17-Nov-2017 05:37 AM
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गोस्वामी तुलसीदास का रामचरितमानस मर्यादा का महाकाव्य है और उसके महानायक हैं श्रीराम। वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और महाकाव्य के समस्त घटनाक्रम में अपने चरित्र एवं आचरण से जिन मर्यादाओं की वे स्थापना करते हैं, वे एक आदर्श मनुष्य और प्रजारंजक शासक की तुलसी की परिकल्पना का ही महाख्यान है। तुलसी के राम परब्रह्म हैं, ईश्वर हैं, सृष्टि के पालनकर्ता विष्णु के अवतार हैं, पर वे मानव देह एवं क्षमताओं की सीमाओं की मर्यादा का उल्लंघन कहीं भी नहीं करते। भए प्रगट कृपाला का उनका रूप मां के कीजै सिसुलीला के अनुरोध की अवज्ञा नहीं करता। वे दशरथ के आंगन में एक सामान्य शिशु के रूप में विचरते हैं, शिशुक्रीड़ा करते हैं, गुरु आश्रम में विद्याध्यन हेतु जाते हैं, आश्रम के नियमों से बंधते हैं, एक राजपुत्र की भांति आखेट पर भी जाते हैं। वे अनुज सखा संग भोजन करहीं/मातु पिता अग्या अनुसरहीं की बाल्यावस्था की पूरी स्थितियों को सहज भाव से जीते हैं। यह जो अनुज-सखा का संग-भाव है, यही तो उन्हें बाद में एक सहज आमजन का नायक बनाता है। किशोरावस्था से ही वे अपने प्रजारंजक रूप का परिचय देने लगते हैं— जेहि बिधि सुखी होंहिं पुरलोगा/करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा की उनकी यही भावभूमि तो उनके रामराज्य की मर्यादा की स्थापना का प्रस्थान- बिंदु है और इसमें भी वे अपने गुरुजनों यानी अपने पिता एवं राजगुरु की आयसु मांगि करहिं पुरकाजा की ही मर्यादा की स्थापना करते चलते हैं।
उनके व्यक्तित्व में सभी सात्विक मानुषी वृत्तियां अर्थात शौर्य-धीरज-सत्य-शील-बल-विवेक-दम-परहित-क्षमा-कृपा-समता-ईशभजन-विरक्ति-संतोष-दान-बुद्धि-विज्ञान-अगम अचल मन-शम यम नियम-विप्र-गुरु के प्रति पूजा भाव अपनी परम स्थिति में उपस्थित हैं। किशोरावस्था से ही वे पूरी तरह विद्या विनय निपुन गुनसीला हैं। इसी कारण वे सर्वप्रिय हैं। गोस्वामी जी ने उनकी सर्वजनप्रियता का उल्लेख इस प्रकार किया है -
कोसलपुरवासी नर नारि
वृद्ध अरु बाल ।
प्रानहु ते प्रिय लागत सब
कहुं राम सुजान।।
उनकी एक राजा के प्रजारंजक धर्म-रक्षक रूप की पहली व्यवहारिक झलक हमें विश्वामित्र मख-प्रसंग में मिलती है। इस प्रसंग के माध्यम से आततायी के दमन एवं आस्तिक-सात्विक भावों के पोषण के उनके अवतारी विरुद की पहली बानगी मिलती है। अहल्या-प्रसंग से उनकी नारी के प्रति उदार एवं आस्तिक दृष्टि का पता चलता है। एक समाज-बहिष्कृत एवं पतिता के रूप में तिरस्कृत स्त्री की मर्यादा का रक्षण, उसकी खोई गरिमा की पुनस्र्थापना का यह अभियान राम के मर्यादापुरुषोत्तम स्वरूप को ही परिभाषित करता है। राम अनुजों के प्रिय हितैषी अग्रज हैं, मित्रों के सखा हैं, गुरुजनों के अति विनम्र आज्ञापालक शिष्य हैं। जनकपुरी में लक्ष्मण के बिना कहे ही