भक्ति का अर्थ है अनीति से लडऩा
02-Aug-2017 08:15 AM 1234984
सद्गुरुभक्ति योग में अर्जुन ने पूछा, जो भक्त आपके प्रेम में डूबे रहकर आपके सगुण रूप की पूजा करते हैं, या फिर जो शाश्वत, अविनाशी और निराकार की पूजा करते हैं, इन दोनों में से कौन अधिक श्रेष्ठ है।Ó भगवान श्रीकृष्ण बोले, जो लोग मुझमें अपने मन को एकाग्र करके निरंतर मेरी पूजा और भक्ति करते हैं तथा खुद को मुझे समर्पित कर देते हैं, वे मेरे परम भक्त होते हैं, लेकिन जो लोग मन-बुद्धि से परे सर्वव्यापी, निराकार की आराधना करते हैं, वे भी मुझे प्राप्त कर लेते हैं। मगर जो लोग मेरे निराकार स्वरूप में आसक्त होते हैं, उन्हें बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ता है क्योंकि सशरीर जीव के लिए उस रास्ते पर चलना बहुत कठिन है। मगर हे अर्जुन, जो लोग पूरे विश्वास के साथ अपने मन को मुझमें लगाते हैं और मेरी भक्ति में लीन होते हैं, उन्हें मैं जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त कर देता हूं।Ó विभीषण ने अनीति में अपने सगे भाई तक का साथ न दिया। अपमान और अभाव सहते रहे और समय आने पर अपनी समूची वफादारी उस न्याय और नीति के पक्ष में समर्पित कर दी, जिसे प्रकारान्तर से भगवान कहते हैं। भगवान के दरबार से कोई खाली हाथ नहीं आता। उसे सोने की लंका और अद्वितीय विदुषी मंदोदरी का लाभ मिला। प्रसंग सिद्ध करते हैं कि भगवान भक्त-वत्सल और विभूतियों के अधिपति हैं। सच्चे भक्तों की श्रेणी में सुग्रीव का नाम आता है। भक्त सुग्रीव ने जो कुछ भी अपने पास था मुक्त हस्त से दिया। दानी की खाली हुई जेबें भगवान भर देते हैं। सुग्रीव को अपना खोया हुआ राज्य और परिवार वापस मिल गया। भगवान की उदारता में कमी नहीं। पर उसे पाने के लिए घण्टी हिला देना भर काफी नहीं। सदुद्देश्यों के लिए बढ़ चढ़कर त्याग बलिदान प्रस्तुत किया जाना चाहिए। सुग्रीव के सभी साथी-सहचर समुद्र पर पुल बनाने और लंका का दमन करने के लिए निहत्थे होते हुए भी गये थे। नल-नील ने इंजीनियर का कौशल दिखाया था। बेचारी गिलहरी तक बालों में बालू भर कर समुद्र पाटने में सहायता करने के लिए पहुंची थी। उसने राम की हथेली पर बैठकर दुलार भरा वह प्यार पाया, जिसके लिए तथाकथित योगी-यती तरसते ही रहते हैं। भगवान का दर्शन पाने की जिन्हें सचमुच ललक है, उन्हें गिलहरी जैसा पुरुषार्थ और जटायु जैसा अनीति के विरुद्ध संघर्ष करना चाहिए, चाहे प्राण भले ही देने पड़ें। घायल जटायु को भगवान ने अपने आंसुओं से स्नान कराया था। जो इस झंझट से बचकर पंचामृत से शालिग्राम को स्नान कराने पर सम्पदाओं की गठरी लूटना चाहते हैं, उन्हें उनकी क्षुद्रता उस स्थान तक पहुंचने ही नहीं देती, जहां वे पहुंचना चाहते हैं। हनुमान का समर्पण सर्वविदित है। राम का पक्ष न्याय का था और रावण का अन्याय का। धर्म की रक्षा और अधर्म का उन्मूलन करना ही अवतार का और उसके अनुयायियों का कत्र्तव्य है। इसमें चाहे निजी हानि कितनी ही होती हो, कठिनाई