंदिरों में चार कक्ष होते हैं- गर्भगृह, जगमोहन, नाट्यमंदिर और भोगमंदिर। इन मंदिरों में लोहे और सीमेंट का इस्तेमाल नहीं होता है। खजुराहो और कोणार्क मंदिर भी नागर शैली में ही बनाए गए हैं।
ट्रस्ट में कौन-कौन होंगे
सुप्रीम कोर्ट के आदेश से बनने वाला ट्रस्ट सोमनाथ मंदिर निर्माण ट्रस्ट (6 सदस्यीय) की तरह ही काम करेगा। गृह मंत्री या पर्यटन मंत्री को इसका अध्यक्ष बनाया जा सकता है। इसके सदस्यों की संख्या 20 से ज्यादा हो सकती है। ट्रस्ट में रामजन्म भूमि न्यास को वरीयता दी जाएगी। निर्मोही अखाड़े को प्रतिनिधित्व देने का आदेश सुप्रीम कोर्ट दे ही चुका है। यह तय नहीं है कि राम मंदिर ट्रस्ट में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होंगे या नहीं, पर सदस्य नामित करने में उनकी अहम भूमिका होगी। ट्रस्ट में एक मुस्लिम समेत हर धर्म का प्रतिनिधि होगा।
देश की नींव काफी मजबूत
एक सवाल मन में यह उठता है कि राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के सुनाए गए निर्णय को निर्णय नहीं कह सकते। उन्होंने निर्णय नहीं, बल्कि मसले का समाधान किया है। गौरतलब है कि बात अगर वर्ष 1947 से लेकर 2019 तक की जाए, तो समाज की सोच में बड़ा परिवर्तन आ चुका है। अब कोई बेवजह के मसलों में उलझना नहीं चाहता। देश की जनता इस बात को ठीक से समझ चुकी है कि देश की सियासत ने उन्हें लंबे समय तक मंदिर के नाम पर बांटकर रखा। सुप्रीम कोर्ट से निकले इस समाधान के बाद शांति-सौहार्द की एक अच्छी तस्वीर देखने को मिली। पूरी दुनिया की नजरें सुप्रीम कोर्ट पर थीं। कहते हैं किसी भी देश की नींव संविधान, लोकतंत्र और भाईचारे पर टिकी होती है। फैसले के दिन इन तीनों की परीक्षा होनी थी। लेकिन जब फैसला सुनाया गया, तब देश की अटूट एकता और अखंडता जरा भी नहीं हिली। सभी पक्षों ने अक्षुण्णता को बनाए रखने में अपनी बड़ी भूमिका निभाई।
सियासत ने भले ही देश को बांटने की कोशिशें की हों, पर यह वही अखंड भारत है, जिसके बगीचों में आज भी एक साथ खुशबूदार सुगंधित रंगों के फूल खिलते हैं। सोच के विपरीत फैसले पर भी मुस्लिम पक्षकारों ने स्वागत किया। मुस्लिम वर्ग ने खुशी में हिंदुओं को मिठाइयां खिलाईं। इस तरह की तस्वीरें समूचे भारत से देखने को मिलीं। उच्च अदालत के फैसले के बाद पूरे देश में जो आपसी एकता देखने को मिली, वह शायद आजादी के बाद कभी देखने को नहीं मिली हो। मंदिर जैसे नासूर मसले का अंत हो जाने के बाद हिंदुस्तान की आपसी एकता एक बार फिर अपने मूल सनातनी रसूलों की तरफ लौटती दिखाई देने लगी है। वोटबैंक की राजनीति कहें या फिर स्वार्थ की सियासत, मंदिर के नाम पर दो धर्मों की एकता को हमेशा कुत्सित करने के प्रयास किए गए। गंदी सियासत का ही नतीजा रहा जिसे न समझने की भूल वामपंथी, कांग्रेसी और मुसलमान करते आए। सर्वोच्च अदालत ने इस पुराने विवाद में उलझी अयोध्या की राम जन्मभूमि पर मालिकाना हक के केस को फिलहाल समाप्त कर दिया है।
