कहीं नाक, न कट जाए?
17-Feb-2018 10:05 AM 1234930
मानव शरीर में अत्यंत अल्पसंख्यकÓ होने के कारण नाक को आरक्षण की सुविधा मिली हुई है। वह कटती है और कभी ऊंची भी होती है। दिमाग और दिल भी नाक के समान अल्पसंख्यक वर्ग में ही आते हैं, लेकिन आपने कभी सुना- दिल ऊंचा हो गया या कट गया? दिमाग भी खराब हो सकता है, ज्यादा से ज्यादा सुन्न हो सकता है, और बहुत ही हो गया साहब तो-फट सकता है और भी कुछ विशेष और महत्वपूर्ण अंग हैं जो अल्पसंख्यक समुदाय से संबंध रखते हैं किन्तु उन्हें भी यह सम्मान प्राप्त नहीं हो सका! उन्हें मानव छिपाकर रखता है। वे बेचारे गाली-गलौच की दुनिया तक ही अपना नाम कमा सके हैं। किन्तु नाक की बात ही और है। और मजे की बात तो यह है कि शाब्दिक प्रहार तो इन विशेष अंगों से होता है, लेकिन नीचा होनाÓ या कटनाÓ बेचारी नाक को ही पढ़ता है। गलत काम करने की बेशर्मी करते हैं- हाथ, आंख, होंठ, जीभ या दिमाग! लेकिन चकनाचूर होती है-कौन? नाक!!! अब यहां पर जीभ और दिमाग चालबाज और चालाक राजनेताओं की तरह बिना आरक्षण के सारा फायदा उठा लेते हैं। उनका कुछ नहीं बिगड़ता। मानव शरीर में सर्वाधिक उंगली करने वालेÓ ये दोनों- दिमाग और जीभÓ ही है। जो जेड-सुरक्षाÓ का फायदा उठाते हुए सारी बदमाशियां करते रहते हैं। लेकिन कटना नाक को पड़ता है। दुनियां में सारी समस्याओं की जड़ यह जीभ-नाक-गठबंधन का ही है। वैसे नाक को ऊंची होने का जो सौभाग्य मिलता है, वहां भी भाग्य उससे छल कर जाता है। जब वह किसी के एकल प्रयास से उठती है तो और भी नाकें उसमें अपना नकसुराÓ सुर मिला कर उस ऊंचे होनेÓ में अपना योगदान घुसेड़ देती हैं। लेकिन बेचारी जब अकेली कटतीÓ है तो कोई उसके साथ कंधे से कंधा नहीं मिलाना चाहता! इन दिनों नाक कटने का राष्ट्रीय प्रदर्शन चल रहा है। मासूम बच्चों से भरी बसों को रोक कर आन-बान-शानÓ पर मरने वाले, गोलियों की बौछार कर मर्दांगी का सबूत दे रहे हैं! मनोरंजन के नाम पर मारकाट और हिंसा का आनंद लिया जा रहा है!! सिनेमा घरों का दहन कर आधुनिक गोरा-बादलÓ पद्मिनी की रक्षा के लिए कुकर्तव्य निभा रहे हैं!!! देश में कड़ाके की ठंड है लेकिन हिंसा का अलाव जलाकर गर्मी का मजा लिया जा रहा है। बात वही- सैकड़ों साल पहले खिलजी नाम के एक विदेशी आक्रांता ने हमारी नाक काटने की कोशिश की थी। उस समय अगर पैदा हो जाते तो उसकी ईंट-सें-ईंट बाजा देते। लेकिन क्या करें? वह अवसर हमें अब जो मिला है। हम कैसे चूक सकते हैं? हमारे ताऊ जो कह गए हैं- चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण। ता ऊपर सुल्तान है, मत चुको चौहान। हम अपनी गरदनें कटवा देंगे, लेकिन साहब! उस नाक को कटने तो क्या छिलने भी नहीं देंगे! फिए भले ही संविधान के राष्ट्रीय-उत्सव पर सैकड़ों विदेशी मेहमानों के सामने हमारी भद्द क्यों न पिट जाए? राष्ट्रीय स्तर पर कटी नाक को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने का इससे अच्छा मौका कब मिलेगा? यही तो समय है दुनियां को मु_ी में करने का- कर लो दुनियां मु_ी में। वैसे तो नाक काटने के सैकड़ों मामले इस देश में रोज होते रहते हैं। कभी मामा-चाचा-दादा-नाना-ताऊ-भाई या दोस्त के रूप में एक खिलजी तीन साल से तीस साल तक की पद्मिनी को जीते-जी जौहर की आग में झौंक देत है। कभी खिलजिओं की फौज मिलकर किसी पद्मिनी को इस तरह लूटती है कि आत्मग्लानि के जौहर में वह जिंदगी भर सुलगती रह जाती है। कुछ पद्मिनियों को तो मां के गर्भ में ही ये मूंछों वाले भस्म कर देते हैं जिन पर कोई जायसी कलम चलाने से वंचित रह जाता है। उस अवसर पर मोमबत्ती का उजाला हमारी मर्दांगी और वीरता की निशानी बन जाती है। हमारा खून हिमपात करने लगता है। नाक, को हमारे समाज में इज्जतÓ का पर्याय माना गया है तो मूंछों को साहस-पौरुष और वीरता का! नाक की रक्षा के लिए मूंछ को ताव देना और ऐंठना बहुत अच्छी बात है। हमें उस पर मक्खी भी नहीं बैठने देना चाहिए। लेकिन यह भी याद रखिए कि मूंछें, नाक का आधार होती हैं, इसलिए नीचे होती है। कहीं ऐसा न हो कि मूंछ बचाते-बचाते आरक्षित नाकÓ ही कट जाए? - शरद सुनेरी
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