07-Dec-2017 11:09 AM
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अंधा बांटे रेवड़ी, अपने-अपने को... यह मुहावरा है लोकोक्ति? यह गुणी ज्ञानी-जनों का विषय है। मेरी समस्या दूसरी है। क्यों कि मैं गुणी-ज्ञानी नहीं हूं। गुणी-ज्ञानी होता तो मैं रेवड़ी से मतलब रखता। अंधों से क्यूं? इसलिए आम बेवकूफों की तरह मेरे सवाल ये हैं कि, रेवड़ी अंधा ही क्यों बांटे? बांटने के लिए रेवड़ी अंधों को ही क्यों दी गई? आखिर ऐसी क्या मजबूरी आन पड़ी कि, तमाम आंख वालों को छोड़कर बांटने के लिए रेवड़ी अंधों को देनी पड़ी?
बचपन से ही इन सवालों ने परेशान कर रखा था मुझे। थोड़ा बड़ा हुआ तो पढ़ाई, और थोड़ा बड़ा हुआ तो रोजगार और थोड़ा बड़ा हुआ तो आटे-दाल के चक्कर में इस गुत्थी को ही भूल गया, लेकिन देख रहा हूं कि रेवड़ी आज भी अंधा ही बांट रहा है तो इन सवालों ने मुझे फिर से घेर लिया। सोच रहा हूं, इस गुत्थी को अब सुलझा ही लूं। नहीं तो यह दबी हुई कुंठा मेरे पुर्नजन्म का कारण बनेगी और कहीं खुदा मुझे अंधा बनाकर इसके मर्म को समझने के लिए अंधों के बीच वापस न भेज दे। क्योंकि गीता सार मैंने भी जाना है कि, अधूरी इच्छाएं और अधूरे सवाल ही इनसान को फिर से चौरासी के जेलखाने में लाते हैं। समझ में नहीं आ रहा था कि अपनी क्षुधा कैसे शांत करूं ? अपने दो चार परिचितों से इस बाबत जिक्र किया तो वे यकायक भड़क गए, ये क्या बेहूदे सवाल हैं? ऐसे सवाल कोई पूछता है भला?Ó उन्होंने इतने वितृष्ण भाव से अपना मुंह बनाया था, जिसका सीधा-सादा मतलब होता था, गधा चाहे कितनी तरक्की कर ले, रहेगा वह गधा ही।
मैं बिलकुल हताश नहीं हुआ, बल्कि उनके इस प्रकार के व्यवहार से मुझ पर उल्टा असर हुआ। मेरी धारणा बलवती हुई कि, जो भला काम करते हैं, लोग उनका पहले मजाक उड़ाते ही हैं। एक बार फिर मैंने अपने सवालों का विश्लेषण किया। विषय की गहराई में गया। मैंने जाना कि मेरे प्रश्न समाज से संबंधित हैं। तो क्यों न किसी समाजशास्त्री से पूछा जाय। मैंने समाजशास्त्र के प्राध्यापक से संपर्क किया। और अपने प्रश्नों का समाधान चाहा। समाजशास्त्री शायद मूडÓ (इस मूडÓ का कारण फिर कभी) में नहीं थे, फिर भी संयत स्वर में बोले, देखो, हम समाज का अध्ययन करते हैं। एक कल्याणकारी समाज की अवधारणा हमारी विवेचना में आती है। आपके प्रश्न हमारी अवधारणा में नहीं आते।
मैं थोड़ा निराश हो गया था। यह समाजशास्त्र का विषय नहीं तो किस शास्त्र का विषय होगा? फिर मैंने एक चोर विद्यार्थी की तरह पूछा, सर, थोड़ा हिंट तो कीजिए? गेट तक छोड़ते हुए वे मुझसे बोले थे, आपके प्रश्न नीतिगत हैं। योजना वालों से पूछ लीजिए। अपना पिंड छुड़ाने की यह भारतीय परंपरा मुझे बेहद पसंद आती है। अपनी बला किस प्रकार दूसरे के सर पर डाली जाए? यह केवल भारतीय ही जानते हैं। योजना वालों से पूछा। उन्होंने मेरे प्रश्नों का स्वागत किया। फिर सखेद कहा, हम योजनाएं बनाते हैं, नीतियां बनाते हैं। जो कि बेहतर भविष्य को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं। अर्थात हम भविष्यजीवी होते हैं। दूरदर्शी होते हैं। अतीत की परतें उघाडऩा हमारा काम नहीं है।
जिस दिन से योजना वालों ने भी बाहर का दरवाजा दिखाया है, तब से ज्यादा परेशान रहने लगा हूं। परिचितों का दो टूक जवाब, समाजशास्त्री की गैर जिम्मेदाराना हरकत, और योजनावालों की अनीति ने मुझे विचलित कर दिया। अब कौन देगा मेरे सवालों का उत्तर? अब किस प्रकार पा सकूंगा अपना समाधान? माहौल अस्थिर-सा हो गया। इसी अस्थिरता के चलते दफ्तर में मैंने चपरासी को डांट दिया। शाम तक सारे चपरासियों ने मिलकर मेरे खिलाफ मोर्चा खोल दिया। घर आया तो स्त्री से खटपट हो गई। जरा-सी बात पर बच्चों ने भी मन मोटा कर दिया। इस चक्कर में असली मुद्दा भूल गया। दुखी होने से मां की याद आ गई। ऐसा ही होता है। स्त्री जब मिठास घोल रही हो, बच्चे लिपट रहे, दफ्तर में सब ठीक चल रहा हो मां की याद नहीं आती है। मां की याद ऐसे ही मौकों पर आती है। परसो इतवार था। शनिवार की अर्जी फंसाई, और सुबह-सुबह झोला उठाया और गांव चला आया।
रामू दादा के साथ मां के दर्शन के बाद हम मंदिर की सीढिय़ों पर बैठ गए। अब मैं अर्जुन की तरह सुन रहा था। देखो बेटा, पहले राजे-महाराजों के जमाने हुआ करते थे। राजा का कर्तव्य था प्रजा की पालना और प्रजा की भलाई करना। इसलिए राजा जरूरतमंदों की हर संभव मदद करते थे। इसके लिए राजा ने अपने राज्य में पुख्ता व्यवस्थाएं की थी। जरूरतमंद राज दरबार आते, गुहार लगाते और मदद पा लेते। कुछ पल दादा रुके थे। फिर अपनी बात जारी रखी, फिर बापूजी आए, सुराज लाए। सुराज में अब मदद के स्थान पर टिकिट और खैरात बटने लगी। इस समानता की सद्इच्छा के साथ सुराज चल पड़ा। थोड़े समय बाद ही घमासान होने लगा। लोगों ने बापजी से शिकायत की, बापूजी, ये बांटने वाले भेदभाव करते हैं। संविधान में साफ लिखा गया है, धर्म, जाति, वंश लिंग, क्षेत्र, स्थान आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। यह संवैधानिक अधिकारों का हनन है।
सुनकर बापूजी का माथा ठनका। खोजबीन की तो पता चला, अवाम ठीक कह रही है। फिर उन्होंने इस भेदभाव को दूर करने के लिए युक्ति निकाली। क्यों न यह बांटने का काम किसी अंधे को सौंपा जावे? वह देख ही नहीं पाएगा तो इस प्रकार के भेदभाव की संभावनाएं ही खत्म हो जाएगी। बापूजी के स्वर्ग सिधारने के बाद सुराज का यह कार्य आज भी अनवरत जारी है।
- अरविंद कुमार खेड़े