हक न मांगें बेटियां!
18-Jul-2019 07:39 AM 1235057
पूरी दुनिया की आबादी का आधा हिस्सा महिलाओं का है। कुल काम का दो तिहाई हिस्सा महिलाएं ही करती हैं। मगर आय का केवल दसवां भाग उनके हिस्से आता है, तो सम्पत्ति का सौवां भाग उनके हिस्से में पड़ता है। संयुक्त राष्ट्र संघ का तथ्यों पर आधारित यह कथन दुनियाभर में महिलाओं के साथ हो रही आर्थिक हिंसा का एक आईना है। दफ्तर हो या घर, महिलाओं को आर्थिक भेदभाव का सामना करना ही पड़ता है। कानून बनाकर कई कानूनी अधिकार महिलाओं को दिये गये हैं, मगर समाज में भी इन्हें मंजूरी मिले, महिलाओं में भी हक पाने का साहस जागे, इसके लिए प्रशासनिक और सरकारी स्तर पर बड़ी मुहिम चलायी जानी जरूरी है, वरना उन्हें उनका हक कभी भी हासिल नहीं होगा। भारत में औरत का मायका हो या ससुराल, जब प्रापर्टी बंटवारे की बात आती है तो पुरुषों को ही प्रापर्टी में हिस्सा मिलता है। कानून कितने ही बना लो, मगर सामाजिक मान्यताओं का क्या करेंगे? पिता की सम्पत्ति में बेटियों को बेटों के बराबर हक मिलने की बातें कानून की किताबों में तो जरूर दर्ज हो गयी हैं, मगर समाज इस पर अमल करने को आज भी तैयार नहीं है। हक मांगने पर न सिर्फ बेटियों की मुसीबतें बढ़ जाती हैं, बल्कि उन्हें घर, परिवार और समाज में बदनामी, उपेक्षा और हिंसा का सामना भी करना पड़ता है। कई बार तो हक मांगना उनकी जान पर भारी पड़ जाता है। साल 2005 में संशोधन होने के पहले हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के तहत प्रौपर्टी में बेटे और बेटियों के अधिकार अलग-अलग हुआ करते थे। इसमें बेटों को पिता की संपत्ति पर पूरा हक दिया जाता था, जबकि बेटियों का सिर्फ शादी होने तक ही इस पर अधिकार रहता था। विवाह के बाद बेटी को पति के परिवार का हिस्सा माना जाता था। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 2005 में शादीशुदा बेटियों का अब उनके पिता की संपत्ति पर अधिकार हैं। 9 सितंबर 2005 को हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 2005, जो हिंदुओं के बीच संपत्ति का बंटवारा करता है, में संशोधन कर दिया गया। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 2005 के मुताबिक लड़की चाहे कुंवारी हो या शादीशुदा, वह पिता की संपत्ति में हिस्सेदार मानी जाएगी। इतना ही नहीं उसे पिता की संपत्ति का प्रबंधक भी बनाया जा सकता है। इस संशोधन के तहत बेटियों को वही अधिकार दिए गए, जो पहले बेटों तक सीमित थे। हालांकि बेटियों को इस संशोधन का लाभ तभी मिलेगा, जब उनके पिता का निधन 9 सितंबर 2005 के बाद हुआ हो। इसके अलावा बेटी सहभागीदार तभी बन सकती है, जब पिता और बेटी दोनों 9 सितंबर 2005 को जीवित हों। हिन्दू उत्तराधिकार कानून में चौदह साल पहले बदलाव हो चुका है। मगर पितृसत्तात्मक सोच उसे पचा ही नहीं पा रही है। इसीलिए कोई लड़की जब अपने मायके में सम्पत्ति का अधिकार मांगती है, बराबरी का हक मांगती है, तो उस पर घर वाले, आस पड़ोस के लोग दबाव बनाते हैं। आमतौर पर हमारे समाज में बेटे को ही पिता का उत्तराधिकारी माना जाता है। हिन्दू परिवारों में बेटे को ही घर का कर्ताधर्ता कहा जाता है। आज से चौदह साल पहले तक पैतृक सम्पत्ति में बेटी को बेटे जैसा दर्जा हासिल नहीं था, लेकिन साल 2005 के संशोधन के बाद कानून ये कहता है कि बेटा और बेटी को पिता की सम्पत्ति में बराबरी का हक है। मगर यह हक बेटी हासिल नहीं कर पा रही है। अपना हक छोडऩे के लिए कभी उसे भावनात्मक रूप से मजबूर कर दिया, कभी हिंसा और उत्पीडऩ के जरिये उसे डराया जाता है। मायके से सम्बन्ध खराब होने और रिश्तेदारों में छवि बिगडऩे के डर से हिन्दू उत्तराधिकार कानून बनने के डेढ़ दशक बाद भी ज्यादातर लड़कियां पैतृक सम्पत्ति में अपना हक पाने से महरूम हैं। यह कानून एक तरफ जहां महिलाओं को मजबूत आर्थिक आधार देता है, वहीं दूसरी तरफ गहरी भावनात्मक टूटन का भी कारण बन रहा है। आज भी घर का बेटा अपने पिता की पैतृक सम्पत्ति पर सिर्फ अपना हक समझता है। ऐसे में यदि बहन पैतृक सम्पत्ति में अपना बराबर का हक लेने की बात करती है, तो भाई इस बात से आहत होकर उससे अपने सम्बन्ध खत्म कर लेता है। -ज्योत्सना अनूप यादव
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