19-Aug-2019 06:44 AM
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तीन तलाक पर प्रतिबंध लगा कर सरकार ने मुस्लिम महिला को बेसहारा और बेबस छोडऩे की कुप्रथा पर अंकुश तो लगा दिया है। लेकिन तीन तलाक तो महज एक शुरुआत है इसके सहारे निकाह हलाला और बहुविवाह जैसे मामले भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं। मुस्लिम महिला- विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक के कानून का रूप लेने के बाद मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक की दहशत के साथ ही अगर शौहर दुबारा उसे अपनाना चाहे तो इसके लिये निकाह हलाला से गुजरने की मानसिक यातनाओं से पूरी तरह निजात मिल जायेगी। मुस्लिम समाज, विशेषकर सुन्नी समुदाय में एक ही बार में तीन तलाक देने की प्रथा थी।
तीन तलाक देने की कुप्रथा का एक दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह भी है कि अगर शौहर ने आवेश में आकर अपनी पत्नी को एक ही बार में तीन तलाक दे दिया और अपनी गलती का अहसास होने पर वह उसे फिर से अपनाना चाहता है तो इसके लिये पत्नी को ही निकाह हलाला की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। इसके लिये किसी मौलवी या किसी अन्य व्यक्ति के साथ इस महिला का निकाह कराया जाता है और फिर उसका तलाक होता है।
मुस्लिम महिलाओं ने समाज में प्रचलित निकाह हलालाÓ की प्रथा की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुये उच्चतम न्यायालय में याचिकायें दायर कर रखी हैं। यह मामला इस समय संविधान पीठ के पास लंबित है। संविधान पीठ को सौंपी याचिकाओं में मुस्लिम महिलाओं के बुनियादी हकों की रक्षा करने के साथ बहुविवाह प्रथा पर प्रतिबंध लगाने और निकाह हलाला को भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के तहत बलात्कार घोषित करने का अनुरोध किया गया है। इनमें यह भी दावा किया गया है कि इन प्रथाओं से संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है।
एक महिला ने तो एक बार में तीन तलाक देने को भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए के तहत कू्ररता और निकाह हलाला को बलात्कार का अपराध घोषित करने का अनुरोध किया है। मुस्लिम महिलाओं ने हालांकि तीन तलाक के खिलाफ एक जंग जीत ली है लेकिन उन्हें अभी कई अन्य कुप्रथाओं से निजात पाने के लिये संघर्ष करना है। स्थिति यह है कि इन महिलाओं ने कई अन्य कुप्रथाओं के खिलाफ याचिकायें दायर कर रखी हैं।
इनमें निकाह हलालाÓ के साथ ही बहुपत्नी प्रथा को भी चुनौती दी गयी है। इनमें कहा गया है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के तहत बहुविवाह अपराध है परंतु मुस्लिम पर्सनल लॉ की वजह से यह प्रावधान इस समुदाय पर लागू नहीं हो रहा है। इस वजह से विवाहित मुस्लिम महिला के पास ऐसा करने वाले अपने पति के खिलाफ शिकायत करने का रास्ता नहीं है।
याचिका में मुस्लिम विवाह विच्छेद कानून, 1939 को असंवैधानिक और संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21 ओर 25 में प्रदत्त अधिकारों का हनन करने वाला घोषित करने का अनुरोध किया गया है। इन प्रथाओं के खिलाफ आवाज उठाने वाली मुस्लिम महिलाओं का तर्क है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ में प्रदत्त इन तमाम किस्म की शादियों से उनके मौलिक अधिकारों का हनन होता है। एक याचिका में तो निकाह हलाला के साथ ही निकाह मुताह और निकाह मिस्यार को भी चुनौती दी गई है। ये दोनों प्रथायें अस्थाई निकाह हैं और इनके लिये पहले से ही इस रिश्ते की मियाद निर्धारित होती है।
शाहबानो मामले में न्यायालय का फैसला बदले जाने से मुस्लिम महिलाओं के साथ हुआ अन्याय तीन तलाक मामले में राहत देकर संसद ने मुस्लिम महिलाओं को अपमान और मानसिक यातनाओं की जिंदगी से मुक्ति दिलाने का काम किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सती प्रथा और देवदासी प्रथा तथा बाल विवाह जैसी कुप्रथाओं पर अंकुश पाने के बाद मुस्लिम समुदाय की महिलाओं को पुरातनपंथी प्रथा के तहत मानसिक यातनाओं से मुक्ति दिलाने के प्रयास यहीं नहीं रुकेंगे। मुस्लिम महिलाओं के हितों की रक्षा के लिये शुरू हुआ यह संघर्ष
जारी रहेगा।
-ज्योत्सना अनूप यादव