वे उनकी जाइ जनकपुर आइअ देखी की लालसा बिसेखीÓ को जान जाते हैं और गुरु से आज्ञा लेने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लेते हैं। और फिर गुरु की अनुज्ञा लेते समय उनकी मर्यादा देखने योग्य है। परम विनीत सकुचि मुस्काई। बोले गुरु अनुसासन पाई— हां, यही तो है राम की एक विनम्र शिष्य की मर्यादा, जिसका पालन वनवास-काल में ऋषियों से सम्पर्क करते समय भी उनके व्यवहार में हमें बखूबी देखने को मिलता है। विश्वामित्र के प्रति उनके विनयशील व्यवहार की बानगी जनकपुर में बार-बार हमें देखने को मिलती है। देखें उस प्रसंग की कुछ पंक्तियां—
कौतुक देखि चले गुर पाहीं।
जानि बिलंबु त्रास मन माहीं।।
सभय सप्रेम विनीत अति सकुच
सहित दोउ भाइ।
गुरुपद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ।।
रोज की दिनचर्या में भी इसी गुरु-शिष्य की मर्यादा का समुचित पालन देखने को मिलता है। रात्रि-शयन के समय बार-बार मुनि अज्ञा दीन्हीं। रघुबर जाइ सयन तब कीन्हीं और प्रात: गुर ते पहलेहि जगतपति जागे राम सुजान।
पुष्पवाटिका प्रसंग में षोडषवर्षीय राम के मन में सीता के प्रति जिस प्रीतिभाव का उदय होता है, वह भी अत्यंत सात्त्विक एवं मर्यादित है। मन में उपजे इस आकर्षण को वे सहज भाव से स्वीकारते हैं और उदात्त रघुवंश की मर्यादा से उसे जोड़कर उसकी सामाजिक भूमिका को परिभाषित करते हैं। तुलसी ने प्रीति की इस मर्यादा को बड़ी ही शालीनता से प्रस्तुत किया है—
सिय सोभा हिय बरनि
प्रभु आपनि दसा बिचारि।
बोले सुचि मन अनुज सन
बचन समय अनुहारि।।
रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ।
मन कुपंथ पगु धरै न काऊ ।।
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी।
जेहि सपनेहु परनारि न हेरी।।
जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी।
नहिं पावहिं परतिय मनु दीठी।।
इस विषय में वे गुरु विश्वामित्र
से भी कोई दुराव नहीं करते -
राम कहा सबु कौसिक पाहीं।
सरल सुभाउ छुआ छल नाहीं ।।
पुष्प वाटिका प्रसंग में ही उनकी एक और मर्यादा देखने को मिलती है। वे वाटिका में उपस्थित मालियों से पूछकर ही पुष्प-चयन करते हैं- चहुं दिसि चितइ पूछि मालीगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन ।।। आज के शासकों, उनकी संतानों के आचरण के संदर्भ में राम के इस व्यवहार को रखकर देखें। राम के राज्यादर्श की भावभूमि ऐसी ही मर्यादाओं से तो निर्मित हुई है। परशुराम-प्रसंग राम के चरित्र, उनके आचार-विचार, उनकी व्यवहार-कुशलता एवं उनकी मर्यादा की सबसे कड़ी कसौटी है। यहां उनके विरोध में खड़े हैं उनके पूर्व के अवतारपुरुष भृगुवंशी परशुराम, जिनकी सात्त्विक अहम्मन्यता उनकी शक्ति भी है और उनके अवतारी स्वरूप की परिसीमा भी। राम यहां भी अपनी मर्यादा से विचलित नहीं होते। वे हृदय न हरसु विषाद कछु के अपने समत्वभाव को बिना त्यागे विनम्र और शिष्ट-शालीन बने रहते हैं।
-ओम