इस महत्वपूर्ण निर्णय में पांच एकड़ जमीन मुस्लिम पक्षों को देने की बात कही गई है। अब जिम्मेदारी केंद्र सरकार की बनती है कि वह दोनों पक्षों का ख्याल रखकर आगे बढ़े। मंदिर का निर्माण भी हो, और उचित स्थान पर मस्जिद भी बनाई जाए। धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक रूप से संवेदनशील हो चुके मुकदमे में लगातार चालीस दिनों की मैराथन सुनवाई में प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, जस्टिस एसए बोबडे, डीवाई चंद्रचूड़, एस अब्दुल नजीर और अशोक भूषण ने पंच परमेश्वर के रूप में जो निष्पक्ष तरीके से समाधान निकाला है, उस पर मात्र ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के अध्यक्ष ओवैसी जैसे एकाध लोगों के अलावा किसी को कोई ऐतराज नहीं हुआ।
दरअसल असदुद्दीन ओवैसी टाइप के लोग अब भी देश को धर्म के नाम पर गुमराह करना चाहते हैं। लेकिन उनकी दाल अब गलने वाली नहीं। जनता उनके एजेंडे को जान-समझ चुकी है। अगर इस प्रकार के लोगों ने इस मामले में अड़ंगा नहीं लगाया होता, तो मंदिर निर्माण को तपस्या के रूप में लेने वाले योद्धा बाला साहेब ठाकरे, लाल कृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के प्रयास कबके सफल हो गए होते। मंदिर बनाने की अलख जगाने वाले इन लोगों के प्रयासों पर आधुनिक युग के कई नेताओं ने पानी फेरने का काम किया। इसलिए मंदिर बनाने का जो रास्ता सुप्रीम कोर्ट ने अपने स्तर से साफ किया है उसका श्रेय किसी राजनीतिक दल को नहीं दिया जाना चाहिए। अच्छा हुआ, मंदिर का फैसला कोर्ट से हुआ जिसे सर्वधर्म समभाव ने माना। अगर यह निर्णय किसी सियासी दल द्वारा किया गया होता, तो शायद नहीं माना जाता। उससे निश्चित रूप से देश में अराजकता का माहौल उत्पन्न होता। निर्णय पर राजनीति होती।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सबको स्वीकार करना ही होगा, क्योंकि इससे ही उस सद्भाव की पूर्ति होगी जिसकी देश को आवश्यकता है। इससे इंकार नहीं कि इस फैसले से कुछ लोगों को मायूसी होगी, लेकिन कोई भी समाज हो वह नियम-कानूनों से ही चलता है और ऐसा कोई फैसला नहीं हो सकता जो सबको समान रूप से संतुष्ट कर सके। चूंकि सर्वोच्च न्यायालय से बड़ी कोई अदालत नहीं इसलिए उसके फैसले को स्वीकार करने के अलावा और कोई उपाय भी नहीं।
विवाद को आपसी बातचीत से सुलझाने की कोशिश नहीं हुई
विडंबना यह रही कि इस विवाद को आपसी बातचीत और सहमति से सुलझाने की कोशिश ईमानदारी से नहीं की गई। वास्तव में इसीलिए यह विवाद लंबे समय तक उलझा रहा। 1992 में विवादित ढांचे के ध्वंस के बाद इस विवाद को नए सिरे से सुलझाने की कोशिश शुरू हुई, लेकिन वह भी सही तरह से आगे नहीं बढ़ सकी। नि:संदेह अयोध्या के विवादित ढांचे को जिस तरह गिराया गया वह ठीक नहीं था। इस ध्वंस से मुसलमान आक्रोशित हुए। यह आक्रोश इसलिए उपजा, क्योंकि मुस्लिम समाज को यह बताकर गुमराह किया गया कि बाबरी मस्जिद राम मंदिर की जगह नहीं बनाई गई थी। इसीलिए यह जिद सही नहीं थी कि जहां पर ढांचा था वहीं पर मस्जिद बने। इस जिद का इसलिए भी कोई औचित्य नहीं था, क्योंकि इस्लामी मान्यताएं यही कहती हैैं कि झगड़े की जमीन पर बनी मस्जिद पर नमाज मंजूर नहीं होती।
राम मंदिर पर सियासी दलों के हाथ- पांव फूलते रहे
