16-Sep-2017 09:23 AM
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रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास ले लिखा है...
* होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा।
गईं सती जहं प्रभु सुखधामा॥
यानी जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे। (मन में) ऐसा कहकर शिवजी भगवान श्री हरि का नाम जपने लगे और सतीजी वहां गईं, जहां सुख के धाम प्रभु श्री रामचंद्रजी थे॥ यह प्रसंग उस समय का है जब माता सतीजी ने श्रीशिव भगवान् की बात पर विश्वास नहीं किया कि श्रीरामजी ही परमब्रह्म और ईश्वर हैं और माता सतीजी श्रीराम जी की परीक्षा लेने जा रही थी।
श्री शिव भगवान जो विश्वास के प्रतीक हैं, सदा सत्य बोलने वाले, त्रिकाल दर्शी, देवों के देव, ज्ञानी, योगी, और सतीजी के पति हैं और माता सती जिन्हें सारा संसार सर्वश्रेष्ठ पतिवर्ता के रूप में पूजता है वह माता सती ही श्री शिव भगवान् जी के वचनों पर विश्वास नहीं कर पायी। तब श्रीशिवजी ने यह विचार किया कि श्रीरामजी ने कुछ और ही रचा है। जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। यह केवल और केवल माता सतीजी के सन्दर्भ में ही कहा जा सकता है कि साक्षात शिव भगवान के समझाने पर भी माता सती शिवभगवान जी की बात पर विश्वास नहीं कर सकीं। शंकरजी का यह कथन जीवमात्र के लिए नहीं है परन्तु केवल सती जी के सम्बन्ध में ही था। यह वचन उस स्थिति में उनके मुंह से निकला जब उन्हें यह अनुभव हो चुका था कि श्रीराम जी ने सती जी के साथ जो लीला रच रखी है उसका कोई विशेष उद्देश्य है और वह होकर रहेगी। इसलिए शंकरजी की इस बात को जीव से घटाना ठीक नहीं। वैसे तो जो भगवान के भक्त हैं और निश्चित रूप से प्रारब्भ पर निर्भर रहते हैं वे ऐसा कह सकते हैं और उनका कहना अनुचित नहीं होगा। क्योंकि प्रारब्भ का भोग अटल और अवश्यम्भावी होता है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं की प्रारब्भ पर निर्भर रहकर कुछ किया ही ना जाए। जो भक्त प्रारब्भ पर निर्भर रहते हैं वे भी भजन-ध्यानादि, परमार्थ- साधन तो करते ही हैं। अत: प्रारब्ध पर निर्भर रहने वालो को भी अपना कर्तव्य कर्म करते रहना चाहिए और प्रारब्ध को अवश्यम्भावी समझकर अनासक्ताभाव से भोगना चाहिए। यह हम जैसे मनुष्य के विषय की बात नहीं है क्योंकि हम बहुत ही सीमित सामथ्र्य और ज्ञान रखते हैं। तथा उस सीमित ज्ञान और सामथ्र्य के साथ किसी कार्य के पूर्ण होने की सम्भावना में भी संशय रहता है। कार्य पूर्ण न होने पर इसे श्रीरामजी की इच्छा अथवा होनी का नाम देना हम मनुष्य को शोभा नहीं देता। यह तो श्रीरामजी को दोषी करार करना हुआ जो की ठीक नहीं है।
आज के समय में प्रत्येक मनुष्य इस बात को एक दिन में अनेको बार दोहराता है। जब उसे उसके द्वारा किये गए किसी भी कर्म में वांछित सफलता प्राप्त नहीं होती। अपने आप को संतुष्ट करता हुआ वह इसे श्रीराम जी की एक रचना अथवा इच्छा होने का श्रेय देता दिखता है। उसकी मान्यता अनुसार तो इस संसार में कोई भी घटना अथवा दुर्घटना के पीछे श्रीरामजी की रचना अथवा इच्छा है। वह श्रीरामजी की इच्छा को मानकर मन में संतोष कर लेता है और अपनी असफलता के कारणों को जानने का प्रयास भी नहीं करता और अपनी उन्नति का रथ रोक लेता है। पुन: वह इसे भी रामजी की ही इच्छा मानता है। क्या कोई मनुष्य श्री शिवभगवान जी से अथवा कोई स्त्री माता सतीजी से अपनी तुलना कर सकती है। क्या कोई भी मनुष्य शिव भगवान जैसे योगी, ज्ञानी, त्रिकालदर्शी, सर्वसमर्थ, सर्वव्यापी होने का दावा कर सकता है। अगर नहीं तो उस मनुष्य को यह बात कहने का अधिकार नहीं है कि जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। हम जैसे मनुष्य अपने यथासंभव कर्म करें, पुरुषार्थ हेतु तत्पर रहें, सात्विक बुद्धि रखें और फिर सब कुछ करने पर अगर कुछ प्राप्त हो जाए तो श्रीराम कृपा कहें और अगर सब प्रयास करने पर भी सफलता ना मिले तो इसमें अपनी कमी को जानने का प्रयास करना चाहिए। जो होना है वह तो होगा ही लेकिन मनुष्य को अपने विकास का प्रयास जरूर करना चाहिए।
-ओम