17-Oct-2017 07:52 AM
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भगवद गीता दुनिया का सबसे बड़ा ग्रंथ माना जाता है! इसके 18 अध्यायों के करीब 700 श्लोकों में हर उस समस्या का समाधान है जो कभी ना कभी हर इंसान के सामने आती हैं! गीता में जीवन की हर परेशानी का हल है और यह सही भी है। मन में कोई भी दुविधा हो, कोई भी सवाल हो या निर्णय लेने में किसी तरह का अंतद्र्वंद ही क्यों न हो, गीता के पास हर मुश्किल का हल है। बेशक यह ग्रंथ सालों पुराना हो, लेकिन आज के जीवन में भी किसी भी समस्या के समाधान और एक अच्छे और प्रभावशाली व्यक्तित्व के निर्माण में गीता की सीखों का सहारा लिया जाता है।
कुरु कर्माणि संग
त्यक्तवा धनंजय।
सिद्धय-सिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।
धर्म का अर्थ होता है कर्तव्य। धर्म के नाम पर हम अक्सर सिर्फ कर्मकांड, पूजा-पाठ, तीर्थ-मंदिरों तक सीमित रह जाते हैं। हमारे ग्रंथों ने कर्तव्य को ही धर्म कहा है। भगवान कहते हैं कि अपने कर्तव्य को पूरा करने में कभी यश-अपयश और हानि-लाभ का विचार नहीं करना चाहिए। बुद्धि को सिर्फ अपने कर्तव्य यानी धर्म पर टिकाकर काम करना चाहिए। इससे परिणाम बेहतर मिलेंगे और मन में शांति का वास होगा। मन में शांति होगी तो परमात्मा से आपका योग आसानी से होगा। आज का युवा अपने कर्तव्यों में फायदे और नुकसान का नापतौल पहले करता है, फिर उस कर्तव्य को पूरा करने के बारे में सोचता है। उस काम से तात्कालिक नुकसान देखने पर कई बार उसे टाल देते हैं और बाद में उससे ज्यादा हानि उठाते हैं।
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयत: शांतिरशांतस्य कुत: सुखम्।।
हर मनुष्य की इच्छा होती है कि उसे सुख प्राप्त हो, इसके लिए वह भटकता रहता है, लेकिन सुख का मूल तो उसके अपने मन में स्थित होता है। जिस मनुष्य का मन इंद्रियों यानी धन, वासना, आलस्य आदि में लिप्त है, उसके मन में भावना (आत्मज्ञान) नहीं होती। और जिस मनुष्य के मन में भावना नहीं होती, उसे किसी भी प्रकार से शांति नहीं मिलती और जिसके मन में शांति न हो, उसे सुख कहां से प्राप्त होगा। अत: सुख प्राप्त करने के लिए मन पर नियंत्रण होना बहुत आवश्यक है।
विहाय कामान् य: कर्वान्पुमांश्चरति निस्पृह:।
निर्ममो निरहंकार स शांतिमधिगच्छति।।
यहां भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मन में किसी भी प्रकार की इच्छा व कामना को रखकर मनुष्य को शांति प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए शांति प्राप्त करने के लिए सबसे पहले मनुष्य को अपने मन से इच्छाओं को मिटाना होगा। हम जो भी कर्म करते हैं, उसके साथ अपने अपेक्षित परिणाम को साथ में चिपका देते हैं। अपनी पसंद के परिणाम की इच्छा हमें कमजोर कर देती है। वो ना हो तो व्यक्ति का मन और ज्यादा अशांत हो जाता है। मन से ममता अथवा अहंकार आदि भावों को मिटाकर तन्मयता से अपने कर्तव्यों का पालन करना होगा। तभी मनुष्य को शांति प्राप्त होगी।
स्वयं का आंकलन
गीता में कहा गया है कि हर व्यक्ति को स्वयं का आंकलन करना चाहिए। हमें खुद हमसे अच्छी तरह और कोई नहीं जानता। इसलिए अपनी कमियों और अच्छाईयों का आंकलन कर खुद में एक अच्छे व्यक्तित्व का निर्माण करना चाहिए।
क्रोध पर नियंत्रण
गीता के अनुसार - क्रोध से भ्रम पैदा होता है, भ्रम से बुद्धि व्यग्र होती है। जब बुद्धि व्यग्र होती है तब तर्क नष्ट हो जाते हैं। जब तर्क नष्ट होते हैं तो व्यक्ति का पतन शुरू हो जाता है।Ó तो आप समझ ही गए होंगे कि किस तरह आपका गुस्सा आपको और आपके जीवन को प्रभावित कर नुकसान पहुंचता है। इसलिए अगली बार जब भी आपको गुस्सा आए, खुद को शांत रखने का प्रयास करें।
मन की माया
गीता में अपने मन पर नियंत्रण को बहुत ही अहम माना गया है। अक्सर हमारे दुखों का कारण मन ही होता है। वह अनावश्यक और निरर्थक इच्छाओं को जन्म देता है, और जब वे इच्छाएं पूरी नहीं हो पाती तो वह आपको विचलित करता है। इसी कारण जीवन में जिन लक्ष्यों को आप पाना चाहते हैं, जैसा व्यक्तित्व अपनाना चाहते हैं उससे दूर होते चले जाते हैं।
आत्म मंथन और सोच से निर्माण
गीता कहती है कि हर व्यक्ति को आत्म मंथन करना चाहिए। आत्म ज्ञान ही अहंकार को नष्ट कर सकता है। अहंकार अज्ञानता को बढ़ावा देता है। उत्कर्ष की ओर जाने के लिए? आत्म मंथन के साथ ही एक सही और सकारात्मक सोच का निर्माण करना भी जरूरी है। जैसा आप सोचेंगे, वैसा ही आप आचरण भी करेंगे। इसलिए खुद को आत्मविश्वास से भरा हुआ और सकारात्मक बनाने के लिए अपनी सोच को सही करें।
फल की इच्छा
गीता में कहा गया है कि मनुष्य जैसा कर्म करता है उसे उसके अनुरूप ही फल की प्राप्ति होती है। इस बात को अगर वर्तमान संदर्भ में लें, तो छात्र पढऩे से ज्यादा तो इस बात को सोच-सोच कर घबराते रहते हैं कि रिजल्ट कैसा आएगा। इसलिए जरूरी है कि वे अपने रिजल्ट की चिंता छोड़ कर पढऩे पर ध्यान दें। जैसा फल वे करेंगे, परिणाम उसी के अनुरूप होगा। लेकिन अगर वे फल की इच्छा में कर्म ही नहीं कर पाएंगे, तो फल भी उनकी इच्छा के अनुरूप नहीं होगा...
-ओम