04-Jun-2018 07:30 AM
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घरेलू नौकरानी या सहायिका या पूर्णकालिक सहायिका अब महानगरीय और शहरी जीवन की विवशता बनती जा रही है। इसके पीछे दो मुख्य कारण हैं, पहला पति परंपरावादी पुरुष की अपनी छवि से बाहर नहीं निकल पाया है, और दूसरा, शहरी जीवन में संयुक्त परिवार के लिए गुंजाइश निरंतर कम होती गई है। नगरों और महानगरों ही नहीं, अब कस्बों में रहने वाले पति-पत्नी या कई बार दोनों अपने जीवन में किसी तरह की कोई रोक-टोक नहीं चाहते हैं। यही कारण है कि दोनों में से कोई भी अपने अन्य परिवारजनों को साथ में नहीं रखना चाहते हैं, जिसका खमियाजा उन्हें रोजमर्रा की जिंदगी जीने में झेलना पड़ता है। खासकर बच्चों को प्यार करने वाला या उनके साथ समय बिताने वाला कोई अपना नहीं होता। मां-बाप भी बच्चों को घरेलू सहायिका के भरोसे छोड़ देते हैं और बच्चे भी उन्हीं के साथ जीना सीख
जाते हैं।
नौकरीशुदा महिलाओं की विवशता तो समझी जा सकती है लेकिन नई पीढ़ी की ‘हाउस वाइफ’ भी घर के काम खुद करने में शर्म महसूस करती हैं। यही कारण है कि भारत के महानगरों, शहरों और उनसे जुड़े उपनगरीय इलाकों में ‘डोमेस्टिक हेल्प सर्विस’ का एक बहुत बड़ा बाजार खड़ा हो चुका है। घरेलू नौकरानी के रूप में काम करने वाली महिलाओं की एक बड़ी तादाद देश के पिछड़े, गरीब, दलित समुदायों और आदिवासी इलाकों से आती है। इनमें से अधिकतर वे महिलाएं होती हैं, जो शहरों में रोजगार खोजने आए अपने पति या परिवार के साथ आती हैं। इस तरह की महिलाएं कई घरों में कुछ-कुछ घंटे काम करती हैं लेकिन इनकी आमदनी बहुत कम होती है।
आए दिन खबरें मिलती हैं कि आदिवासी और अन्य पिछड़े इलाकों से किशोर लड़कियों को झांसा देकर लाया जाता है और उन्हें शहरों में रहने वाले पढ़े-लिखे और पैसे वाले लोग एक बार की कीमत अदा करके या फिर मासिक तनख्वाह पर रख लेते हैं, जिसमें से एक बड़ी राशि एजेंसी वाले हड़प लेते हैं। भारत में घरेलू सहायिका के रूप में काम करने वाली महिलाओं की बड़ी संख्या बंधुआ मजदूर जैसा जीवन जीने को विवश है।
समान्यत: उनके साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है, जैसे खुद उनकी अपनी कोई जरूरत नहीं है, वे बस अमीर लोगों की सेवा करने के लिए जनमी हैं। इस तरह का व्यवहार उनमें से कुछ में समाज और व्यवस्था के प्रति गुस्सा पैदा करता है और कभी-कभी यह अपराध की शक्ल अख्तियार कर लेता है। लेकिन सवाल यह भी है कि घरेलू सहायकों और सहायिकाओं के साथ होने वाले अपराधों का भी क्या उतनी ही संजीदगी से संज्ञान लिया जाता है? अपने हक के लिए लडऩे वाली कथित आधुनिक महिलाएं कैसे भूल जाती हैं कि उन महिलाओं के भी अधिकार हैं जो गरीब-दलित समुदायों और आदिवासी तथा अन्य पिछड़े इलाकों से आती हैं और उनकी भी अपनी खुद की ख्वाहिशें हो सकती हैं, वे भी उनकी तरह खुले आसमान में उडऩे का हौसला रख सकती हैं।
शहरीकरण, एकल परिवारों के बढ़ते चलन और जीवनशैली में बदलाव की वजह से जन्म ले रहे सामाजिक परिवर्तन के बीच भारत में घरेलू कर्मियों की बाबत काफी सुधार और बदलाव की जरूरत है, क्योंकि सरकारी और निजी क्षेत्र दोनों में कार्य करने वाले अधिकारियों और कर्मचारियों की तनख्वाह तो हर साल बढ़ती है लेकिन उस अनुपात में घरेलू सहायक का काम करने वालों का वेतन या पारिश्रमिक लगभग स्थिर रहता है। देश में बाल मजदूरी को रोकने और श्रम के मानकों को लेकर ढेर सारे कानून हैं, लेकिन जरूरत उनके प्रभावी क्रियान्वयन की है। एक आंकलन के अनुसार दलित, आदिवासी और अतिपिछड़ी जातियों की लड़कियों के स्कूल छोडऩे की दर इस वर्ग के लडक़ों के मुकाबले, अन्य सभी वर्गों के बरक्स, अधिक है।
इसी के साथ ही, इनके विवाह की औसत उम्र महज पंद्रह साल है, जिसके चलते इनके भविष्य की सारी संभावनाएं भी शून्य हो जाती हैं। इस तरह से जहां यह सच है कि महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक और कामकाजी स्थिति तमाम प्रगति तथा बदलावों के बाद भी पुरुषों के मुकाबले बहुत कमतर है, उसी तरह से यह भी सच है कि उच्च सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक स्थिति वाली महिलाओं के मुकाबले दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़ी महिलाओं की सामाजिक व कामकाजी दशा बहुत ही शोचनीय है। महिलाओं के सामाजिक, आर्थिक और कामकाजी अधिकार के साथ-साथ उनके न्यायिक हक को केवल महिला सशक्तीकरण के एक नारे के साथ नहीं लड़ा जा सकता है। सामाजिक स्थिति और आर्थिक वर्ग के आधार पर, सशक्तीकरण की उनकी लड़ाई को मजबूती देनी होगी।
तीन चौथाई आबादी की व्यथा
कामकाजी स्तर पर देखें तो दलित, आदिवासी और अतिपिछड़ी जातियों की महिलाएं अमूमन ‘निचले दर्जे’ के कामों में ही कार्यरत हैं। जो ऊंचे पदों पर पहुंची हैं उनकी गिनती उंगलियों पर की जा सकती है। पिछड़े वर्ग की महिलाएं सामाजिक बाध्यताओं के चलते घरों में बैठना पसंद करती हैं लेकिन एक स्तर के नीचे के काम के लिए खुद को तैयार नहीं कर पाती हैं। इस तरह सामाजिक स्थिति और आर्थिक बाध्यताएं कामकाजी स्तर को सीधे प्रभावित करती हैं। यह आधी आबादी के अंदर की तीन चौथाई आबादी की व्यथा है। यह व्यथा आर्थिक और कामकाजी स्तर पर ही नहीं, कई और मोर्चों पर भी साफ-साफ देखी जा सकती है।
-ज्योत्सना अनूप यादव