वैसे कायदे से देखा जाए तो अवाम को खुश रखना और उनकी खैरियत-सलामती का पहला जिम्मा हुकूमतों पर होता है। पर कई बार हुकूमतें उन जिम्मेदारियों को निभाने में विफल हो जाती हैं। कमोबेश राम मंदिर का मसला भी कुछ ऐसा ही रहा, जिसे सुलझाने में सियासी दलों के हाथ-पांव शुरू से ही फूलते रहे। आजादी के बाद से अब तक मंदिर मसले की आड़ में राजनीति होती आई, पार्टियों के लिए मंदिर निर्माण वोट बैंक का जरिया बना। मंदिर के नाम पर कई सरकारें बनीं, पार्टियों का जन्म हुआ, देशभक्त वाले संगठन खड़े हुए, कई नेता स्थापित हुए। लेकिन मसला जस का तस बना रहा। गौरतलब है कि निचली अदालतों समेत इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक लंबे अरसे तक जिरह होने के बाद जब यह मामला दिल्ली स्थित सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा, तो यहां प्रतिदिन करीब तीन माह तक सुनवाई हुई। आखिर में नौ नवंबर की तारीख इस फैसले के लिए मुकर्रर हुई जिसने दशकों पुराने रार को खत्म किया। मंदिर कब बनेगा इस बात का सपना देखते-देखते कई बुजुर्ग परलोक चले गए, लेकिन मंदिर का मसला वैसा ही रहा।
अयोध्या विवाद:1526 से अब तक
1526: इतिहासकारों के मुताबिक, बाबर इब्राहिम लोदी से जंग लडऩे 1526 में भारत आया था। बाबर के सूबेदार मीरबाकी ने 1528 में अयोध्या में मस्जिद बनवाई। बाबर के सम्मान में इसे बाबरी मस्जिद नाम दिया गया।
1853: अवध के नवाब वाजिद अली शाह के समय पहली बार अयोध्या में साम्प्रदायिक हिंसा भड़की। हिंदू समुदाय ने कहा कि मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई।
1949: विवादित स्थल पर सेंट्रल डोम के नीचे रामलला की मूर्ति स्थापित की गई।
1950: हिंदू महासभा के वकील गोपाल विशारद ने फैजाबाद जिला अदालत में अर्जी दाखिल कर रामलला की मूर्ति की पूजा का अधिकार देने की मांग की।
1959: निर्मोही अखाड़े ने विवादित स्थल पर मालिकाना हक जताया।
1961: सुन्नी वक्फ बोर्ड (सेंट्रल) ने मूर्ति स्थापित किए जाने के खिलाफ कोर्ट में अर्जी लगाई और मस्जिद व आसपास की जमीन पर अपना हक जताया।
1981: उत्तर प्रदेश सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने जमीन के मालिकाना हक के लिए मुकदमा दायर किया।
1885: फैजाबाद की जिला अदालत ने राम चबूतरे पर छतरी लगाने की महंत रघुबीर दास की अर्जी ठुकराई।
1989: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विवादित स्थल पर यथास्थिति बरकरार रखने को कहा।
1992: अयोध्या में विवादित ढांचा ढहा दिया गया।
2002: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विवादित ढांचे वाली जमीन के मालिकाना हक को लेकर दायर याचिकाओं पर सुनवाई शुरू की।
2010: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 2:1 से फैसला दिया और विवादित स्थल को सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला के बीच तीन हिस्सों में बराबर बांट दिया।
2011: सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगाई।
2016: सुब्रमण्यम स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दायर कर विवादित स्थल पर राम मंदिर के निर्माण की इजाजत मांगी।
2018: सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या विवाद को लेकर दाखिल विभिन्न याचिकाओं पर सुनवाई शुरू की।
6 अगस्त 2019: सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर हिंदू और मुस्लिम पक्ष की अपीलों पर सुनवाई शुरू की।
16 अक्टूबर 2019: सुप्रीम कोर्ट में मामले की सुनवाई पूरी हुई।
धर्म पर भारी पद और काम की वफादारी
