18-Jun-2018 09:35 AM
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शहर सपने जगाते हैं। सिर्फ रोजगार नहीं, सड़क, बिजली, पानी जैसी सहूलियतों और रहन-सहन की चमक-दमक भरी जीवनशैली के बल पर भी शहर अरसे से गांव-कस्बे के लोगों को अपनी ओर खींचते रहे हैं। यह चलन बना रहेगा, क्योंकि गांव-देहात के चौतरफा पिछड़ेपन से निजात पाने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि किसी शहर की राह पकड़ ली जाए। पर इस शहरी जीवन की कीमत हर शख्स किसी न किसी रूप में चुकाता है। लेकिन महिलाओं को यह कीमत कुछ ज्यादा ही चुकानी पड़ती है। खासतौर से वे उस खुशी से महरूम हो जाती हैं जो उन्हें गांव-कस्बों में आसान जिंदगी के साथ मिलती रही। सपने जगाने वाले शहर अगर महिलाओं की खुशी छीन रहे हैं तो इसे लेकर हमारे समाजशास्त्रियों और योजनाकारों को सचेत हो जाना चाहिए, क्योंकि स्वस्थ-खुशहाल महिलाओं के बिना स्वस्थ शहरी समाज की कल्पना नहीं की जा सकती।
महिलाओं में शहरी जीवन को लेकर कितनी तसल्ली है, इसे लेकर हाल में एक सर्वेक्षण किया गया। इसमें दिल्ली, मुंबई, बंगलुरू और कोलकाता की बारह सौ महिलाओं को शामिल किया गया था। सर्वेक्षण में घरेलू और कामकाजी महिलाओं से पूछा गया था कि क्या विकसित शहरों की जिंदगी उन्हें किसी तरह की खुशी देती है। इस सवाल पर ज्यादातर महिलाओं ने नकारात्मक जवाब दिया। सत्तर फीसदी महिलाओं ने कहा कि शहर उन्हें खुश रखने में नाकाम हो गए हैं। शहरी जीवन से इस नाखुशी और नाउम्मीदी का एक कारण यह है कि शहरी महिलाओं से घर और दफ्तर, दोनों मोर्चों पर उनसे बेहद ऊंची अपेक्षाएं पालने के बावजूद सफलता का श्रेय महिलाओं को नहीं दिया जाता। अक्सर कहा जाता है कि यह तो उनसे न्यूनतम अपेक्षित है, इसके बिना शहरी जीवन से तालमेल बिठाना मुमकिन नहीं है। बच्चों को स्कूल बस तक छोडऩा, पति के लिए नाश्ते-लंच की व्यवस्था करना, राशन लाना, बैंक-बिजली के बिल आदि काम निपटाना- अब ऐसे कई सारे काम शहरी महिलाओं के जिम्मे आ पड़े हैं और एकल परिवारों में प्राय: इनमें कोई बाहरी मदद उन्हें नहीं मिलती है। महिलाओं की तकलीफ उस वक्त बढ़ जाती है, जब उन्हें ये काम कामयाबी से निपटाने के बाद भी कोई सराहना नहीं मिलती। इसके बदले न तो वे कोई आय पाती हैं और न ही शाबासी। शहरी महिलाओं ने अपनी नाखुशी की दूसरी वजह यह बताई कि उनसे बेहद ऊंची या अव्यावहारिक उम्मीदें लगाई जाती हैं और जब वे इसमें नाकाम होती हैं तो इसके लिए उन्हें कोसा जाता है। जैसे इंटरनेट से कई सारे काम निपटाना या अंग्रेजी बोलचाल में प्रवीण होना। गांव-कस्बों से ब्याह कर शहरों में आई महिलाओं का वास्ता जब ऐसी चीजों से पड़ता है, जिससे उनका पहले कभी कोई सरोकार नहीं रहा, तो अक्सर वे विफल होती हैं और इसके लिए खुद को कोसती हैं।
असल में समस्या एक ही जिंदगी में दोहरी-तिहरी जिंदगियां जीने और उसमें खुद को कामयाब बनाने की कोशिशों से उठ खड़ी हुई है। वैसे तो पूरी दुनिया में ही एक स्त्री का जीवन ऐसे बदलावों से गुजरता है। उनका पहला जीवन मायके से जुड़ा होता है, विवाह के बाद का जीवन ससुराल से। ऐसे में उनके लिए जीवन की शर्तें और कसौटियां बदल जाती हैं। लेकिन इसमें खासतौर से हमारे देश में हो रहे तेज शहरीकरण ने एक अलग किस्म के पैमाने स्त्रियों के लिए बना दिए हैं। इन बदलते कायदों का अहसास स्त्रियों को है और वे भरसक इसके लिए खुद को तैयार भी कर रही हैं। आज के ग्रामीण और कस्बाई जीवन को करीब से देखा जाए, तो पता चलेगा कि कैसे वहां की किशोरियां अपनी पढ़ाई-लिखाई, कोचिंग-ट्रेनिंग पर ध्यान लगा रही हैं। जिंदगी को बेहतर करने का उनका सपना उन्हें गांव-कस्बों से निकाल कर दूर शहरों में भेज रहा है ताकि वे उम्दा रोजगार पा सकें। हमारे देश की महिलाएं अभी बदलाव के इस संक्रमण काल से गुजर रही हैं जिसमें उन्हें शहरी जीवन से तालमेल बिठाने के बारे में काफी कुछ सीखना है। लेकिन बदलाव की इस कड़ी में शहरी समाज उनसे ज्यादा अपेक्षाएं लगा बैठा है।
सांस्कृतिक शून्यता
महिलाओं को शहरों में एक तरह के सांस्कृतिक शून्य का भी सामना करना पड़ता है। भारत के शहरों में परंपरागत संस्कृति के ढांचे टूट रहे हैं और आधुनिक शहरी शिष्टाचार सिर्फ महिलाओं के मामले में नहीं, किसी भी मामले में आमतौर पर नदारद है। इस वजह से ज्यादातर शहर महिलाओं के नजरिये से आक्रामक और असुरक्षित बन गए हैं। अन्य विकासशील देशों की तरह भारत में भी महिलाएं बड़ी तादाद में कामकाजी हुई हैं और घर से बाहर उनकी मौजूदगी बढ़ी है। ऐसे में, पुरुष प्रधान समाज में एक सांस्कृतिक बदलाव हो रहा है, जिसके लिए बहुत से पुरुष तैयार नहीं हैं और यह महिलाओं के प्रति उनके व्यवहार में आक्रामकता के रूप में प्रकट होता है।
-ज्योत्सना अनूप यादव