कितना साम्य है प्रेम और सत्ता में
18-Aug-2018 10:38 AM 1234925
अभी तक सुना था कि प्रेम ही जीवन है। जीवन में प्रेम नहीं तो कुछ भी नहीं। प्रेम का मतलब ही है कि कोई और आपके लिए आपसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। यह सुखदायी तो होता ही है तथापि दुखदायी भी हो सकता है क्योंकि इससे स्वयं के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगता है। जैसे ही किसी से कहा नहीं कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ, व्यक्ति अपनी पूरी आजादी खो देता है। अपनी आजादी सामने वाले के पास गिरवी रख देता है। स्वयं के पास जो कुछ है वह खो देता है। जो करना चाहता है, वह नहीं कर सकता, बहुत सी बाधाएं आ खड़ी होती हैं। लगता है कि यह एक मीठा जहर है, बेहद मीठा जहर। कई लोग इसे धीमा जहर भी मानते हैं जिसमें व्यक्ति धीमे-धीमे खुद को मिटाकर मुक्ति पा जाता है! लेकिन यह जहर है इसका पूर्वाभास नहीं होता, वह तो इसका रसपान करने के बाद ही समझ आता है कि अरे, यह तो जहर है और जहर भी कैसा! साइनाईड! लेकिन ऐसा सभी के लिए हो यह जरूरी भी नहीं। खैर, प्रेम का मतलब ही है किसी को पा लेना और स्वयं को खो देना। प्रेम में व्यक्ति यदि कुछ पाता है तो बहुत कुछ उसे देना भी पड़ता है। एक तरह का बन्धन है यह। कोई इसे जीवन कहता है तो कोई जहर। अब जब प्रेम की परिभाषा समझने का प्रयास करता हूँ तो लगता है कि सत्ता का मतलब भी तो यही है! सत्ता पाकर भी तो व्यक्ति सुध-बुध खो देता है। इसमें भी कुछ पाकर बहुत कुछ देने को तत्पर रहना पड़ता है। सत्ता में भी कोई स्वयं से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। सत्ता सुखदायी तो होती ही है तथापि यह दुखदायी भी हो जाती है क्योंकि इसमें भले ही पद-प्रतिष्ठा हो लेकिन स्वयं का अस्तित्व यानी आंतरिक मान-सम्मान, स्वाभिमान तिरोहित हो जाता है। प्रेम पिपासु की तरह जैसे ही सत्ता पिपासु व्यक्ति हुआ नहीं कि वह अपनी पूरी आजादी खो देता है। निजी जीवन सार्वजनिक हो जाता है। स्वयं के पास जो कुछ है, वह जग का हो जाता है या फिर गठबन्धन का! जो स्वयं करना चाहता है, वह कर नहीं सकता। जग बैरी हो जाता है सो अलग! बहुत सी बाधाएं आ खड़ी होती हैं। कुछ पलों के लिए लगता है कि कहां सत्ता के चक्कर में फंस गए लेकिन माया-मोह ऐसा कि अगले ही पल सब कुछ भूलकर सत्ता की बाहों में झूलकर बेसूध हो जाते हैं! कारण यह भी है कि यह एक मीठा और स्वादिष्ट जहरीला व्यंजन है, बेहद मीठा और स्वाद भरा। यह भी कह सकते हैं कि यह धीमा जहर होता है जिसमें व्यक्ति का अस्तित्व एकदम से समाप्त नहीं होता और इसीलिए व्यक्ति आसन्न संकट को आभासित नहीं कर पाता। जहां थोड़ा बहुत कष्ट होता है या होता दिखाई देता है तो वह इसे मीठा जहर समझकर स्वयं को भगवान शिव मान कण्ठ में धारण कर लेने की गलतफहमी पाल लेता है जबकि सत्ता का जहर तो सारे शरीर में फैल चुका होता है तथापि असुरी प्रवृत्ति के मध्य इस जहरीली मिठास का आनन्द उसे स्वर्गिक सुख प्रदान करता है। इसके बावजूद सत्ता जीवन भी है, लाईफ लाईन है। मृत्यु के सन्निकट पहुंचा व्यक्ति भी सत्ता पाते ही जैसे संजीवनी पा जाता है तब इस बात की पुष्टि होती सी लगती है कि सत्ता तो जीवन है। सत्ता कैसे भी मिले, एक बार बस मिल जाए! जिस तरह से प्रेम में यह नहीं देखा जाता कि सामने वाला कौन है और कैसा है! कहा भी गया है कि दिल लगा गधी से तो परी क्या चीज है। ठीक उसी तरह से सत्ता में भी यह नहीं देखा जाता कि वह कैसे मिल रही है, क्यों मिल रही है! ऐसे में यदि आंखों से आंसू भी बहे तो वे खुशी के आंसू ही कहे जायेंगे। सत्ता की चाशनी मीठा-मीठा स्वाद देती है। भले ही वह जहर लगे, भले ही आंखों से नीर बहें, सत्ता में लीन रहना तो लाजमी है। अहा! कितना साम्य है प्रेम और सत्ता में! दोनों में गठजोड़ और गठबन्धन है, छुटकारा कहां आसान! दोनों में ही कुछ या किसी को व्यक्ति पा लेता है और स्वयं को खो देता है। दोनों में ही बन्धन है लेकिन दोनों में ही व्यक्ति लीन हो जाता है गमगीन होकर भी खुशी-खुशी! चाहे वह कुमार अवस्था में हो या फिर स्वामी की अवस्था पा जाए। -डॉ प्रदीप उपाध्याय
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