अयोध्या विवाद की कानूनी लड़ाई में कुछ किरदार ऐसे रहे हैं जिन्हें उनकी कर्तव्य परायणता को लेकर हमेशा याद रखा जाएगा। जिन्होंने अयोध्या मामले में अपने धर्म से ऊपर उठकर भूमिका अदा की। जिनके धर्म पर उनके पद और काम की वफादारी भारी थी।
केके मोहम्मद: आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के पूर्व क्षेत्रीय निदेशक केके मोहम्मद ने अयोध्या में पुरातात्विक खुदाई के बाद दावा किया था कि स्पष्ट रूप से मस्जिद के नीचे एक मंदिर की उपस्थिति के निशान मिले हैं। उनकी रिपोर्ट हिंदू पक्ष के लिए सबसे बड़ा हथियार थी।
गंगा प्रसाद तिवारी: बाबरी विध्वंस मामले में अशोक सिंघल, गिरिराज किशोर, लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, विष्णु हरि डालमिया, विनय कटियार, उमा भारती और साध्वी ऋतंभरा सहित आठ लोगों के नाम थे। इन बड़े हिंदू नेताओं के खिलाफ थाना राम जन्मभूमि के पुलिस अधिकारी गंगा प्रसाद तिवारी ने दर्ज किए थे।
आरके सिंह: 23 अक्टूबर 1990 को समस्तीपुर में वहां के डीएम आरके सिंह ने आडवाणी को गिरफ्तार करवाया था। इस गिरफ्तारी के साथ ही रथ यात्रा समाप्त हो गई। संयोग की बात यह है कि उन्हें भाजपा से टिकट मिला और वो चुनाव जीत गए। अब मोदी सरकार में मंत्री हैं।
जस्टिस एस अब्दुल नजीर: अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच जजों की जिस पीठ ने सर्व सम्मति से फैसला सुनाया उसमें एकमात्र मुस्लिम जज जस्टिस एस अब्दुल नजीर भी शामिल थे।
मंदिर का शिलान्यास कब
संत समाज चाहता है कि हिंदू नववर्ष (25 मार्च को) या रामनवमीं (दो अप्रैल) को मंदिर की नींव रखी जाए। विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एकमत है। अखिल भारतीय संत समिति ने सर्वसम्मति से कहा कि मंदिर की नींव हिंदू नववर्ष (नव संवत्सर) या भगवान राम के जन्मदिन (रामनवमीं) को ही रखी जाए। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को लेकर संत समाज और संघ की भूमिका अहम मानी जा रही है।
ट्रस्ट के गठन की तैयारी
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मद्देनजर राम मंदिर के लिए ट्रस्ट का गठन इसी महीने हो सकता है। संस्कृति मंत्रालय के अधीन बनने वाले इस ट्रस्ट के लिए सोमनाथ मंदिर ट्रस्ट का मॉडल अपनाए जाने की संभावना है। केंद्र और राज्य (उत्तर प्रदेश की) सरकार ट्रस्ट में सदस्यों को नामित कर सकेंगी। सरकार तिरुपति देवस्थानम और श्री माता वैष्णोदेवी श्राइन बोर्ड सहित दूसरे ट्रस्ट की बनावट और दस्तावेजों का अध्ययन कर रही है। संस्कृति मंत्रालय के एक अधिकारी के मुताबिक, राम मंदिर निर्माण और देखभाल के लिए सोमनाथ मंदिर ट्रस्ट सबसे बेहतर उदाहरण है। यह ट्रस्ट सोमनाथ मंदिर की देखभाल करता है।
काशी और मथुरा में मुकदमे के रास्ते बंद
अयोध्या पर फैसले के साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने देश के तमाम विवादित धर्मस्थलों पर भी अपना रुख स्पष्ट कर दिया। अदालत ने 11 जुलाई, 1991 को लागू हुए प्लेसेज ऑफ वर्शिपÓ (स्पेशल प्रोविजन) एक्ट, 1991 का जिक्र किया। यह साफ कर दिया कि काशी और मथुरा में जो मौजूदा स्थिति है वही बनी रहेगी। वर्ष 1991 में केंद्र की तत्कालीन नरसिंह राव की सरकार ने कानून पारित किया कि धार्मिक स्थलों पर इमारत ध्वंस जैसा कुछ न हो सके। उसी कानून का नाम था प्लेसेज ऑफ वर्शिप (स्पेशल प्रोविजन) एक्ट।
- राजेंद्र आगाल