18-May-2013 06:55 AM
1234879
चीनी सेना ने भले ही अपने कदम पीछे खींच लिए हों लेकिन भारतीय सीमा पर खतरा कम नहीं हुआ है। दोनों देशों के बीच कूटनीतिक सफलता 20 दिन के गतिरोध के बाद अंतत: हासिल तो हुई पर

इसमें भारत ने बहुत कुछ खोया है, सैनिकों का आत्मविश्वास भी दांव पर लगा दिया गया है। यह सच है कि भारत और चीन की आर्थिक परिस्थितियां दोनों देशों को युद्ध की इजाजत नहीं देती, क्योंकि दोनों ही विकसित होते देश हैं और दोनों देशों में लोगों की आर्थिक समस्याएं लगभग एक समान है। जनसंख्या के विस्फोट से भी दोनों ही देश जूझ रहे हैं, लेकिन ड्रेगन के पीछे हटने का अर्थ यह नहीं है कि वह युद्ध के संभावित खतरे से घबरा गया है उसका इतिहास सदैव आक्रामक रहा है, मंगोल आक्रमणों से लेकर 1962 में चीनी युद्ध तक चीन की सैनिक सक्रियता की कहानी पुरानी नहीं है। नेहरूजी के शासनकाल में चाऊ एन लाइ की भारत यात्रा के समय हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा दिया गया था लेकिन चाऊ एन लाइ जैसे ही अपने देश पहुंचे चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया। यह चीन का चरित्र रहा है। पहले वहां की सेनाएं आकर सीमा पर शत्रु की औकात देखती हैं उसके बाद वहां के राजनीतिज्ञ आकर देश में राजनीतिक हालात देखते हैं और सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो हमला करने में देरी नहीं करते। जो गलती नेहरू जी ने की थी वह गलती दोबारा न हो इसलिए सतर्क रहने की आवश्यकता है। कुछ ही दिनों में चीन के प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री की यात्रा भी भारत में होने वाली है। भारत के विदेश मंंत्री सलमान खुर्शीद भी चीन जा रहे हैं। दोनों देशों के बीच तीन लाख करोड़ रुपए से अधिक का व्यापार सालाना होता है जिसमें चीन का बड़ा हिस्सा है। देखा जाए तो चीन के लिए भारत एक बहुत बड़ा बाजार है और चीनी अर्थव्यवस्था में भारत का योगदान महत्वपूर्ण है। इस दृष्टि से चीन कभी भी नहीं चाहेगा कि भारत के रुप में एक बहुत बड़ा बाजार खत्म हो जाए, लेकिन जिस तरह से चीन के आर्थिक विशेषज्ञ विचार करते हैं उस तरह से वहां के सैन्य प्रतिष्ठान विचार नहीं करते। चीनी सेना को लगता है कि भारत के रूप में एक बड़ी चुनौती उनके सामने है इसलिए वह भारतीय चुनौती को खत्म कर देना चाहती है। कुछ समय पूर्व चीन के एक रक्षा विशेषज्ञ ने अखबार में लेख लिखा था जिस लेख का सार यह था कि भारत को चार भागों में बांटा जाना चाहिए जिस देश में पड़ोसी देश की अखंडता के विषय में यह विचार व्यक्त किए जा रहे हों वहां भारत को लेकर हालात कैसे हैं यह समझा जा सकता है। बहरहाल जो गतिरोध फिलहाल टूटा है उसका सदुपयोग सरकार कर पाएगी या नहीं इसमें संदेह ही है। जिस तरह सिक्किम में चीन के खिलाफ कठोर रुख अपनाया गया उसी तरह 4 हजार किलोमीटर लंबी सीमा पर हर जगह उतना ही कठोर रुख अपनाने की आवश्यकता है। नहीं तो ड्रेगन कभी भी निगल सकता है।
चीन ने भारत की आर्थिक घेराबंदी कर दी है अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय सामानों के मुकाबले चीन के उत्पाद सर्वाधिक बिक रहे हैं दक्षिण एशियाई देशों में भी चीनी उत्पादों की भारी मांग है। 5 लाख 41 हजार 300 करोड़ रुपए का व्यापार भारत और चीन के बीच में होता है जिसमें चीन का हिस्सा दो तिहाई है। श्रीलंका, नेपाल, पाकिस्तान, मालदीव जैसे देश अब चीन से नजदीकियां बढ़ा रहे हैं। बांग्लादेश और म्यांमार भी चीन के साथ व्यापार करने में रुचि दिखा रहे हैं। चीन ने पाकिस्तान को सैनिक साजों-सामान दिया है और इस बात की भी आशंका है कि भारत पाक युद्ध के समय चीन पाकिस्तान को परोक्ष सहायता दे सकता है। इसी कारण चीन सेना की घुसपैठ को हल्के से नहीं लिया जाना चाहिए बल्कि राजनायिक, कूटनीतिक स्तर की कार्रवाई के साथ-साथ सीमा पर ताकत दिखाने की भी आवश्यकता है। बहरहाल वास्तविक नियंत्रण रेखा पर अभी भी चीनी सेना की मौजूदगी है। चीनी सेना केवल 19 किलोमीटर पीछे हटी है जबकि उसे तकरीबन डेढ़ सौ किलोमीटर पीछे होना चाहिए, लेकिन वहां तो चीन द्वारा दिन रात निर्माण कार्य कराए जा रहे हैं। इससे भी भारतीय पक्ष की चिंता बढ़ी है।
ओल्डी बेग में जो जिन 50 चीनी सैनिकों ने डेरा डाला था उनके पास सामान्य हथियार थे और उनको बेकअप देने के लिए भी कोई खास अमला मौजूद नहीं था। इससे सिद्ध होता है कि चीन भारत को केवल उकसाना चाह रहा था। हाल ही में जो समाधान हुआ है वह आस्थाई व्यवस्था है डे्रगन के रहते भारतीय सेनाओं को शांति की स्थिति में बनाए रखना अक्ल का काम नहीं है। भारत को आक्रामक रवैया दिखाना चाहिए और अपनी सीमाओं की सुरक्षा हर हाल में करनी चाहिए।