16-May-2019 06:30 AM
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रामचरितमानस स्वर्ग जाने का साधन नहीं है बल्कि यह धरती पर स्वर्ग लाने का साधन है। रामचरितमानस भारतीय संस्कृति का आधार है। रामचरितमानस एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें ज्ञान, विज्ञान, कृषि, सामाजिक समरसता, आपसी भाईचारा, राष्ट्रीयता, देशभक्ति, माता-पिता और परिवार के प्रति प्रेम, समाज के प्रति भलाई की भावना की शिक्षा मिलती है। तुलसीदास जी लिखते हैं...
नामु राम को कल्पतरु,
कलि कल्याण निवास।
जो सुमिरत भयो भाग ते,
तुलसी तुलसीदासु।
यानी कलियुग में राम का नाम कल्पतरु (मन चाहा पदार्थ देने वाला) और कल्याण का निवास (मुक्ति का घर) है, जिसको स्मरण करने से निकृष्ट तुलसीदास तुलसी के समान पवित्र हो गया। सनातन धर्म के धार्मिक ग्रंथ सिर्फ पौराणिक कथाओं और धार्मिक कर्मकांडों के बारे में ही नहीं बताते हैं। इन ग्रंथों में छिपी हैं जीवन को सरल, सहज और सफल बनाने की विधियां। श्रीमद्भगवत गीता के साथ ही श्रीरामचरितमानस में भी कई ऐसे सूत्र दिए गए हैं, जो मानव जीवन के लिए बहुत उपयोगी हैं...
रिपु रुज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि।
अस कहि बिबिध बिलाप करि लागी रोदन करन।।
यहां हम जिन 6 सूत्रों की बात कर रहे हैं, वे सूत्र श्रीरामचरितमानस के अरण्यकांड से लिए गए हैं। जब लक्ष्मण राक्षसी सूर्पनखा की नाक काट देते हैं, तब वह रावण के समीप विलाप करती हुई जाती है और फिर खुद को संभालते हुए उससे नीति के ये 6 सूत्र कहती है। रामचरितमानस में कहा गया है कि अपने शत्रु को कभी भी छोटा समझकर छोड़ नहीं देना चाहिए। ना ही कभी उसे अनदेखा करना चाहिए। क्योंकि मौका मिलते ही वह अपना रंग दिखाएगा और हानि पहुंचाने का प्रयास करेगा। इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं। जिन राजाओं ने अपने शत्रुओं को छोटा समझकर अनदेखा किया या छोड़ दिया, उन्होंने बाद में उनका राज-पाठ तक हड़प लिया।
हमें कभी अपनी बीमारी या चोट को छोटा नहीं समझना चाहिए। कई बार एक छोटा-सा घाव नासूर बनकर जीवन परेशानियों से भर देता है। वहीं, मामूली लगने वाली बीमारी अंदर-अंदर फैलकर शरीर को खोखला कर देती है। एक छोटी चिंगारी को भी कभी छोटा समझकर अनदेखा नहीं करना चाहिए। यहां तक की बुझा दी गई माचिस की तिल्ली में अगर जरा-सी चिंगारी बाकी रह जाती है तो वह भी बड़े से बड़े अग्निकांड का कारण बन सकती है।
सिर्फ धार्मिक पुस्तकें ही नहीं, घर में मिली परवरिश भी हमें यही शिक्षा देती है कि पाप कर्म और गलत कार्यों से सदैव दूर रहना चाहिए। कभी यह सोचकर किसी गलत काम का हिस्सा नहीं बनना चाहिए कि छोटी-सी बात है। पाप केवल पाप होता है, उसमें कुछ छोटा या बड़ा नहीं होता।
सांप चाहे कितना भी छोटा हो, उसके आकार पर नहीं जाना चाहिए। क्योंकि अगर आप सांप के बच्चे यानी सपोले को छोटा समझकर आज छोड़ देंगे तो कल वह आपको ही डंस सकता है। कई बार होता है कि सपेरे अपने अतिविश्वास के कारण किसी सांप को देखकर यह सोचते हैं कि छोटा ही तो है, आसानी से पकड़ा जाएगा और इस दौरान वह लापरवाही बरत देते हैं, जो उन्हीं पर भारी पड़ती है। वे खुद उस छोटे दिखने वाले सांप का शिकार बन जाते हैं। इसलिए सांप, बिच्छु और बुरे वक्त का कारण बन सकने वाले किसी भी जीव को छोटा नहीं समझना चाहिए।
रामचरितमानस केवल हमें भव से उद्धार ही नहीं करता है, बल्कि हमारी लेखनी, बोली और भाषा को भी संवारता है। बेहतर लिखने की बात हो, या बोलने की, आखिरकार भाषा ही हमारे काम आती है। भाषा को संवारने के लिए जरूरी है कि हमारे शब्द-भंडार ठीक-ठाक हों। इस लिहाज से देखें, तो रामचरितमानसÓ एकदम बेजोड़ साहित्य है। तुलसीदासजी की इस रचना को अगर हम धर्म, नैतिकता, मर्यादा, कथा- इन सभी से अलग रखकर देखें, फिर भी यह हिंदी सुधारने और संवारने के लिए एकदम सटीक रचना है। किसी तरफ से एकाध पेज पढ़कर भी आप बाबाÓ के भाषा ज्ञान से लाभ उठा सकते हैं। इस बात को एक उदाहरण से अच्छी तरह समझा जा सकता है।
मान लें, किसी बच्चे ने अपना होमवर्क पूरा करने के लिए आपसे समुद्रÓ के लिए कुछ पयार्यवाची शब्द (समान अर्थ रखने वाले शब्द) पूछ डाले, तो आप उसे क्या-क्या बताएंगे और उसे यह किस तरह रटाएंगे? अगर आप थोड़ा वक्त निकालकर मानस के पन्ने उलट-पलट करते रहेंगे, तो शब्दों की कमी कभी पास नहीं फटकेगी।
लंकाकांड के सिर्फ एक दोहे में ही समुद्र के एक नहीं, दो नहीं, पांच नहीं, सात नहीं, पूरे दस-दस पर्यायवाची शब्द दिए गए हैं। चूंकि ये गेय (गाने योग्य) हैं, इसलिए इन्हें याद रखना भी बेहद आसान है। देखिए वह चौपाई...
बांध्यो बननिधि नीरनिधि जलधि सिंधु बारीस।
सत्य तोयनिधि कंपति उदधि पयोधि नदीस।।
लंकापति रावण को जब यह खबर मिली कि समुद्र पर पुल बना दिया गया है, तो उसके अचरज का ठिकाना नहीं रहा। इसी आश्चर्य में वह अपने दसों मुंह से कहने लगा कि क्या समुद्र को सचमुच बांध लिया गया है? ऊपर के दोहे में बांध्योÓ और सत्यÓ को छोड़कर बाकी सभी शब्द समुद्र के लिए ही आए हैं। इस तरह अब आपके पास समुद्र के लिए हैं इतने सारे शब्द वननिधि, नीरनिधि, जलधि, सिंधु, वारीश, तोयनिधि, कंपति, उदधि, पयोधि, नदीश। यह तो सिर्फ एक उदाहरण है। ज्यों-ज्यों आप इसमें गोते लगाते जाएंगे, थोड़ा और गहराई में उतरने का आपका उत्साह दिनोंदिन बढ़ता जाएगा। इस ग्रंथ का पूरा लाभ उठाने के लिए जरूरी है कि आप इसका वह संस्करण अपने पास रखें, जिसमें भावार्थ दिए गए हों।
-ओम