03-Jul-2018 08:43 AM
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काश, आत्मा होती और शरीर नहीं होता तो कितना अच्छा होता! उक्त विचार मुझे तब आया जब मेरे नाक के नथुने में घुसडम घुसडू होके घुसडम घुसडू हो रही थी। एक पल तो मुझे ऐसा लगा कि मेरी तन भूमि के नासिका रण क्षेत्र में उत्तर कोरिया और अमेरिका द्वारा परमाणु विस्फोट कार्यक्रम संचालित किया जा रहा है। मेरे इस शक को बार-बार लगातार बिना कहे घर पर घुस आने वाले पड़ोसी की भांति आने वाली छींको ने यकीन में तब्दील कर दिया। घड़ी की सुई के बढऩे के साथ ही मामला ओर भी पेचीदा होता जा रहा था। नाक से बहने वाली वैतरणी, जिसका नामकरण आधुनिक हिन्दी भी करने में खुद को अक्षम समझती है, प्रवाहित होती जा रही थी। लेकिन इस वैतरणी का जल आज की नदियों से कई गुणा स्वच्छ प्रतीत हो रहा था। नथुनों से बहने वाली वैतरणी के जल को रूमाल नामक अवशोषक ऐसे ग्रहण कर रहा था, जैसे एक अरसे से प्यासी धरती पर गिरती बारिश की बूंदे पलक झपकते ही छूमंतर हो जाती है। मामला इस मुकाम पर पहुंच गया कि मुझे न चाहते हुए भी गली के झोलाछाप डॉक्टर की शरण में जाने के लिए विवश होना पड़ा।
हालांकि मेरे गांव में भारत सरकार द्वारा खोला गया प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र सकुशल विद्यमान है जिसको मैंने इससे पहले अपनी सेवा का मौका दिया था तो परिणामत: यह हुआ कि मुझे ओर भी व्यथित होकर घूम फिरकर अपनी गली के झोलाछाप डॉक्टर के पास ही आना पड़ा। इसलिए इस बार मैं सीधे ही इसकी शरण में बिना राजकीय चिकित्सक को व्यथित किये पहुंच गया। मरीजों की लंबी कतार में मैं भी ऐसे ही खड़ा हो गया जैसे नोटबंदी के वक्त हुआ था। बढ़ती हुई लाइन और सामने बैठे झोलाछाप डॉक्टर के झोले ने मुझे यह सोचने पर विवश किया कि काश, मैं झोलाछाप डॉक्टर होता तो कितना अच्छा होता। सुबह बढिय़ा नहा-धोकर अगरबत्ती करके एक चहुंदिशा में घूमने वाली कुर्सी पर बैठकर मरीजों के दिल को परिश्रावक से चैक कर रहा होता। कतार में खड़े-खड़े मैंने प्रति मरीज से ली जाने वाली पचास रुपये की फीस के हिसाब एक झोलाछाप डॉक्टर के प्रतिदिन की पगार का मोटा-मोटा हिसाब लगाया तो आंकड़ा कुल पन्द्रह सौ रुपये तक पाया। पन्द्रह सौ रुपये तो केवल आम दिन की आमदनी बाकी सीजन के समय तो तीन से चार हजार की प्रतिदिन की आमदनी मानकर चलिए ! यह दसवीं के बाद साइंस लेने का असली फायदा है। आदमी डॉक्टर नहीं बने तो भी बैठे-बैठे इतना तो कमा सकता है जितना एक मजदूर कड़ी धूप में मेहनत करके और एक लेखक दफ्तर में दिमाग का दही करके भी नहीं कमा पाता।
अब कतार में मैं ट्रैफिक जाम के वक्त रेंगती हुई गाडिय़ों की तरह रेंगते हुए झोलाछाप डॉक्टर के सन्निकट जा पहुंचा। उसने मुझे चैक करना शुरू किया। चैक करने के बाद मेरे हाथों में पर्ची थमा दी और कहा दवाइयां लेकर आओ।
मैं दवाइयां लेकर आया तो सुइयों को देखकर मेरी हालत पतली होने लगी। एक अजीब सी कंपन ने मुझे भूकंप-सा आभास कराया। मेरे नाक की वैतरणी सहसा ही सुनामी मेें बदलने लगी। मैंने तपाक से कहा- सुई-वुई ना लगाये। यह सुन उसने मुझे ऐसे देखा जैसे मैंने उसे फीस देने से इंकार कर दिया हो। एक लंबी सांस के बाद बोल पड़ा- सुई से डरते हो, इतने बड़े हो गये, फिर भी! मैंने अपनी वीरता का परिचय देते हुए कहा- मैं तलवार से नहीं डरता तो सुई से क्या खाक डरूंगा। मैं तो इसलिए मना कर रहा था कि आप सुई लगाने की फीस अलग से लेते है ना..! अगर नि:शुल्क लगानी है तो एक नहीं दो लगाइए आपको हक है। उसने मुझे अपना झोला दिखाते हुए कहा- फ्री की सेवा करूंगा तो ये कैसे भरेगा? मैं उसे सेवा का मेवा देकर घर लौट आया। आते ही सो गया। लेकिन इस घटना ने मुझे अहसास कराया कि चींटी जैसी बला भी शेर जैसे बहादुर प्राणी को नानी याद दिला सकती है। इस शीत युद्ध के बाद मेरी संवेदना रोगियों के प्रति काफी हद तक बढ़ गई और मेरा मन ओर भी तीव्र गति से झोलाछाप डॉक्टर बनने की इच्छा में गमन करने लगा।
-देवेन्द्रराज सुथार