वीरे दी वेडिंग फुहड़ता का नंंगा प्रदर्शन
18-Jun-2018 09:21 AM 1234976
यदि आप मानते हैं कि नारी की प्रगतिशीलता के मायने ड्रग्स का सेवन करना, खुलेआम शराब व सिगरेट पीना, अपने पति को गंदी-गंदी गालियां देना, खुलेआम सेक्स व आर्गज्म पर बेबाक बातें करना है, तो फिल्म वीरे दी वेडिंगÓÓ आपके लिए है, अन्यथा कहानी के नाम पर यह फिल्म शून्य है। ऐसा लगता है कि एकता इन दिनों सिर्फ और सिर्फ यौनाचार को बढ़ावा दे रही हैं। प्लेटफॉर्म चाहे कोई भी हो, एकता का प्रयास उसमें यौन संबंधी मसाले डालना भर रह गया है। वीरे दी वेडिंग में भी जो भाषा का इस्तेमाल किया गया है, उसका इस्तेमाल करने के लिए दोस्तों की फिल्म बनाने वाले कई फिल्मकार भी डर जाएंगे। इस तरह की भाषा अगर दोस्तों की फिल्म में इस्तेमाल की जाती तो सेंसर समेत कई महिला मुक्ति मोर्चा फिल्म निर्माता और निर्देशक के पीछे पड़ जाते हैं, मगर वीरे दी वेडिंग के संवाद द्विअर्थी नहीं हैं, बल्कि सीधे-सीधे कामुकता के वाहक हैं। जी हां! रोमांटिक कॉमेडी फिल्म वीरे दी वेडिंगÓÓ तमाम सामाजिक मान्यताओं व सोच को तोडऩे वाली बोल्ड फिल्म होते हुए भी विचलित करती है। पूरी फिल्म एकता कपूर की कंपनी बालाजी टेलीफिल्मसÓ मार्का सीरियल व कई तरह के विज्ञापनों का मुरब्बा है। फिल्मकार शशांक घोष ने अपनी इस फिल्म में नारी पात्रों के मार्फत विवाह को मूर्खता, दोस्ती को जीवन उद्धारक, शराब को पानी का पर्याय, यौन संबंध को स्वास्थ्यवर्धक, सिगरेट को तनाव भगाने का आसान उपाय, बदनामी को अति आवश्यक और फैशन को हर समय की जरुरत बताया है। फिल्म की कहानी के केंद्र में दिल्ली में रह रही हाई स्कूल के दिनों की चार सहेलियां कालिंदी पुरी (करीना कपूर), अवनी शर्मा (सोनम कपूर), साक्षी सोनी (स्वरा भास्कर) और मीरा सूद (शिखा तलसानिया) हैं। इनकी सूत्रधार कालिंदी पुरी है। फिल्म शुरू होती है हाई स्कूल की परीक्षा के समापन का जश्न मनाते हुए, इन लड़कियों की हरकतों यानी कि इनके बियर्ड प्वाइंट पर पहुंचने पर इनके एटीट्यूड का अहसास होता है। भारतीय सिनेमा जगत में स्वतंत्र व आधुनिक नारी के इस रूप व इस तरह की हरकतों वाली फिल्म अब तक नहीं बनी है। इस तरह वीरे दी वेडिंगÓ सिने जगत में एक नए अध्याय की शुरुआत है। यह चारों नारी पात्र अपनी सफलता व अपने हर कदम को अपने लिए एक सम्मानजनक तमगा समझती हैं। यह सभी अपनी गलतियों के साथ निरंतर आगे बढ़ती रहती हैं। भारतीय परिवेश व भारतीय सोच के तहत इन्हें पवित्र परिभाषित नहीं किया जा सकता। जब वासना व प्यार की बात आती है, तो यह चारों लड़कियां भारतीय सामाजिक मूल्यों व सोच के तहत असहनीय मानी जाएंगी। यूं तो कहानी व कहानी के मोड़ जीवन को बदलने वाले या चौंकाने वाले नहीं हैं। अपनी-अपनी जिंदगी से जूझना व दिल के टूटने के कथानक पर सैकड़ों फिल्में बन चुकी हैं, पर पहली बार इस कथानक पर नारी पात्रों के साथ फिल्म बनायी गयी है। मगर लेखक व निर्देशक किसी भी किरदार को गहराई के साथ पेश नहीं कर पाए। पटकथा लेखक बुरी तरह से असफल हुए हैं। सभी पात्र काफी सतही व उथले छोर से हैं। परिणामत: दर्शक इन किरदारों की यात्रा का सहभागी नहीं बन पाता। इनके साथ जुड़ नहीं पाता। चारों सहेलियों की गप्पबाजी के चलते फिल्म एक ही जगह ठहरी हुई सी लगती है। फिल्म पर निर्देशक शशांक घोष की कोई पकड़ नजर नहीं आती। फिल्म बार- बार एकता कपूर मार्का टीवी सीरियल की याद दिलाती रहती है। फिल्म कई जगह आपको विचलित करती है। युवा पीढ़ी खासकर टीनएजर उम्र के दर्शकों को अहसास हो सकता है कि फिल्म उनके मन की बात करती है। प्यार व शादी को लेकर यह फिल्म उत्साहित नहीं करती। जिन्होंने विदेशी सीरियल सेक्स एंड द सिटीÓ या ब्राइड्समैड देखा है, उन्हे यह फिल्म इनका अति घटिया रूपांतरण नजर आएगी।
FIRST NAME LAST NAME MOBILE with Country Code EMAIL
SUBJECT/QUESTION/MESSAGE
© 2025 - All Rights Reserved - Akshnews | Hosted by SysNano Infotech | Version Yellow Loop 24.12.01 | Structured Data Test | ^