16-May-2019 07:52 AM
1234964
एक बेहद चर्चित इश्तिहार दूरदर्शन में आता था। लाइनें कुछ यूं थीं, एक चिडिय़ा अनेक चिडिय़ा, दाना चुगने बैठ गईं थीं, इतने में एक बहेलिया आया.... अब तो याद आ ही गया होगा। दरअसल चुनाव आयोग की वेब साइट पर महिला मतदाताओं के बढ़े आंकड़े और सियासी दलों के बीच महिलाओं को लुभाने के लिए मची होड़ को देखकर मेरी आंखों के सामने इस इश्तिहार की पिक्चर एकदम जीवंत हो उठी।
ओडीशा में बीजू जनता दल (बीजद) ने लोकसभा चुनावों में 33 प्रतिशत महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया तो पश्चिम बंगाल में भी ममता बनर्जी ने ठीक यही घोषणा कर दी। तेलंगाना के के. चंद्र शेखर राव भी महिलाओं के हिमायती बनने से नहीं चूके। ये तो रही लोकसभा चुनाव में महिलाओं को टिकट देने में लगी होड़ की बानगी। लेकिन देश के दो राष्ट्रीय दलों के चुनावी घोषणा पत्रों को देखें तो अंदाजा हो जाएगा कि महिला मतदाता कितनी महत्वपूर्ण हो गई हैं। तो क्या सियासी दल औरतों की सियासत में ताकत को पहचान गए हैं? तो क्या अब संसद में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने का विधेयक पास होने का वक्त आ गया है? 1996 में पहली बार एच.डी. देवगौड़ा के प्रधानमंत्रित्व काल में यह विधेयक लाया गया। 2010 में वह पल आया जब राज्यसभा में विधेयक पास हुआ लेकिन लोकसभा में इसे पारित नहीं करवाया जा सका। सबसे नजदीक में इसे 2018 में पेश किया गया लेकिन बात आगे नहीं बढ़ी।
कुल मिलाकर विधेयक की मांग अब तीसरे दशक में पहुंच चुकी है, लेकिन राजनीतिक मंशा की कमी के चलते विधेयक अब तक पास नहीं हो पाया। खैर, छोडि़ए कहानी दरअसल सियासी दलों के बीच महिलाओं के मतों को हासिल करने की होड़ और इनके लिए लुभावनी योजनाएं लाने और चुनावी वादों से शुरू हुई थी तो कम से कम एक बात तो पूरी तरह स्पष्ट है कि महिला हिमायती दिखने वाले ये दल, दरअसल योजनाओं और वादों का जाल बिछाकर वोट हथियाने की जुगत में लगे हैं। स्पष्ट बहुमत होते हुए भी मौजूदा मोदी सरकार भी इस विधेयक को पारित नहीं करवा पाई या यों कहें मंशा ही नहीं थी। तो आखिर महिलाओं के लिए इतनी भारी भरकम योजनाएं क्यों? कहानी के पहले पैरे में उठाए गए इस सवाल का जवाब, चुनाव आयोग के आंकड़ों में छिपा है।
दअरसल 1962 से लेकर अब तक के आंकड़े देखें तो महिला मतदाताओं की संख्या कमोबेश बढ़ी है जबकि पुरुषों की संख्या घटी है। सीएसडीएस के 2014 के लोकसभा चुनाव में महिला मतदाताओं का आंकड़ा जहां 65.63 फीसदी था वहीं पुरुष मतदाताओं का आंकड़ा 67.09 फीसदी रहा। यानी वोटों के मामले में जेंडर गैप दो फीसदी से भी कम रह गया। चुनाव आयोग के आंकड़े देखें तो 1962 में जहां यह आंकड़ा 16.7 था वहीं 2009 में घटकर 4.4 फीसदी रह गया।
एक बात तो साफ है कि महिलाओं के प्रति सियासी दलों का बढ़ा प्रेम महिलाओं के बढ़े वोटों से दलों के दिलों की बढ़ी धड़कन का नतीजा है न कि सियासी दलों में आए उदारवाद का, पितृसत्ता के खत्म होते दौर का।
कांग्रेस ने अपने चुनावी वादे में कहा है कि सत्ता में आए तो, न केवल संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण वाला विधेयक कांग्रेस लेकर आएगी बल्कि सरकारी नौकरियों में भी 33 फीसदी का आरक्षण देंगे। इतना ही नहीं, सीआईएसएफ, सीआरपीएफ और बीएसएफ जैसी सशस्त्र बलों में महिलाओं की संख्या बढ़ाकर 33 फीसदी की जाएगी। राष्ट्रीय महिला आयोग और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को दूसरे आयोगों की तर्ज पर संवैधानिक दर्जा देने का वादा भी किया। वहीं भाजपा ने संकल्प लिया है कि तीन तलाक और हलाला के खिलाफ भाजपा विधेयक पास कराएगी तो बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ के तहत लड़कियों की शिक्षा पर ज्यादा खर्च करेगी। महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा के मामलों में जल्द सुनवाई के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट की संख्या बढ़ाएगी। काग्रेस से एक कदम आगे बढ़ते हुए महिलाओं को रोजगार दिलाने के लिए महिला कार्यबल रोडमैप भाजपा बनाएगी। देश में 10 फीसदी तक कुपोषण कम करने का लक्ष्य भी भाजपा ने महिलाओं को ध्यान में रखकर ही साधा है। कांग्रेस ने दिसंबर, 2018 में राजस्थान के करौली में औरतों के वोट डालने के व्यवहार को जानने के लिए सर्वे किया। 40,000 औरतों के बीच किए इस सर्वे में जवाब चौंकने वाले थे। 75 फीसदी औरतों ने कहा कि वे अपने आदमियों से अलग और स्वतंत्र रूप से उम्मीदवार को चुनने का फैसला लेती हैं। यह सर्वे भले ही सीमित हो मगर उस स्थापित धारणा के खिलाफ है जिसके मुताबिक औरतों के वोट का फैसला पुरुष ही करते हैं।
-ज्योत्सना अनूप यादव