कितनी ही उठानी पड़ती हो। हनुमान ने यही किया। वे किसी व्यक्ति विशेष के दास या चाकर नहीं थे उन्होंने नीति को विजयी बनाने के लिए लंका दहन, संजीवनी पर्वत उखाडऩे से लेकर अनेकानेक कष्ट सहे। पर क्या वे घाटे में रहे? सुग्रीव के यहां साधारण सेवक की तरह कार्य करने का बंधन छूटा और वे देवताओं की गणना में गिने गये। राम पंचायत में छठे सदस्य बने और संसार भर में पूजे गये। जितने मंदिर राम के हैं उससे कहीं अधिक हनुमान के हैं। उन्हें जो बल, पराक्रम, विवेक, कौशल, यश प्राप्त हुआ वह सब उस भक्ति का प्रतिफल था जो सच्चे अर्थों में कत्र्तव्यपरायणता और उदार साहसिकता से भरी पूरी थी। निषादराज की कथा प्रख्यात है। राम मिलन के लिए सेना समेत भरत के संबंध में उसने समझा कि वे लोग राम को मारकर निष्कंटक राज करने जा रहे हैं। निषाद ने भरत की सारी सेना को गंगा में डुबा देने की तैयारी कर ली। पीछे वस्तुस्थिति विदित होने पर डुबाने की अपेक्षा खर्चीले आतिथ्य की व्यवस्था सीमित साधनों में उसने की। भक्ति इसी को कहते हैं, जिसमें अनीति से लडऩा और नीति का समर्थन करना होता है। शबरी के झूठे बेर भगवान ने खाये थे, पर वह सुयोग बना तब, जब उस भीलनी ने मातंग ऋषि के आश्रम का समीपवर्ती रास्ता साफ बनाए रखने का व्रत वर्षों निबाहा था। अर्जुन के घोड़े भगवान ने चलाये, वे सारथी बने। पर कदम उठा तब जब दैन्य, हीनता का भाव मिटाकर विशाल भारत बनने की योजना कार्यान्वित करने के लिए वह तैयार हुआ। बलि के दरवाजे पर भगवान भिक्षा मांगने पहुंचे थे ताकि पृथ्वी पर सुव्यवस्था की स्थापना का अवसर मिल सके। द्रौपदी को उन्होंने लाज बचाने हेतु वस्त्र इसलिए दिया था कि वह इससे पूर्व एक संत को वस्त्र हीन देखकर अपनी आधी साड़ी फाड़ कर दान दे चुकी थी। भगवान दानी तो अवश्य हैं। एक बीज के बदले हर वर्ष हजारों फूल, फल, बीज देते हैं। पर यह होता तभी है जब आरंभ में एक बीज अपने को मिट्टी में मिलाकर गला देने के लिए तैयार होता है। भक्ति और उसके वरदान मिलने की बात इसी प्रकार सोची जा सकती है। मीरा को विष के प्याले और सर्पों के पिटारे से इसलिए बचाया था, कि वह राणा के भयंकर प्रतिबन्धों की चिंता न करते हुए गांव-गांव, घर-घर भक्ति का अमृत बांटने के लिए प्रचार यात्रा पर निकल पड़ी थी। अध्यात्म तत्वज्ञान में हमÓ शब्द सीमित व्यक्तिवाद के निमित्त नहीं होता। उसका तात्पर्य होता है- हम सब। यह इसलिए कि आत्मसत्ता की उत्पत्ति, प्रगति और पूर्णता समस्त परिकर के साथ संयुक्त रहकर ही सम्भव हो सकती है। जीवन समग्र ही नहीं संयुक्त भी है। यह विराट ही परमात्मा है। परमात्मा अर्थात् आत्माओं का समूह समुच्चय। समुद्र छोटी बूंदों का समन्वय है। परमाणुओं की समवेत व्यवस्था ही सृष्टिगत हलचलों के रूप में दिखाई देती है। परमात्म सत्ता में आत्माओं के घटक अविच्छिन्न रूप से समाविष्ट हो रहे हैं। अतएव वे सजातीय ही नहीं संयुक्त भी है। - ओम
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