03-Aug-2019 06:07 AM
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मानव सभ्यता के विकास के प्रारंभिक काल से आज तक जितने भी लोकनायक हुए हैं राम इन सभी में महानायक हैं। लोकदृष्टा तुलसीदास का मानना है कि सभी प्राणियों में साक्षात् राम आत्मवत् हैं वहीं जीवन के केन्द्र में है, सारा संसार उनकी रचनात्मक चेतना का प्रतिबिम्ब है।
सिया राम मय सब जानी।
करौं प्रणाम जोरि जुग जानी॥
गोस्वामी तुलसीदास का समय भारतीय समाज व्यवस्था का ऐसा आदर्श काल था, जिससे समाज को सदैव नयी चेतना और नयी प्रेरणा मिलती है। इस काल की समृद्ध प्रकृति और सुखी समाज व्यवस्था हजारों वर्षों से जन सामान्य को प्रभावित और आकर्षित करती रही है। इसलिये रामराय हमारा सांस्कृतिक लक्ष्य रहा है। रामचरितमानस में भारतीय समाज के गौरवशाली अतीत की मधुर स्मृतियां संजोयी गयी हैं। देश की श्रेष्ठ पर्यावरणीय विरासत के प्रति समाज में जागरूकता पैदा करना भी मानसकार का लक्ष्य रहा होगा। मानसकार ने यह बताने का प्रयास किया है कि रामायण कालीन भारत में समाज में पेड़-पौधो, नदी नालों, व जलाशयों के प्रति लोगों में जैव सत्ता का भाव था। यही कारण है कि प्रकृति के अवयवों जैसे - नदी, पर्वत, पेड़-पौधें, जीव-जन्तुओं सभी का व्यापक वर्णन मानस में सर्वत्र मिलता है।
नदी पर्यावरण का प्रमुख घटक है। दुनिया की सभी प्राचीन सभ्यताओं का विकास प्राय: नदियों के तट पर हुआ था। हमारे देश में काशी, मथुरा, प्रयाग, उजैन और अयोध्या जैसे आध्यात्मिक नगर नदियों के तट पर स्थित है। गंगा हमारे देश में प्राचीनकाल से पूण्य रही है, गोस्वामीजी लिखते है गंगा का पवित्र जल पथ की थकान को दूर कर सुख प्रदान करने वाला हैं।
गंगा सकल मुद मूला।
सब सुख करिन हरनि सब सूला ॥
इसलिए ईश्वर के स्वरूप श्रीरामचन्द्रजी स्वयं गंगा को प्रणाम करते हैं तथा अन्य से भी वैसा ही कराते हैं।
उतरे राम देवसरि देखी।
कीन्ह दंडवत हरषु विसैषी॥
लखन सचिव सियँ किए प्रनामा।
सबहि सहित सुखु पायउ रामा॥
मानस में गंगा यमुना तथा संगम के चित्रण के अतिरिक्त सरयू नदी का विवरण भी है। सरयू का निर्मल जल आसपास के वायु मण्डल को भी शुद्ध किए हुए है।
बहइ सुहावन त्रिविध समीरा।
भइ सरजू अति निर्मल नीरा॥
इसके अतिरिक्त स्थान-स्थान पर सई, गोदावरी, मन्दाकिनी आदि नदियों का वर्णन रामचरितमानस में आया है उस समय की सभी नदियां स्वच्छ एवं पवित्र जल से परिपूर्ण थी
सरिता सब पुनीत जलु बहहीं ।
पर्वत प्रकृति के महत्वपूर्ण अवयव हैं। पर्वतराज, हिमालय भारतमाता के मुकुट के रूप में प्राचीन काल से ही प्रतिष्ठित है। हिमालय के अतिरिक्त चित्रकूट पर्वत का चित्रण रामचरित मानस में विस्तृत रूप से आया है। पर्वत पर हरियाली थी एवं वन्य जीव ऋषि मुनियों के स्वाभाविक मित्र के रूप में आश्रमों में निवास करते थे।
जहं-जहं मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे।
उचित बास हिं मधुर दीन्हें।
चित्रकूट गिरि करहु निवासु।
तहं तुम्हार सब भांति सुपासू॥
सैलु सुहावन कानन चारू।
करि केहरि मृग विहग बिहारू॥
मानस के अरण्य काण्ड में पम्पा सरोवर का वर्णन अत्यन्त मनोहारी हैं।
प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करने से अनेक विकृतियां उत्पन्न होती है। प्रकृति के सानिध्य में न रहने वाले जीव जंतुओं का अस्तित्व संकटग्रस्त हो जाता है। जब श्री रामचन्द्रजी की प्रार्थना पर समुद्र ध्यान नहीं देता है, तो वे क्रोधयुक्त होकर धनुष बाण उठाते हैं जिससे समस्त जलचर व्यथित हो उठते हैं -
संधोनेउ प्रभु बिसिव कराला।
उठी उदधि उर अंतर वाला।
मकर उरग झष गन अकुलाने।
जरत जंतु जलनिधि जब जाने॥
वास्तव में प्रकृति हमें स्वाभाविक रूप से अपने उपहार देती है। कृतज्ञ भाव से बिना छेड़छाड़ किये उन्हें ग्रहण करना चाहिए। असीमित स्वार्थ विकृति उत्पन्न करता है, जो अन्ततर प्रलयकारी है। प्रकृति की इस प्रवृत्ति को समुद्र के माध्यम से मानस में अभिव्यक्ति
मिली है।
सागर निज मरजादा रहही।
डारहिं रत्नहिं नर लहहीं॥
मानसकार ने दोहे व चौपाइयों के माध्यम से हमें पर्यावरण एवं प्रकृति के विविध अवयवों से परिचित कराया है। मानस में इस काल के स्वाभाविक प्रकृति चित्रण ने मनोहारी हरी भरी धरती और वन्य-जीवन के प्रति प्रेममूलक संबंधों एवं पर्यावरण के संरक्षण में समाज के अंतिम व्यक्ति तक को भागीदार बनाये जाने का आदर्श समाज के सामने उपस्थित किया है। इस प्रकार प्रकृति के संतुलन में संस्कृति की शाश्वतता का युग संदेश हमारे लिये इस काल की महत्वपूर्ण विरासत है। मानसकार तुलसी ने मानस में पृथ्वी से लेकर आकाश तक सृष्टि के पांचों तत्वों की विस्तृत चर्चा की है। भारतीय मनीषा की यह मान्यता रही है कि मनुष्य शरीर मिट्टी, अग्नि, जल, वायु और आकाश इन्हीं पांच तत्वों से मिलकर बना है। इसका दूसरा आशय यह भी है कि प्रकृति निर्मल और पवित्र रहने पर प्राणी मात्र के लिये फलदायी और सुखदायी होती है।
-ओम