पगड़ी पर राजनीति
03-Jul-2018 08:05 AM 1234871
एनसीपी प्रमुख शरद पवार के नए कदम ने महाराष्ट्र में पगड़ी पर राजनीति शुरू कर दी है। पुणे में 10 जून को शरद पवार ने छगन भुजबल का स्वागत परंपरागत पुणेरी पगड़ी की बजाय फुले पगड़ी से किया था। संदेश साफ था कि छगन भुजबल पिछड़ी जातियों के साथ खड़े हैं और एनसीपी सिर्फ मराठाओं की पार्टी नहीं है। 10 जून को शरद पवार ने पुणे में छगन भुजबल का स्वागत परंपरागत पुणेरी पगड़ीÓ की बजाय फुले पगड़ीÓ से किया था। दरअसल, पिछले कई दशकों में पुणेरी पगड़ी और फुले पगड़ी अलग-अलग जातीय वर्गों का सांकेतिक चिह्न बन गईं हैं और अब पवार ने पुणेरी पगड़ी की जगह फुले पगड़ी अपनाने की बात कही है, जिसके गहरे सियासी मायने निकाले जा रहे हैं। शिवसेना ने शरद पवार पर जातीय ध्रुवीकरण का आरोप लगाया है। आप सोच रहे होंगे कि आखिर इन पगडिय़ों में ऐसा क्या है कि विवाद खड़ा हो गया है। इसके लिए इन दोनों पगडिय़ों के इतिहास को जानने की जरूरत है। पुणेरी पगड़ी पेशवाई के दौर में अस्तित्व में आई। इसे ब्राह्मण शासकों पेशवाओं का प्रतीक चिह्न माना जाता है। इसका इस्तेमाल समाज में ऊंचा ओहदा रखने वाले शिक्षित और संपन्न लोग किया करते थे। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, जस्टिस रानाडे जैसे आजादी के नायक भी इस पगड़ी को पहनते थे। दूसरी तरफ, दलितों, महिलाओं की बेहतरी के लिए काम करने वाले समाज सुधारक ज्योतिबा फुले भी एक खास तरह की पगड़ी पहनते थे। उन्हीं के नाम पर फुले पगड़ी का अस्तित्व सामने आया। महात्मा फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले ने जीवन भर दलित और महिलाओं के जीवन सुधार के लिए काम किया, वे पिछड़े समाज का प्रतिनिधित्व करते थे। राष्ट्रवादी के पुणे समारोह में क्रांतिवीर छगन भुजबल ने सिर पर महात्मा फुले की पगड़ी पहनी थी जबकि शरद पवार के सिर पर पुणेरी पगड़ी पहनाने की कोशिश की गई तो उन्होंने साफ नकार दिया। यह पगड़ीÓ नाट्य पहले से ही तय कर एक विशेष समाज को संदेश देने के लिए ही किया गया। पुणेरी पगड़ी धारण कर लोकमान्य तिलक ने देश भर ख्याति अर्जित की। तिलक सिर्फ ब्राह्मण नहीं थे बल्कि भारतीय असंतोष के जनक और तेली-तंबोलियों के नेता थे। बहुजन समाज में स्वतंत्रता की प्रेरणा निर्माण करने का कार्य उन्होंने किया। इतना ही नहीं बल्कि छत्रपति शिवाजी राजे को स्वतंत्रता आंदोलन का नायकÓ बनाकर शिवजयंती उत्सव शुरू किया। जाति के खिलाफ लडऩे वाले और स्वतंत्रता की बजाय सामाजिक सुधार पहले, ऐसा कहने वाले आगरकर के सिर पर भी यही पगड़ी थी। गोखले, चिपलूणकर भी पगड़ीÓ बहादुर थे। इस पगड़ी को नकार कर पवार ने क्या हासिल किया? भटशाही के खिलाफ प्रबोधनकार ठाकरे ने भी आंदोलन शुरू किया लेकिन उन्होंने ब्राह्मणÓ के रूप में अन्य जातियों से द्वेष नहीं किया। पेशवा के न्यायमूर्ति रामशास्त्री प्रभुणे ब्राह्मण थे और वे मर्द थे। पवार ने पगड़ीÓ नकार कर समाज में छिद्र निर्माण किया। शरद पवार एक बेहद मंझे हुए राजनेता माने जाते हैं। उन्हें कब, क्या, कैसे और कितना बोलना ये अच्छी तरह पता है। 2019 के लोकसभा चुनाव में अब सालभर से भी कम का वक्त बचा है और हर पार्टी पिछड़ी जाति के लोगों को अपने साथ जोडऩे के जुगत में हैं। शरद पवार के पगड़ी में फेरबदल को भी पिछड़ी जातियों को साथ लाने की कवायद बताया जा रहा है। हालांकि, विपक्ष इस कदम को जातिवादी बताने में जुटा हुआ है। सबके निशाने पर पवार शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने सामना के संपादकीय में शरद पवार की पगड़ी की राजनीति पर जमकर हमला बोला। उद्धव ने कहा की शरद पवार का संतुलन बिगड़ गया है और आत्मविश्वास डगमगाता दिख रहा है। ठाकरे ने कहा कि उन्होंने जो पगड़ी की राजनीति शुरू की है वो महाराष्ट्र के लिए खतरे की घंटी है। उद्धव आगे लिखते हैं कि महाराष्ट्र में जातीय ध्रुवीकरण करने के लिए कई तरह की कोशिशें हो रही हैं। भीमा कोरेगांव की घटना के बाद पवार की पार्टी को नया पैंतरा मिलने की बात भी उद्धव ठाकर ने कही है। विवाद को बढ़ता देख शरद पवार ने कहा है की फुले पगड़ी को लेकर उनके बयान का गलत मतलब निकाला जा रहा है। उन्होंने कहा कि जिन लोगों के आदर्शों को लेकर वो चलते हैं उनमें छत्रपति शाहूजी महाराज, ज्योतिबा फुले और बाबा साहेब अंबेडकर हैं। इस मामले में बीजेपी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। सोशल मीडिया पर पवार के पगड़ी वाले बयान की जमकर आलोचना की जा रही है। -बिन्दु माथुर
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