18-Jun-2018 09:33 AM
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उपचुनावों में लगातार मिल रही हार के बाद भाजपा को यह एहसास हो गया है कि बिना सहयोगियों के समर्थन के उसकी नैय्या पार नहीं होने वाली है। ऐसे में नाराज सहयोगी पार्टी शिवसेना को मनाने के प्रयास के तहत भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने विगत दिनों उद्धव ठाकरे से मुलाकात की। लेकिन इस मुलाकात के एक दिन बाद ही शिवसेना प्रमुख उधव ठाकर ने यह कहकर की अभी जो कुछ भी हो रहा है, वह सब एक ड्रामा है, भाजपा के मंसूबे पर पानी फेर दिया है।
ज्ञातव्य है कि 6 जून को भाजपा ने अमित शाह और उद्धव ठाकरे की बैठक को सकारात्मक बताया था और दावा किया था कि दोनों सहयोगी दलों के बीच तनाव कम हुआ है। लेकिन शिवसेना नेता संजय राउत ने साफ शब्दों में कह दिया कि पार्टी ने अपना रास्ता बना लिया है। दरअसल, सारी लड़ाई इसी बात पर है कि महाराष्ट्र में बड़ा भाई कौन है। कुछ-कुछ वैसे ही जैसे बिहार में जेडीयू और बीजेपी के बीच फांस फंसी हुई है। 1999 से ही सीटों के बंटवारे का फार्मूला तय था। विधानसभा चुनाव में यह 171-117 था। यानी शिवसेना 171 और बीजेपी 117। 2009 में दो सीटें कम-ज्यादा हुईं। यानी 169-119। जबकि लोक सभा चुनाव में बीजेपी अमूमन 26 और शिवसेना 22 सीटों पर चुनाव लड़ती आई हैं। लेकिन 2014 के लोक सभा चुनाव में अपने बूते बहुमत हासिल कर
चुकी बीजेपी अब छोटा भाई रहने के लिए तैयार नहीं थी।
भाजपा ने अक्टूबर के विधानसभा चुनाव में बड़ा हिस्सा मांगा। उत्तर भारतीय पार्टी मानी जाने वाली बीजेपी को लोक सभा चुनाव में बड़े पैमाने पर मराठा और गुजराती वोट भी मिले। बीजेपी को लगा कि उसका महाराष्ट्र में ज्यादा फैलाव हुआ है इसलिए पचास ऐसी सीटें जहां शिवसेना कभी नहीं जीती, बीजेपी को मिलनी चाहिए। माना गया कि इसके पीछे अमित शाह का ही दिमाग था। शिवसेना इसके लिए तैयार नहीं हुई। बीजेपी और शिवसेना का गठबंधन टूटा और दोनों पार्टियां अलग-अलग लड़ीं। बीजेपी को 122 सीटें मिलीं और वह बहुमत से दूर रही। लेकिन पहली बार मुख्यमंत्री बीजेपी का बना और शिवसेना का उप मुख्यमंत्री तक नहीं बन पाया। मातोश्री के हाथों से रिमोट कंट्रोल चला गया। केंद्र में भी शिवसेना का एक ही कैबिनेट मंत्री बना और जब अनिल देसाई को कैबिनेट मंत्री बनाने की बात नहीं मानी गई तो वे शपथ ग्रहण समारोह के दिन एयरपोर्ट से ही मुंबई वापस चले गए।
बाला साहेब ठाकरे के वक्त बेहद मजबूत शिवसेना इतनी बेबस और लाचार कभी नहीं दिखी। बीएमसी में भी बीजेपी को शिवसेना से सिर्फ सात सीटें कम मिलीं। हालांकि बाद में बीजेपी ने वहां शिवसेना को समर्थन दे दिया। अब शिवसेना बीजेपी को उसी की भाषा में जवाब देना चाहती है। विधानसभा में शिवसेना अपना वर्चस्व चाहती थी जो बीजेपी ने नहीं होने दिया। अब शिवसेना जानती है कि बीजेपी के लिए 2019 का लोक सभा चुनाव कितना महत्वपूर्ण है। यूपी के बाद महाराष्ट्र सबसे ज्यादा सांसद भेजता है। अब हिसाब चुकाने की बारी शिवसेना की है। हालांकि न्योते के बावजूद शिवसेना ने कुमारस्वामी के शपथग्रहण समारोह में विपक्षी एकता के प्रदर्शन में हिस्सा नहीं लिया। हिंदुवादी राजनीति के ठप्पे के चलते कांग्रेस-एनसीपी उसके नजदीक नहीं आना चाह रही। लेकिन शिवसेना अब अगर बीजेपी से गठबंधन के लिए तैयार भी होगी तो उसकी बड़ी कीमत वसूलेगी क्योंकि इस बार गरज बीजेपी की है। पर शिवसेना के भीतर से आवाजें भी उठ रही हैं। एक बड़ा खेमा चाहता है कि बीजेपी से रिश्ते न टूटें।
कांग्रेस-शिवसेना-एनसीपी
महाराष्ट्र के राजनीतिक पंडितों का मानना है कि आने वाले समय में कांग्रेस, शिवसेना और एनसीपी का गठबंधन एकदम खुलेआम तो नहीं ही हो सकता है लेकिन वे आपसी सहमति के आधार पर कुछ कर सकते हैं। शिवाजी यूनिवर्सिटी में पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर प्रकाश पवार कहते हैं, कांग्रेस-एनसीपी शिवसेना के साथ एक समझौता कर सकते हैं कि वे मुंबई और कोंकण में अपने कमजोर उम्मीदवार उतारकर शिवसेना को मजबूत करेंगे, इसके बदले में पश्चिमी महाराष्ट्र और विदर्भ में ठीक ऐसा ही शिवसेना कांग्रेस-एनसीपी के सामने करे। अकोलकर कहते हैं, शिवसेना की हिंदुत्ववादी नीति को देखते हुए, अगर ये तीनों एक साथ आ जाते हैं तो इन्हीं लोगों का नुकसान होगा और बीजेपी को फायदा हो जाएगा। भंडारा-गोंदिया में हार के बाद बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता का कहना है, पिछले साल इस इलाके में सूखा पड़ा था और लोगों को राहत मिलने में हुई देरी से किसानों में गुस्सा था। वही गुस्सा उपचुनाव में दिखा।
-ऋतेन्द्र माथुर