17-Sep-2018 06:04 AM
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भगवान गणेश की अराधना का पर्व गणेश चतुर्थी 13 सितंबर से शुरू हो गई है। घर, मंदिर के साथ ही चौक-चौराहों पर विघ्नहर्ता की मूर्तियां स्थापित कर पूजा अराधना शुरू हो गई है। भक्तों को उम्मीद है कि उनकी मनोकामना पूरी होगी। शास्त्रों के अनुसार भगवान गणेश की पूजा अगर शुद्धता, सात्विकता और समर्पण भाव से की जाए तो निश्चित रूप से मनोकामना पूरी होती है।
भगवान गजाजन को देवताओं में प्रथम पूज्य, विघ्नहर्ता और सुखकर्ता कहा जाता है। यही नहीं वो रिद्धि-सिद्धि के दाता भी हैं। वैसे तो धार्मिक ग्रंथों में भगवान गजानन को प्रसन्न करने और उनकी कृपा पाने के लिए अनेकों स्तुति, मंत्रों का वर्णन हैं। धार्मिक ग्रंथों में प्रथम पूज्य गजानन की कई स्तुतियां हैं, लेकिन मनवांछित फल प्राप्त करने के लिए कई अलग-अलग मंत्र हैं। पूजन करते समय इन मंत्रों के जाप से आपको मनचाहा फल प्राप्त होगा।
विघ्न-बाधा दूर करने के लिए
विघ्नेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय
लम्बोदराय सकलाय जगद्धिताय ।
नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय
गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते ।।
मंत्र हमारी सारी बाधाओं को दूर कर देता है।
गणेश हमारी संस्कृति के मंगलमूर्ति देव हैं। वैसे तो हमारे समस्त देवी-देवताओं में दातापन है, किन्तु गणेश मंगलदाता हैं। वे सारे काज निर्विघ्न पूर्ण करते हैं। हमारे लोकगीतों में उनकी प्रशस्ति के गीत हैं। मालवी लोकगीतों में तो गणेश की पारस की मूर्ति बनाने की कल्पना है, जिसे छूकर हमारा विकारी जीवन स्वर्ण बन जाए। दरअसल, गणेश हमारे सोच, चिंतन, धारणा और व्यवहार में इसलिए पूजनीय हैं क्योंकि वे गुणों की खान हैं। उनमें समस्त गुण और शक्तियां शोभायमान हैं। श्री गणेश अर्थात् श्री गुणेश। वे श्री अर्थात् श्रेष्ठ तो हैं ही, देवताओं में गुणों के देव हैं।
आज जगह-जगह अमंगल का साम्राज्य है। दुर्गुणों का बोल-बाला है। हिंसा, क्रोध और विकारों से भरपूर है पूरा जीवन। विवेक लुप्त है। सहानुभूतियां गुम हैं। धर्म के नाम पर आडम्बर शीर्ष पर है। मनुष्य मात्र जैसे अपने लक्ष्य अर्थात् अन्तरदर्शन को भूल गया है। ज्ञान और विवेक ही जब विलुप्त है तो फिर आदमी से दैवोचित व्यवहार की उम्मीद कैसे की जाए? गणेश हमें दैवोचित गुणों को धारण करने की प्रेरणा देते हैं।
एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम्।
अभयं वरदं हस्तैर्विभ्राणं मूषकध्वजम्।
रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्।
रक्तगंधाऽनुलिप्तांगं रक्तपुष्पै: सुपुजितम्।।
सच पूछो तो हमारे देवताओं की पवित्र नजरों में निहाल करने की शक्तियां हैं। इसीलिए तो आज भी उनकी जड़-मूर्तियों के सम्मुख लाखों, हजारों लोग सिर टेकते हैं, मन्नतें मांगते हैं और कल्याण की कामना करते हैं। गणेश विघ्न-विनाशक मंगलमूर्ति देव ऐसे देव हैं जिनका दर्शन मात्र हमारे समस्त विकारों का नाश करता है।
गणेश हमारे बोल, संकल्प, दृष्टि, चलन, व्यवहार को पवित्र बनाने वाले परम प्रेरक देव हैं। गणेश की आकृति ही स्पष्ट रूप से सिद्ध करती है कि उनका स्वरूप सचमुच दैवी गुणों की आकृति है। गणेश की आंखें छोटी हैं जो हमें सिखाती है कि हमारी दृष्टि सूक्ष्म हो। गणेश के सूप जैसे कान बताते हैं कि हम दुनिया की बातें सुनें, सबकी सुनें, किन्तु अचल-अडौल बने रहें। गणेश का छोटा मुंह इस बात का प्रतीक है कि हम कम बोलें, कम आकांक्षाएं रखें।
प्रथमं वक्रतुण्डं च एकदतं द्वितीयकंम्।
तृतीयं कृष्णपिङ्गाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम्।।
लम्बोदरं पञ्चमं च षष्ठं विकटमेव च।
सप्तमं विघ्नराजं च धूम्रवर्णं तथाष्टमम्।।
नवमं भालचद्रं च दशमं तु विनायकम।
एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननमं।।
कहने का तात्पर्य है कि जब हम गणेश जैसे विकार रहित हो जाएंगे तो स्वयं मंगल-मूरत बन जाएंगे। गणेश की प्रशस्ति और पूजा इसी में है कि हम गणेश के स्वरूप को अपने गुणों में धारण करें।
-ओम