02-Aug-2013 09:58 AM
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हलाहल विष से संयुक्त साक्षात मृत्यु स्वरूप भगवान शिव यदि समस्त जगत को जीवन प्रदान कर सकते हैं। यहाँ तक कि अपने जीवन तक को दाँव पर लगा सकते हैं तो उनके लिए और क्या अदेय ही रह जाता है? सांसारिक प्राणियों को इस विष का जरा भी आतप न पहुँचे इसको ध्यान में रखते हुए वे स्वयं बर्फीली चोटियों पर निवास करते हैं। विष की उग्रता को कम करने के लिए साथ में अन्य उपकारार्थ अपने सिर पर शीतल अमृतमयी जल किन्तु उग्रधारा वाली नदी गंगा को धारण कर रखा है। उस विष की उग्रता को कम करने के लिए अत्यंत ठंडी तासीर वाले हिमांशु अर्थात चन्द्रमा को धारण कर रखा

है। और श्रावण मास आते-आते प्रचण्ड रश्मि-पुंज युक्त सूर्य ( वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ में किरणें उग्र आतपयुक्त होती हैं।) को भी अपने आगोश में शीतलता प्रदान करने लगते हैं। भगवान सूर्य और शिव की एकात्मकता का बहुत ही अच्छा निरूपण शिव पुराण की वायवीय संहिता में किया गया है। यथा-
दिवाकरो महेशस्यमूर्तिर्दीप्त सुमण्डल:।
निर्गुणो गुणसंकीर्णस्तथैव गुणकेवल:।
अविकारात्मकष्चाद्य एक: सामान्यविक्रिय:।
असाधारणकर्मा च सृष्टिस्थितिलयक्रमात्?। एवं त्रिधा चतुर्द्धा च विभक्त: पंचधा पुन:।
चतुर्थावरणे षम्भो: पूजिताष्चनुगै: सह। शिवप्रिय: शिवासक्त: शिवपादार्चने रत:।
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिषतु मंगलम्?।Ó
अर्थात् भगवान सूर्य महेश्वर की मूर्ति हैं, उनका सुन्दर मण्डल दीप्तिमान है, वे निर्गुण होते हुए भी कल्याण मय गुणों से युक्त हैं, केवल सुणरूप हैं, निर्विकार, सबके आदि कारण और एकमात्र (अद्वितीय) हैं। यह सामान्य जगत उन्हीं की सृष्टि है, सृष्टि, पालन और संहार के क्रम से उनके कर्म असाधारण हैं, इस तरह वे तीन, चार और पाँच रूपों में विभक्त हैं, भगवान शिव के चौथे आवरण में अनुचरों सहित उनकी पूजा हुई है, वे शिव के प्रिय, शिव में ही आशक्त तथा शिव के चरणारविन्दों की अर्चना में तत्पर हैं, ऐसे सूर्यदेव शिवा और शिव की आज्ञा का सत्कार करके मुझे मंगल प्रदान करें। तो ऐसे महान पावन सूर्य-शिव समागम वाले श्रावण माह में भगवान शिव की अल्प पूजा भी अमोघ पुण्य प्रदान करने वाली है तो इसमें आश्चर्य कैसा?
सावन के माह का महत्व: हिन्दू कैलेण्डर के बारह मासों में से सावन का महीना अपनी विशेष पहचान रखता है। इस माह में चारों ओर हरियाली छाई रहती है। ऐसा लगता है मानों प्रकृति में एक नई जान आ गई है। वेदों में मानव तथा प्रकृति का बड़ा ही गहरा संबंध बताया गया है। वेदों में लिखी बातों का अर्थ है कि बारिश में ब्राह्मण वेद पाठ तथा धर्म ग्रंथों का अध्ययन करते हैं। इन मंत्रों को पढऩे से व्यक्ति को सुख तथा शांति मिलती है। सावन में बारिश होती है। इस बारिश में अनेक प्रकार के जीव-जंतु बाहर निकलकर आते हैं। यह सभी जन्तु विभिन्न प्रकार की आवाजें निकालते हैं। उस समय वातावरण ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने अपना मौन व्रत तोड़कर अभी बोलना आरम्भ किया हो।
जीव-जन्तुओं की भाषा का वर्णन इस प्रकार किया गया है कि जिस प्रकार बारिश होने पर जीव-जन्तु बोलने लगते हैं उसी प्रकार व्यक्ति को सावन के महीने से शुरु होने वाले चौमासों (चार मास) में ईश्वर की भक्ति के लिए धर्म ग्रंथों का पाठ सुनना चाहिए। धर्मिक दृष्टि से समस्त प्रकृति ही शिव का रुप है। इस कारण प्रकृति की पूजा के रुप में इस माह में शिव की पूजा विशेष रुप से की जाती है। सावन के महीने में वर्षा अत्यधिक होती है। इस माह में चारों ओर जल की मात्रा अधिक होने से शिव का जलाभिषेक किया जाता है।
शिव पूजन क्यों किया जाता है: प्राचीन ग्रंथों के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान समुद्र से विष निकला था। इस विष को पीने के लिए शिव भगवान आगे आए और उन्होंने विषपान कर लिया। जिस माह में शिवजी ने विष पिया था वह सावन का माह था। विष पीने के बाद शिवजी के तन में ताप बढ़ गया। सभी देवी - देवताओं और शिव के भक्तों ने उनको शीतलता प्रदान की लेकिन शिवजी भगवान को शीतलता नहीं मिली। शीतलता पाने के लिए भोलेनाथ ने चन्द्रमा को अपने सिर पर धारण किया। इससे उन्हें शीतलता मिल गई। ऐसी मान्यता भी है कि शिवजी के विषपान से उत्पन्न ताप को शीतलता प्रदान करने के लिए मेघराज इन्द्र ने भी बहुत वर्षा की थी। इससे भगवान शिव को बहुत शांति मिली। इसी घटना के बाद सावन का महीना भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए मनाया जाता है। सारा सावन, विशेष रुप से सोमवार को, भगवान शिव को जल अर्पित किया जाता है। महाशिवरात्रि के बाद पूरे वर्ष में यह दूसरा अवसर होता है जब भग्वान शिव की पूजा बड़े ही धूमधाम से मनाई जाती है।
सावन माह की विशेषता: हिन्दु धर्म के अनुसार सावन के पूरे माह में भगवान शंकर का पूजन किया जाता है। इस माह को भोलेनाथ का माह माना जाता है। भगवान शिव का माह मानने के पीछे एक पौराणिक कथा है। इस कथा के अनुसार देवी सती ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति से अपने शरीर का त्याग कर दिया था। अपने शरीर का त्याग करने से पूर्व देवी ने महादेव को हर जन्म में पति के रुप में पाने का प्रण किया था। अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती के नाम से हिमालय और रानी मैना के घर में जन्म लिया। इस जन्म में देवी पार्वती ने युवावस्था में सावन के माह में निराहार रहकर कठोर व्रत किया। यह व्रत उन्होंने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए किए। भगवान शिव पार्वती से प्रसन्न हुए और बाद में यह व्रत सावन के माह में विशेष रुप से रखे जाने लगे।