22-Dec-2018 06:54 AM
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रामचरितमानस मनुष्य के अशांत मन को शांत कर उसमें सदविचार पैदा करने का सशक्त माध्यम है। इसमें जीवन से मुक्ति नहीं वरन भक्ति का भाव है। आपस का प्रेम, सद्भाव व उच्च कोटि का संस्कार है। इसलिए बच्चों को बाल्यावस्था से ही मानस का पाठ कराना चाहिए। तुलसी का मानस व्यक्ति के पारिवारिक जीवन का मार्गदर्शक है।
तुलसीदास इतने सौभाग्यशाली कवि है कि उन्हें विद्वान तो जानता ही है, एक अनपढ़ भी जानता है और उन पर उतनी ही श्रद्धा रखता है। लोक में तुलसी की वाणी पत्थर की लकीर है, जो तुलसी ने कह दिया, उससे बड़ा प्रमाण कुछ और हो नहीं सकता। तुलसी विश्वमंगल और जन-मन के कवि हैं। उन्होंने उपासना और साहित्य को एकीभूत किया तथा उसे जनमानस की श्रद्धा का विषय बनाया। भारतीय संस्कृति अध्यात्म और उपासना की संस्कृति है। तुलसी ने वेद, उपनिषद्, पुराण, महाकाव्य, खंडकाव्य, दर्शन इत्यादि समस्त वाङ्मय का अध्ययन कर उसे अपनी कविता में लोक के स्वभाव के अनुरूप उतारा। शास्त्र की सार्थकता रूक्षता में नहीं कोमलता में होती है और यह कोमलता कविता में तभी उतरती है जब यह कवि का स्वभाव बन जाता है। तुलसी का साहित्य शास्त्र के इसी स्वरूप की परिणति है।
महात्मा नरहर्यानंदाचार्य के शिष्य तुलसीदास वेदान्त शास्त्र के पण्डित हैं। शास्त्रीय सिद्धान्तों को लोकोन्मुख बना कर प्रस्तुत कर देना उनकी विलक्षणता है। गूढ़तम विषय तुलसी की लेखनी का संस्पर्श पाकर स्पष्ट हो जाता है। रामचरितमानस, विनय पत्रिका आदि में उनके पाण्डित्य की पराकाष्ठा और निरूपण का वैशिष्ट्य देखा जा सकता है। निर्गुण और सगुण ब्रह्म का निरूपण करते हुए वे कहते हैं -
नेति नेति जेहि बेद निरूपा।
निजानन्द निरूपाधि अनूपा।।
तुलसी वेदांत के गूढ़ रहस्य को राम ब्रह्म चिन्मय अबिनासी तथा ईश्वर अंस जीव अविनासी, राम सच्चिदानन्द दिनेसा और सोई सच्चिदानंद घन रामा कह कर स्पष्ट कर देते हैं। तुलसी के राम लोक के राम हैं, लोक उनमें एकीभूत है। उन्होंने राम के ऐसे चरित्र को प्रस्तुत किया है जिससे राम सबके अपने राम बन गए, उनके राम मात्र सुखी के ही राम नहीं बल्कि दु:खी के भी राम हैं-जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न। राम लोक के आराध्य तो हैं ही तुलसी ने उनका इतना लौकिकीकरण कर दिया है कि राम कभी पुत्र के रूप में, कभी जामाता के रूप में, कभी बन्धु और सखा के रूप में प्रत्येक व्यक्ति के साथ रहते हैं।
हर घर में जन्म लेने वाला पुत्र राम है, पिता दशरथ है और माता कौसल्या तथा वह नगर अयोध्या बन जाता है। लोक में पुत्र के जन्मोत्सव पर गाए जाने वाले लोकगीतों में हर घर में रामजन्म की आहट सुनाई देती है। इसी प्रकार पुत्री सीता से अभेद रखती है। राम और सीता से प्रत्येक पुत्र और पुत्री का अभेद जन्म और विवाह दोनों स्थलों पर अभिव्यक्त होता है। प्रत्येक पिता दशरथ और जनक दोनों है, नगर अयोध्या और जनकपुरी दोनों है। तुलसी की यही विशेषता है कि उन्होंने राम को जनमानस में बसाकर उसमें समस्त शास्त्रीय तत्वों को घटाया। ब्रह्म की सच्चिदानन्दरूपता पंडित को समझ में आ सकती है किन्तु लोक उसे नहीं समझ सकता। लेकिन तुलसी जब उसे राम में घटाते हैं तो एक निरक्षर भी उसके मर्म तक पहुंच जाता है।
उपनिषदों में निरूपित ब्रह्म की जगत्कारणता को तुलसी सहजता से राम में आरोपित कर प्रस्तुत करते हैं-जेहि सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा। समग्र तुलसी साहित्य शास्त्रीय तत्वों की अभिव्यक्ति है। ऐसी अभिव्यक्ति जो जनमानस में रची बसी है और जनमानस उसमें रचा-बसा है। रामचरितमानस काव्य कम शास्त्र ज्यादा है। वह जन-जन को प्रकाश प्रदान करता है। आज विश्व भौतिकता की पराकाष्ठा को लांघ रहा है, हमारी सांस्कृतिक मर्यादाएं टूट रही हैं, माता पिता का तिरस्कार हो रहा है, लोग एक-दूसरे का संकोच छोड़कर केवल पेट भरने में लगे हैं, सभ्यता असभ्यता से पराजित हो रही है, ऐसे में तुलसी का साहित्य हमारा महान् मार्गदर्शक बन सकता है।
त्याग, तपस्या, पितृभक्ति आदि के प्रतिरूप तुलसी के राम किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष के राम नहीं, वह एकता, अखण्डता, राष्ट्रभक्ति के प्रतीक हैं, इसलिए सबके राम हैं, सबके आराध्य हैं। लोक श्रुति की जगह तुलसी को प्रमाण मानता है और तुलसी श्रुति को। श्रुति के रहस्य को तुलसी जानते हैं किन्तु लोक तुलसी को जानता है। तुलसी शास्त्र को अपनी कविता में उतार कर लोक के आस-पास की चीज बना देते हैं और उनकी कविता शास्त्र बन कर लोक का मार्गदर्शन करती है, इसीलिए वह विश्वमंगल के लिए, मानव मंगल के लिए उपयोगी है।
तुलसीदास लोकमंगल के ध्वजवाहक हैं। उनकी लेखनी का हर शब्द सौहार्द का संदेश वाहक है। तुलसीदास के धीरोदात्त नायक मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम की राज व्यवस्था सामाजिक सौहार्द और भाईचारे का ताना-बाना ही थी। राम के बाल्यकाल से लेकर सिंहासन के त्याग तक और वनवास से लेकर लंकाकांड तक जो भी कथा है, उसमें भाईचारा, प्रकृति-पर्यावरण की रक्षा, दलितों-आदिवासियों के साथ समभाव, पक्षियों के प्रति संवेदनशीलता, वन्य जीवों के लिए दया, नारियों का सम्मान, ऋषियों-मुनियों के प्रति आभार पग-पग पर परिलक्षित होता है। तुलसीदास अपनी लेखनी से जो राम-काज करते हैं, वह राम के शक्तिशील सौंदर्य की व्याख्या के साथ राम के चिन्तन- चरित्र-चेतना का निरूपण भी है और मर्यादा का विश्लेषण भी।
-ओम